देश के गृहमंत्री अमित शाह इस वक्त महाराष्ट्र में सरकार बनाने की कोशिशों में व्यस्त
हैं। उससे पहले वे हरियाणा पर ध्यान दे रहे थे। जम्मू-कश्मीर तो खैर हमेशा ही उनके
खयालों में रहता है। अब नेहरू मेमोरियल सोसायटी के सदस्य भी बन गए हैं, तो उन्हें यह भी
साबित करके दिखाना होगा कि इस संस्था को केवल कांग्रेस मुक्त ही नहीं, नेहरू से भी मुक्त कैसे
किया जाए।
आखिर नेहरू भाजपा के आदर्श पुरुष जो नहीं हैं। तो इस तरह सर्वव्यापी अमित शाह एक साथ
कई-कई जिम्मेदारियां निभा रहे हैं, संगठन की, सरकार की, लेकिन अपने पद की जिम्मेदारी
निभाने से वे चूक रहे हैं। तभी तो दिल्ली में पुलिस और वकीलों के बीच लगातार बढ़ रहे
टकराव के बावजूद वे चुप हैं। अगर दिल्ली पुलिस, दिल्ली सरकार के अधीन होती तो भाजपा की
ओर से नसीहतों, तानों और आरोपों की झड़ी लग जाती। लेकिन दिल्ली पुलिस, केंद्र सरकार
के अधीन है, तो भाजपा के बयानवीर संभल कर बोल रहे हैं। भाजपा हमेशा कहती आई है कि
70 सालों में जो नहीं हुआ, वो हमने कर दिखाया है। और अब लग रहा है कि उसकी इस बात पर
यकीन कर लेना चाहिए। 70 सालों में दिल्ली की सड़कों ने हजारों विरोध-प्रदर्शन, आंदोलन देखे
हैं और उनमें पुलिसकर्मियों को अपने आकाओं का हुक्म बजाते हुए कभी लाठी चार्ज, कभी
पानी की बौछार करते देखा है। लेकिन 70 सालों में ऐसा पहली बार हुआ है कि दिल्ली पुलिस
के जवान, उनके परिवार वाले, सेवानिवृत्त पुलिसकर्मी घंटों अपनी मांगों के साथ, इंसाफ
की गुहार लगाते सड़क पर बैठे रहे। इस अभूतपूर्व घटना को सरकार और सरकार
के मीडियाकर्मी भले ही कितने मामूली तरीके से पेश करें, लेकिन सब जानते हैं कि पुलिस
के जवानों का यूं मनोबल टूटना कानून व्यवस्था के लिए कितना घातक है। कोई भी सेनापति
हताश सैनिकों के भरोसे युद्ध जीतने का दावा नहीं करेगा। लेकिन न्यू इंडिया में यही हो
रहा है। न जाने किसके बूते भाजपा मजबूत सरकार देने का दावा करती है। दिल्ली की साकेत
कोर्ट के बाहर एक पुलिसकर्मी को जिस तरह से एक वकील ने पीटा, और उसका बाकायदा
वीडियो बनाकर उसे प्रसारित भी किया गया, यह देखना काफी दुखद था। इस एक वीडियो ने देश की
कानून व्यवस्था के उड़ चुके चीथड़ों को सबके सामने उजागर कर दिया। देश भर में भीड़
की हिंसा की जो घटनाएं हो रही हैं और होती आई हैं, वे इस तरह की हिंसा से कोई बहुत अलग
नहीं हैं। कन्हैया कुमार के साथ कोर्ट परिसर में जिस तरह मारपीट की गई थी, और तब
कानून के हाथ जिस तरह बंधे हुए थे, उसकी सच्चाई भी इस वीडियो से समझी जा सकती है। अभी
मारने वाला वकील था, मार खाने वाला पुलिसकर्मी था, यह स्थिति उलट भी हो सकती थी। बल्कि
कई बार ऐसा ही हुआ भी है। बेकसूर पर अत्याचार करना, कानून अपने हाथ में लेना,
अपनी शक्ति का बेजा प्रदर्शन करना और कमजोर को और दबाना, यही सब तो इस देश का सच
बन गया है, जो इस वीडियो के जरिए पुनरूस्थापित हुआ है। हिंसा किसी भी तरह की हो, वह सही नहीं
हो सकती। इसलिए अभी के मामले में कौन सही है, कौन गलत, इस की पड़ताल के साथ यह देखना ज्यादा
जरूरी है कि देश में क्या सही है और क्या गलत। पुलिस और वकील, दोनों ही कानून व्यवस्था
के अहम पहलू हैं, इनमें से किसी एक को नीचा दिखाकर या दूसरे को दोषी साबित करके
तात्कालिक जीत तो मिल सकती है, लेकिन इससे वे सवाल नहीं सुलझेंगे, जिन्होंने देश के माहौल को
खराब कर दिया है। जब किसी घटना पर लोग खुलकर अपनी राय रखने से हिचकिचाएंगे, डर
के, सहम के रहेंगे, कि न जाने किस बात पर कौन आकर मारपीट कर दे, या किसी और
तरह का नुकसान पहुंचा दे, सरकार की ओर से कब, कौन सा फरमान जारी हो जाए, कौन सा
नया कानून बन जाए, जो सख्ती के नाम पर बदला लेने के काम आए, तो ऐसे माहौल में कुछ भी सही
कैसे होगा?डरे हुए समाज और मरघट में कोई खास फर्क नहीं रहता है, सिवाय सांसों की
आवाजाही के। इसलिए अगर हमें जिंदा लोगों का समाज बनाना है, तो उसके लिए दिल, दिमाग को
सांसों की तरह काम पर लगाना होगा। सिस्टम को ठीक करने के लिए आवाज उठानी होगी।
क्योंकि जिनके हाथों में सिस्टम है, वे चुप हैं।