अपनी रोशनी का इंतजाम खुद करें

हिंदुस्तानी समाज के दोगलेपन, संवेदनहीनता और कुत्सित मानसिकता को उजागर करने वाला
एक और बलात्कार कांड घटित हो गया है। महिलाएं, लड़कियां, बच्चियां एक बार फिर खुद
को कुछ और असुरक्षित महसूस करने लगी हैं। पुरुष एक बार फिर अपने पुरुष होने का
घमंड महसूस कर सकते हैं।आखिर वे उस समाज में जन्मे हैं, जहां लड़कियों को पैदा होने का
भी हक नहीं है और अगर पैदा हो गईं तो फिर बराबरी का हक नहीं है, अगर संघर्ष कर
के वे बराबरी हासिल कर भी लें, तो फिर अपने घर, शहर और देश में सुरक्षित
रहने का हक नहीं है। उन्हें हर पल डर कर, संभल कर रहना होता है कि न जाने कब, कहां
उनके साथ बलात्कार जैसा घिनौना अपराध हो जाए। इतने घटिया और निकृष्ट समाज में,
डरावने माहौल में अगर पुरुषों को एक मिनट भी गुजारना पड़े, तो शायद तुरंत सारे
नियम-कायदे ऐसे बना लिए जाएं कि उनकी सुरक्षा का सारा इंतजाम हो, उन्हें किसी तरह की
तकलीफ या परेशानी न झेलनी पड़े।लेकिन ऐसा होगा नहीं, क्योंकि पुरुषों के वर्चस्व का
सारा इंतजाम तो उनके पैदा होते ही हो जाता है। वे दिन-रात की चिंता किए बिना चाहे जहां
घूमे-फिरे, किसी के भी साथ उठे-बैठें, उन पर न कोई पाबंदी लगाएगा, न उंगली उठाएगा,
न उनके चरित्र पर सवाल उठाएगा। ये सारी बातें तो महिलाओं के लिए आरक्षित हैं।
इसलिए इस पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं की इज्जत, उनके आत्मसम्मान, उनकी रक्षा की कोई
व्यवस्था नहीं है।महिला अधिकारों के नाम पर जितने भी कानून बने हैं, वे बेमानी हैं,
क्योंकि उनका असर समाज पर तो पड़ ही नहीं रहा है। कुछेक मामलों में अपराधियों को
सजा हो जाने का भी कोई असर विकृत मानसिकता वाले पुरुषों पर नहीं पड़ रहा है। इसलिए
निर्भया कांड हो या कठुआ कांड, उनके दोषी भले सलाखों के पीछे हों, लेकिन उसका कोई
कड़ा संदेश समाज में नहीं जा रहा है। बल्कि समाज तो देख रहा है कि निर्भया के दोषियों को
बचाने के लिए कुतर्क दिए गए कि हीरे को सड़क पर छोड़ेंगे तो लुटेगा ही।कठुआ कांड में
मासूम बच्ची के साथ दरिंदगी को देशभक्ति और देशद्रोह का रंग दे दिया गया। उन्नाव की
पीडि़ता ने एक शक्तिशाली नेता से लड़ाई लडऩे में खुद की जान दांव पर लगा दी, अपने
प्रियजनों को खोया, फिर भी अपराधियों के चेहरे की मुस्कुराहट बरकरार है।


शाहजहांपुर मामले में पीडि़ता को भी सलाखों के पीछे जाना पड़ा है, वह लड़की अब भी अपनी
बची-खुची हिम्मत के साथ परीक्षा देना चाहती थी, ताकि उसकी डिग्री उसे मिले, लेकिन विश्वविद्यालय
प्रशासन ने हाजिरी के नियमों का हवाला देते हुए उसे परीक्षा में नहीं बैठने दिया।
सामान्य परिस्थिति हो तो सबके लिए जो नियम हैं, वही लागू होने चाहिए, लेकिन हमारे नीति
निर्धारकों में इतनी संवेदनशीलता नहीं है कि एक यौनशोषण पीडि़ता, जो शक्तिशाली
आरोपी के खिलाफ लडऩे की हिम्मत दिखा रही है, उसके लिए नियमों में छूट दी जाए।कानून को
ठेंगा दिखाते हुए नित्यानंद देश से फरार हो गया, और सरकार के माथे पर शिकन भी
नहीं है। समाज भी बेपरवाह है कि जिसकी लड़की के साथ गलत हुआ, वो जानें, हमें क्या? इसलिए
बलात्कार की घटनाएं देश में रुक नहीं रही हैं। सुप्रीम कोर्ट में राज्यों के
हाईकोर्ट और पुलिस प्रमुखों ने आंकड़े दिए हैं कि इस साल के शुरुआती छह महीनों में
बलात्कार और यौनशोषण के 24 ,212 मामले दर्ज हुए हैं। यानी जो दर्ज नहीं हुए हैं, वैसे
अपराधों को तो गिना भी नहीं जा सकता। छेड़छाड़, भद्दी टिप्पणियां जब सर्वाधिक घिनौने
रूप में आती हैं तो बलात्कार के अपराध होते हैं। और छेड़छाड़ से तो लड़कियों को
रोजाना ही जूझना पड़ता है। आधे साल में जब लगभग 25 हजार बलात्कार हुए हैं, तो
सामान्य गणित से इसे साल में 50 हजार मानना चाहिए। अगर गैरत वाला समाज होता तो इतने
खराब हो चुके माहौल को सुधारने की शुरुआत तत्काल हो जाती। नागरिकों को, खासकर
पुरुषों को शर्म आती कि उनकी प्रजाति पर कितने घिनौने अपराध की उंगली उठ रही है।
लेकिन आज का भारतीय समाज इतना बेगैरत हो चुका है कि बलात्कार जैसी घटनाओं में
अपराधियों को सजा दिलाने की जगह उस पर भी धर्म की राजनीति करने से बाज नहीं आ
रहा। हैदराबाद में महिला डाक्टर के साथ जो नृशंस घटना घटी, उसके बाद
सांप्रदायिकता फैलाने के लिए तैयार किए गए आईटी सेल ने फौरन अपना काम शुरु कर
दिया और हिंदू-मुस्लिम पर बहस शुरु हो गई। ऐसा करने वाले लोग इस बात को समझते ही
नहीं हैं कि हर औरत पहले औरत है, बाद में हिंदू या मुसलमान, उसकी जाति या धर्म उसके
सुरक्षित होने की गारंटी नहीं दे सकते हैं। जो क्रूरता हैदराबाद में डाक्टर के
साथ हुई, वही अपराध झारखंड में कानून की छात्रा के साथ हुआ और पूरे देश में
सैकड़ों महिलाओं, लड़कियों यहां तक कि उन दुधमुंही बच्चियों के साथ भी हो रहा है, जिन्होंने
अभी ठीक से आंख खोलकर दुनिया भी नहीं देखी है। इसलिए बलात्कार के अपराध को किसी और
मुद्दे की ओर मोडऩा भी बलात्कार से कम नहीं समझा जाना चाहिए। प्रशासन, कानून इन
सबकी अपनी सीमाएं हैं, इसलिए केवल इनके भरोसे बलात्कार जैसे अपराध खत्म नहीं किए जा
सकते। पुरुष प्रधान समाज पर बहुत भरोसा करना भी बेवकूफी है। अब बिना देर किए इस देश
की आधी आबादी को अपनी शक्ति बढ़ानी होगी। अपराधियों का मुकाबला करने की हिम्मत
जुटानी होगी। अपनी सुरक्षा के लिए जो भी इंतजाम सही लगे, करना चाहिए। किसी पर भी
आंख मूंद कर भरोसा नहीं करना चाहिए। सतर्कता ही एकमात्र बचाव है, यह बात छोटी बच्चियों
से लेकर महिलाओं तक को गांठ बांध लेनी चाहिए। कुछ गलत होने पर मोमबत्ती लेकर निकलने
वाले लोगों के इस देश में महिलाओं के लिए अंधेरा ही अंधेरा है, अपनी रोशनी का इंतजाम
उन्हें खुद करना होगा।