सावरकर को भारत रत्न देने का संदेश क्या होगा?

देश के स्वतंत्रता संघर्ष के सिलसिले में जिन विशिष्ट नेताओं की चर्चा होती है, उनमें विनायक
दामोदर सावरकर भी एक हैं। वे देश के सांस्कृतिक विकास के स्वरूप और दिशाओं के
अध्येता भी थे। अंग्रेजों ने उन्हें अपने खिलाफ विद्रोही मानकर ही अलग-अलग दो लम्बी सजायें
सुनाकर अण्डमान निकोबार की सेलुलर जेल में कालापानी भुगतने के लिए भेजा था।
सावरकर ने उक्त जेल में अमानवीयता व पशुवत व्यवहार और दण्ड व भय के वर्चस्व के बीच नौ
साल दस महीने काटे। इन नौ सालों और दस महीनों के लिए उन्हें सम्मानित नेता मानकर आदर
के साथ स्मरण करना होगा। भले ही इस सजा ने उन्हें इतना तोड़ दिया कि इस दौरान उन्होंने
अंग्रेजों से माफी के लिए नौ पत्र लिखे। 1925 में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ के गठन के लिए प्रयासरत थे, तो सावरकर उनके सहयोगी थे। तब राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ के लिए जिस गणवेश का चयन हुआ, वह कई मामलों में अंग्रेज सिपाहियों के लिए
निर्धारित वर्दी से मेल खाता था। उसके स्वयंसेवकों के हाथों में लाठी भी पकड़ायी गयी, जिसके
विभिन्न गुण बताये गये। अब देश और उसके ज्यादातर राज्यों में संघ के स्वयंसेवकों व
समर्थकों की सरकारें हैं तो आश्चर्य नहीं कि उसके सहयोगी सावरकर का सम्मान बढ़ गया है
और बात उन्हें श्भारत रत्नश् देने तक जा पहुंची है। इस तथ्य के बावजूद कि देश के विभाजन
के लिए भी सबसे ज्यादा सावरकर ही जिम्मेदार है। क्योंकि इस आशय का सबसे पहला विचार
उन्हीं का था कि हिन्दू और मुसलमान दो अलग अलग विचारों वाली कौमें हैं, जो एक साथ रह ही नहीं
सकतीं, इसलिए उन्हें अलग किया जाना चाहिए। अलबत्ता, अंग्रेजों के हाउस आफ कामन्स को विभाजन
का स्वरूप तय करना हुआ तो उसने उसको इस रूप में स्वीकार किया कि गत चुनाव में देश के
जिन सूबों में मुस्लिम लीग जीती है, उन्हें पाकिस्तान और जिनमें कांग्रेस जीती है, उन्हें हिन्दुस्तान
मानकर अलग कर दिया जाना चाहिए। यही कारण है कि पख्तूनिस्तान, जिसमें कांग्रेस जीती थी,
भारत के हिस्से में आया था। यह बात और है कि भारत के तत्कालीन कर्णधारों ने उसे न
स्वीकार करने के लिए जनमतसंग्रह का बहाना बनाकर पाकिस्तान को श्सौंपश् देने का
रास्ता निकाल लिया। सावरकर के विचारों और उनके प्रभावों का अध्ययन करना हो तो
यह भी याद करना चाहिए कि 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के छठे दिन उनको मुम्बई से हत्या
के षड्यंत्र में शामिल होने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया था। भले ही उन्हें
फरवरी 1949 में बरी कर दिया गया। महात्मा के हत्यारे नाथूराम गोड्से का अदालत में


दिया गया वह अन्तिम बयान भी पढ़ा जाना चाहिए जिसमें उसने कहा था कि मेरे द्वारा की गई
गांधी की हत्या मेरे मन में सावरकर के विचारों में आस्था और विश्वास का परिणाम थी,
जिसके कारण मेरा मानना था कि गांधी ही हिन्दुस्तान की सारी विपत्तियों के जनक हैं।
नाथूराम के अनुसार उसे महात्मा की हत्या का कोई दुरूख और क्लेश नहीं था क्योंकि
उसकी मान्यता थी कि विपरीत जीवन दर्शन वाले उनके जैसे नेता का, जो देश के बड़े भाग को
प्रभावित करता हो, अन्त तो होना ही चाहिए। हालांकि अन्य कई कारक भी इसे प्रमाणित कर चुके
हैं, इस बयान से भी साफ निष्कर्ष निकलता है कि सावरकर और गांधी की विचारधाराएं सर्वथा
भिन्न थीं। व्यक्ति के रूप में सावरकर किसी धार्मिक मान्यता के साधक नहीं थे और उनकी रुचि
व दर्शन इन मान्यताओं से भिन्न थे, लेकिन वे मुसलमानों को स्वीकार करने के स्पष्ट विरोधी थे।
ऐसे में सावरकर को ऐसा नेता मानना पड़ेगा, जिसके मन में लोक कल्याण की भावना तो थी,
लेकिन उसकी समझ यह थी कि इस लोक कल्याण को लोगों को जोड़कर नहीं बल्कि विभाजित करके
ही दीर्घकालिक बनाया जा सकता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बात करें तो भले ही वह अपने
को सांस्कृतिक संगठन बताये, उसका स्वरूप अद्र्धसैनिक रहा है और अतीत में वह अपने विचारों
को फैलाने के लिए लोगों को साथ लाकर शिक्षित करता रहा है। निश्चित ही वह लिपिबद्ध
निष्ठाओं वाला राजनीतिक दल या संगठन नहीं रहा और उसका अर्धसैनिक स्वरूप इसलिए है कि
विपरीत स्थितियों में अपने विरोधियों से निपटा जा सके। माना जाता है कि उसका यह स्वरूप
सावरकर की सहमति से तय हुआ। अगर यह वैयक्तिक लाभ उठाने की अपेक्षाओं या इच्छाओं
पर निर्भर होता, तो इसे स्वार्थ कहा जाता। लेकिन सावरकर ऐसी प्रवृत्ति से मुक्त थे। इसलिए
उनके विचारों से असहमति जताते हुए भी कहना होगा कि देश और समाज में वे जो प्रयोग करना
चाहते थे, उसके सम्बन्ध में उनकी अपनी कल्पनाएं और विचार थे। ऐसे में भारतीय जनता पार्टी
ने महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के लिए जारी अपने घोषणापत्र में सावरकर को श्भारत
रत्न्य सम्मान देने का जो वायदा किया है, उसके संदर्भ में यही कहा जा सकता है कि ऐसा कोई
भी निर्णय उसे करने में सक्षम इकाइयों के रवैये और नजरिये पर निर्भर करेगा।
इस पर कि वे किन गुणों व मूल्यों के वर्चस्व और महत्व को स्वीकार या अस्वीकार करने की
पक्षधर हैं। निर्णायक इकाई मानती है कि सावरकर को यह सम्मान मिलना चाहिए तो उससे
असहमति जताकर उसकी आलोचना की जा सकती है, लेकिन खुद निर्णायक नहीं हुआ जा सकता।
निर्णय की शक्ति तो अंततरू निर्णायक इकाई में ही होती है।इस पर बहस की जा सकती है कि
निर्णायक इकाई का यह स्वरूप कैसे बना है, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि लोकतंत्र में
लोग हमेशा किसी खास दिशा के प्रति ही आकर्षित होते रहेंगे। फिर लोकतंत्र में तो परम्परा
है कि उसके पथ के अनुगामियों को असहमत होते हुए भी बहुमत के निर्णय को स्वीकार करना
पड़ता है। अलबत्ता, ऐसे निर्णयों का मूल्यांकन करना हो तो ध्यान में रखना पड़ेगा कि
उनकी दिशा क्या है और वे किस ओर जा रहे हैं? इस लिहाज से देखें तो विचार करना होगा
कि सावरकर को भारत रत्न से क्या संदेश जायेगा? क्या तब उनके परम भक्त नाथूराम
गोड्से ने जिस तरह गांधी को अपना वैचारिक विरोधी मानकर समाप्त करने का जो निर्णय
लिया था, उसे व्यवस्था का विधिमान्य तरीका स्वीकार कर लिया जायेगा? उससे असहमति का
अधिकार तो होगा लेकिन निर्णय का आधार नहीं बदलेगा?प्रसंगवश, सावरकर को भारत
रत्न देने का वादा करने वालों की सरकारों ने अभी नाथूराम गोड्से के कृत्य को
मान्यता नहीं दी है, न ही उसे अपने विचारों और चिंतन के मूल कारक के रूप में ही स्वीकार
किया है। लेकिन कौन कह सकता है कि सावरकर के बाद उनके शिष्य नाथूराम गोड्से को भी
राष्ट्र का यह सर्वप्रमुख सम्मान दिये जाने की आवश्यकता महसूस नहीं की जायेगी? अभी यह सवाल न
विचाराधीन है और न चर्चित लेकिन जब हम ऐसे किसी निर्णय के भावी परिणामों को देखते हैं
तो संभावना लगती है कि आगे चलकर ऐसे तर्क भी दिये जा सकते हैं कि नाथूराम ने जो भी किया


उसका दण्ड तो वह भुगत चुका है और उसके नायक सावरकर का सम्मान हो गया तो उनके
विचारों से मेल के लिए उसका सम्मान भी होना ही चाहिए। जाहिर है कि सावरकर को यह
सम्मान दिया गया तो वह उनका अकेले का नहीं भावी व्यवस्था के नायक के रूप में उनकी दिशा
का भी सम्मान होगा। देखना है कि उन्हें भारत रत्न देना चाहने वाले सरकारी नेता इसे
उपयुक्त मानकर इसके लिए तैयार होते हैं या नहीं?