मैसूर का शेर कहे जाने वाले टीपू सुलतान फिर एक बार सुर्खियों में हैं। याद रहे वह
साल 2006 था जब भाजपा से जुड़े डी एच शंकरामूर्ति, जो उन दिनों कर्नाटक में कुमारस्वामी
के अगुआई वाली सरकार में उच्च शिक्षा का महकमा संभाल रहे थे, अचानक राष्ट्रीय
सुर्खियों में आए। वजह उनकी यह विवादास्पद मांग थी कि सूबे में इस्तेमाल हो रही पाठ्यपुस्तकों
से टीपू सुलतान - जिन्हें मैसूर का शेर कहा जाता है - को हटा दिया जाए। भाजपा की यह
विवादास्पद मांग उन दिनों परवान नहीं चढ़ सकी। इस घटना के बाद एक अर्सा गुजर गया है।
फिलवक्त न केवल कर्नाटक सूबे में बल्कि केन्द्र में भी भाजपा सत्ता की बागडोर संभाल रही
है और अब इस अधूरे काम को पूरा करने की नयी योजना का खाका खींचा जा रहा है।
कर्नाटक में येदियुरप्पा सरकार के सौ दिन पूरे हो गए हैं और न केवल टीपू जयंती के
आयोजन में सरकारी सहभागिता को समाप्त किया गया है और अब इस बात पर विचार हो रहा
है कि प्रायमरी स्कूल की किताबों से टीपू को महिमामंडित करनेवाले पाठों को हटा दिया
जाए। दिलचस्प बात यह है कि इस बार इस काम को हाथ में लेने के लिए कन्नड भाषा के साथ अन्याय
की दलील का सहारा नहीं लिया जा रहा है- जिसका इस्तेमाल 2006 में किया गया था - बल्कि यह
कहा जा रहा है कि वह एक श्क्रूर शासक थे जिनका एकमात्र मकसद मंदिरों और चर्चों को
लूटना था और गैरमुसलमानों को मारना था या उनका धर्मांतरण करना था।
मादिकेरी विधानसभा से भाजपा विधायक एम पी अप्पाचू रंजन द्वारा प्रायमरी और
सेकण्डरी एजुकेशन विभाग के मंत्री एस सुरेश कुमार को भेजी गई दरखास्त का फोकस यही
है। भाजपा नेताओं द्वारा इन दिनों पेश की जा रही टीपू सुलतान की नकारात्मक छवि से
लोगों को इस बात का भ्रम न हो कि शुरू से ही हिन्दू दक्षिणपंथी ताकतों के लिए वह ऐसे ही रहे
हैं। एक वक्त था जब टीपू सभी के प्रेरणास्रोत थे। इतिहास इस बात का गवाह है कि टीपू- जो
अपने वक्त से काफी आगे की शख्सियत था, जिसने ब्रिटिश चालों को पहचानते हुए फ्रेंच, तुर्कों
और अफगानों के साथ रणकौशलात्मक एकता बनाने की कोशिश की थी ताकि ब्रितानवी ताकतों
की वर्चस्ववादी चालों का मुकाबला किया जा सके- ने अपनी बेहतर योजना और बेहतर तकनीक
के सहारे ब्रिटिश सेना को दो बार पराजित किया था और जो श्रीरंगपटटनम की
लड़ाई में ब्रिटिश सेना के साथ मारे गए थे। (1799) सत्तर के दशक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ ने भी एक किताब प्रकाशित की थी अपनी श्भारत भारतीश् श्रंृखला के तहत जिसका फोकस
मैसूर के शेर अर्थात टीपू पर था। जानेमाने पत्रकार एवं लेखक चंदन गौड़ा इसी पहलू पर
रौशनी डालते हुए लिखते हैं-एक वक्त था जब टीपू सुलतान, मैसूर के राजा, हरेक के
आयकन थे। हिन्दू दक्षिणपंथ द्वारा इन दिनों मुस्लिम कट्टरपंथी साबित करने की कोशिश बताती
है कि उनके राजनीतिक सरोकार अब बदल गए हैं। द न्यूज मिनट में प्रकाशित रिपोर्ट बताती
है कि श्कर्नाटक की हर पार्टी की तरफ, भाजपा ने भी वर्ष 2015 के पहले टीपू सुलतान का
गौरवगान किया है...दरअसल, 2012 में, कर्नाटक के कन्नड और संस्कृति विभाग ने एक किताब
प्रकाशित की थी जिसका शीर्षक था टीपू सुलतान- ए क्रूसेडर फार चेंज। इस किताब का लेखन
डॉ. शेख अली ने किया था। तीन सौ अड़तीस पेज की उपरोक्त किताब में टीपू की उपलब्धियों,
ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ उनके संघर्ष सभी का चित्रण किया गया था। इस किताब की
शुरूआत में तत्कालीन मुख्यमंत्री भाजपा के जगदीश शेत्तार का सन्देश भी छपा है।
मुख्यमंत्री जगदीश शेत्तार ने लिखा था-वर्ष 1782 से 1799 के बीच का कर्नाटक का आधुनिक
इतिहास टीपू सुलतान द्वारा निभायी अहम भूमिका के लिए जाना जाता है, जिन्हें मैसूर का
शेर भी कहा जाता था। राष्ट्रराज्य की उनकी अवधारणा, राज्य उद्यमिता की उनकी सोच,
उनके उन्नत सैनिक कौशल, सुधारों के लिए उनकी तड़प आदि बातें उन्हें अपने युग के
शासकों में एक अनोखी हैसियत प्रदान करते हैं।तीन साल पहले जब कर्नाटक में सिद्धारमैया की
अगुआई वाली कांग्रेस सरकार टीपू जयंती समारोहों का आयोजन कर रही थी और
भाजपा ने आक्षेप उठाना शुरू किया था तब जनता दल (एस) के नेता बसवराज होराती ने विगत
मुख्यमंत्रियों बी एस येदियुरप्पा और जगदीश शेत्तार की कुछ तस्वीरें जारी की थी,
जिसमें वह दोनों अलग-अलग मौकों पर टीपू जैसा पहनावा पहने दिखते हैं। टीपू को किताबों से
रूखसत कर देने की यह मुहिम कैसे परवान चढ़ती है यह आने वाला वक्त बताएगा लेकिन यह सोचा
जा सकता है कि अगर भाजपा को इसमें श्कामयाबीश् मिलती है तब वह चाहे-अनचाहे उन्हीं
ब्रितानवी उपनिवेशवादियों के साथ खड़े अपने आप को देखेंगे जिनके लिए टीपू सुलतान एक प्रमुख
बाधा बन कर उभरे थे। हमें नहीं भूलना चाहिए कि ब्रिटिशों की बांटो और राज करो
की नीति के तहत इतिहास के विकृतिकरण का काम टीपू सुलतान को लेकर लम्बे समय से चल रहा
है। इस सन्दर्भ में हम राज्यसभा में दिए गए प्रोफेसर बीएन पांडे के भाषण को देख सकते हैं, जो
उन्होंने 1977 में श्साम्राज्यवाद की सेवा में इतिहासश् के शीर्षक के साथ प्रस्तुत किया था।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर रहे बीएन पाण्डे, जो बाद में उड़ीसा के
राज्यपाल भी बने, उन्होंने अपने अनुभव को सांझा किया। अपने भाषण में 1928 की घटना
का उन्होंने विशेष तौर पर जिक्र किया। उनके मुताबिक जब इलाहाबाद विश्वविद्यालय में वह
प्रोफेसर थे तब कुछ विद्यार्थी उनके पास आए और उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय के संस्कृत
विभाग के प्रोफेसर हरप्रसाद शास्त्री द्वारा लिखी किताब दिखाई, जिसमें बताया गया था कि
टीपू ने तीन हजार ब्राह्मणों को इस्लाम धर्म स्वीकारने के लिए मजबूर किया वर्ना उन्हें
मारने की धमकी दी। किताब में लिखा गया था कि इन ब्राह्मणों ने इस्लाम धर्म स्वीकारने के
बजाय मौत को गले लगाना मंजूर किया। इसके बाद उन्होंने प्रोफेसर हरप्रसाद शास्त्री से
सम्पर्क कर यह जानना चाहा कि इसके पीछे क्या आधार है ? प्रोफेसर शास्त्री ने मैसूर
गैजेटियर का हवाला दिया। उसके बाद प्रोफेसर पांडे ने मैसूर विश्वविद्यालय के इतिहास
के प्रोफेसर श्रीकान्तिया से सम्पर्क किया, तथा उनसे यह जानना चाहा कि क्या वाकई में
उसके इसमें इस बात का उल्लेख है। प्रोफेसर श्रीकांन्तियां ने उन्हें बताया कि यह सरासर
झूठ है, उन्होंने इस क्षेत्र में काम किया है और मैसूर गैजेटियर में इस बात का कोई
उल्लेख नहीं है बल्कि उसका उल्टा लिखा हुआ है कि टीपू सुलतान 156 हिन्दू मंदिरों को सालाना
अनुदान देते थे और श्रंगेरी के शंकराचार्य को भी नियमित सहायता करते थे। ऐसा कोई भी
शख्स जिसने टीपू सुलतान द्वारा कथित तौर पर किए गए हिन्दुओं और ईसाइयों के धार्मिक
उत्पीडऩ की कहानियां पढ़ीं होंगी उसे यह समझना चाहिए कि शुरूआती ब्रिटिश लेखकों -
किर्कपैटिक और विल्क-की रचनाएं इन सभी के लिए आधार का काम करती है, जो दोनों खुद
टीपू सुलतान के जबरदस्त विरोधी थे। दरअसल टीपू सुलतान को एक जुल्मी राजा दिखाने में तथा
ब्रिटिश सेना को एक मुक्तिदाता के तौर पर प्रोजेक्ट करने में उनका निहित स्वार्थ था।
अपनी हाल की किताब में ब्रिटलबैक बताती है कि किस तरह विल्क और किर्कपैटिक दोनों ने ही
टीपू सुलतान के खिलाफ लड़ाई में हिस्सा लिया था। और यह दोनों लार्ड कार्नवालिस और
रिचर्ड वेलस्ली जैसों के प्रशासन का हिस्सा भी रहे हैं, लिहाजा उन्हें ध्यान से पढऩा
चाहिए। यह विडम्बनापूर्ण है कि नब्बे के दशक में भारतीय समाज के कुछ सदस्यों का आक्रामक
हिन्दुत्व टीपू की छवि के विकृतिकरण में लगा है, जो हम देख सकते हैं कि इस उपमहाद्वीप के
औपनिवेशिक ताकतों ने गढ़ी थी। (ब्रिटेलबेंक केट(1999) टीपू सुलतान सर्च फोर
लेजिटिमसी, दिल्ली, आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस,) वैसे हिन्दू दक्षिणपंथी जमातें, जिन्होंने
उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष से दूरी बनाए रखी और जो दरअसल ब्रिटिशों के खिलाफ खड़ी हो
रही जनता की व्यापक एकता को तोडऩे में मुब्तिला था, उसकी तरफ से टीपू को लेकर जो
आपत्तियां उठायी जा रही हैं, इसमें आश्चर्यजनक कुछ भी नहीं है। दरअसल टीपू सुलतान को
बदनाम करके, जिनकी पूरे भारत के जनमानस में व्यापक प्रतिष्ठा है, उन्हें यही लगता है कि वह
उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष में अपनी शर्मनाक भूमिका पर चर्चा से बच जाएंगे।