किसकी नींव पर बनेगा मंदिर

किसी अवार्ड शो को याद कीजिए, जिसमें चार नामांकित लोगों में से एक को अवार्ड मिलता है, और
यह अवार्ड काबिलियत से अधिक एसएमएस के जरिए किए गए वोट से मिलता है, यानी बहुसंख्यक लोगों की
पसंद से विजेता तय होता है। उसके बाद वह विजेता ट्राफी पकड़कर अतिशय विनम्रता दिखाता हुआ
अपनी जीत के लिए आभार व्यक्त करता है और जिन्हें उसने पराजित किया है, उन्हें भी आश्वस्त
करता है कि केवल मैं नहीं दरअसल हम सब विजेता हैं। और अब याद कीजिए 9 नवंबर को
प्रधानमंत्री का राष्ट्र के नाम संबोधन। अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद
मोदीजी ने राष्ट्रवासियों के सामने अपने मन की बात रखी कि आज के दिन का संदेश जुडऩे का,
जोडऩे का और मिलकर जीने का है। उन्होंने फिर से नए भारत के निर्माण की बात कही, वो
भी सबके साथ। मन में विचार उठता है कि अगर सर्वोच्च अदालत का फैसला इसके उलट होता,
क्या तब भी प्रधानमंत्री इसी तरह विनम्रता दिखाते हुए संबोधित करते? खैर, ऐसा नहीं हुआ और यह
अनुमान देश को था कि सुप्रीम कोर्ट 40 दिनों की सुनवाई के बाद क्या फैसला देगा। इसलिए
जब पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने एकमत से यह फैसला दिया कि राम जन्मभूमि न्यास को 2.77 एकड़
जमीन का मालिकाना हक दिया जाएगा और मुस्लिम पक्ष का वहां दावा खारिज करते हुए मस्जिद


निर्माण के लिए अयोध्या में ही किसी प्रमुख स्थान पर पांच एकड़ जमीन दी जाएगी, तो अधिक आश्चर्य
नहीं हुआ। जहां तक देश के जुड़े रहने की बात है, यह तो भविष्य बताएगा कि हिंदुस्तान में क्या
कितना जुड़ा रहेगा, लेकिन इतिहास यही बताता है कि अयोध्या विवाद शुरु होने से पहले,
बाबरी मस्जिद को गिराए जाने से पहले हिंदुस्तान का जोड़ काफी मजबूत था, लेकिन बाद में इससे
दरारें आती रहीं, जो समय के साथ खाई में बदलती गईं। मंदिर-मस्जिद धर्म से ज्यादा राजनीति
का विषय बन गए और हर चुनाव में भाजपा के घोषणापत्र में मंदिर निर्माण का वादा
प्रमुखता से स्थान पाता रहा। कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने के बाद अब भाजपा के पास अपना
सीना चौड़ा करने के लिए एक और कारण मिल गया है। उस जमीन पर रामलला का हक
अदालत ने माना है, साथ ही तीन महीने में न्यास गठित कर मंदिर निर्माण के लिए योजना बनाने
के निर्देश केंद्र सरकार को दिए हैं। देश की सर्वोच्च अदालत के इस फैसले का सभी सम्मान कर
रहे हैं, जो जीते हैं, वो भी, जो हारे हैं वो भी। अब देश जल्द ही एक और भव्य मंदिर को बनते
देखेगा। लेकिन उसकी नींव में क्या है, यह देखना भी जरूरी है। अदालत ने 40 दिनों की सुनवाई
में सभी पहलुओं को गौर से सुना, तथ्यों की पड़ताल की और उसके बाद फैसला सुनाया।
जिसमें कई बार विरोधाभास देखने मिला। जैसे अदालत ने कहा कि आस्था के आधार पर
मालिकाना हक नहीं दिया जा सकता। लेकिन यह भी कहा कि ऐतिहासिक यात्रा वृतांत बताते हैं कि
सदियों से मान्यता रही है कि अयोध्या ही राम का जन्मस्थान है। हिन्दुओं की इस आस्था को लेकर
कोई विवाद नहीं है। यानी अदालत ने आस्था को तरजीह दी है। अदालत ने माना कि अयोध्या में
विवादित स्थल के नीचे बनी संरचना इस्लामिक नहीं थी लेकिन भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण
(एएसआई) ने यह साबित नहीं किया कि मस्जिद के निर्माण के लिये मंदिर गिराया गया था।
इससे दो बातें साबित होती हैं कि एएसआई यह साबित करने में नाकाम रही कि जो संरचना
इस्लाामिक नहीं थी, वो असल में क्या थी, क्या वह मंदिर था या जैन या बौद्ध मंदिर था या कुछ
और था। दूसरी बात जिस जगह की खुदाई एएसआई ने की, वह पुरातात्विक भग्नावशेष था। जिस
तरह हड़प्पा, मोहनजोदड़ो से लेकर भारतीय उपमहाद्वीप के कई हिस्सों में प्राचीन इतिहास के
अवशेष बिखरे पड़े हैं और उन्हें धर्म से परे जाकर समेटने, समझने की कोशिश की गई।
वैसा होने की गुंजाइश अब अयोध्या में खत्म हो गई है। क्योंकि एक पुरातात्विक स्थल को अदालत
के फैसले के बाद सहर्ष नष्ट कर, धर्म की इमारत खड़ी की जाएगी। मंदिर यहां था यह किसी ने नहीं
देखा, केवल आस्था है, लेकिन मस्जिद थी, यह तो 1992 तक देश ने देखा है। वहां नमाज भी पढ़ी जाती थी।
और अदालत ने माना है कि इसे मीर बाकी ने बनवाया था। यानी यह कम से कम 5 सौ साल
पुरानी थी। पुरातात्विक स्थल के साथ यहां ऐतिहासिक इमारत भी थी, जिसे तोडऩे का अपराध
किया गया। जिस जगह अपराध हुआ, उसके दोषियों को तो अब तक सजा नहीं मिली है, फिर उस जगह पर
दूसरी इमारत खड़ी करना क्या इंसाफ होगा? अयोध्या विवाद दशकों पुराना है, इसलिए इसका
निपटारा जल्द होना चाहिए था, ऐसा कहने वाले यह भी तो सोचें कि 27 साल पहले खुलेआम भीड़
को भड़का कर मस्जिद तोड़ी गई थी, उसके अपराधियों को सजा क्यों नहीं मिली? जस्टिस लिब्रहान
आयोग ने 17 साल चली लंबी तफ्घ्तीश के बाद 2009 में अपनी रिपोर्ट पेश की थी, जिसमें बताया
गया कि मस्जिद को एक गहरी साजिश के तहत गिराया गया था। क्या इस साजिश को रचने वालों
को इसी तरह रोजाना सुनवाई कर सजा नहीं दी जानी चाहिए? क्योंकि वे न केवल ऐतिहासिक
ढांचे को गिराने के दोषी हैं, बल्कि देश की सांप्रदायिक सद्भाव की बुनियाद को तोडऩे के भी
अपराधी हैं। इस फैसले के बाद भी काशी-मथुरा का नाम इन अतिवादियों की जुबान पर
चढऩे लगा है, उन्हें किस तरह रोका जाएगा।
हिंदुस्तान में कई सल्तनतों ने राज किया, हरेक ने दूसरे की बुनियाद पर अपनी मंजिल खड़ी
की। ऐसे में किस ढांचे के नीचे क्या है, इसका हिसाब लगाने बैठेंगे तो सारे देश में उथल-


पुथल मच जाएगी। इसे सरकार कैसे रोकेगी? अदालत ने गोपाल सिंह विशारद को
मरणोपरांत पूजा का अधिकार दिया है, यह बात भी कुछ अजीब लगती है। बहरहाल देश के
प्रधान न्यायाधीश ने अपनी सेवानिवृत्ति से चंद रोज पहले एक ऐतिहासिक मामले पर निर्णय
सुना दिया है। लेकिन इतिहास इसे किस तरह देखेगा, इतिहास में उनका नाम किस तरह दर्ज होगा, यह
नए भारत का भविष्य बताएगा