नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्री के रूप में लगातार दूसरी बार ताजपोशी के बाद
एक बड़ा बदलाव यह भी देखने को मिला कि दिल्ली के मुख्यमंत्री और आप सुप्रीमो अरविंद
केजरीवाल भीगी बिल्ली बन गए हैं। केजरीवाल कल तक यह सोचते थे कि मोदी की लानत-मलामत कर
वह केंद्रीय सत्ता के शीर्ष तक पहुंच सकते हैं, लेकिन अब वह मोदी के समक्ष सफेद झंडा लहराते
नजर आ रहे हैं। आम चुनाव के नतीजे आने के बाद उन्होंने खुद प्रधानमंत्री को व्यक्तिगत रूप
मिलकर बधाई देने के लिए वक्त मांगा। उन्होंने केंद्र के साथ मिलकर काम करने की इच्छा भी
जताई। आपने गौर किया होगा कि केजरीवाल की मोदी-विरोधी राजनीति की पहचान बन चुके
तीखे, विषैले ट्वीट्स और व्यक्तिगत हमले अब बंद हो चुके हैं। आज केजरीवाल कुछ ऐसे
गैर-भाजपाध्एनडीए नेताओं में हैं, जो आर्थिक सुस्ती से निपटने में मोदी की क्षमता पर
भरोसा जता रहे हैं। लेकिन एक बड़ा बदलाव, जिसने मोदी के प्रति उनके बदलते रवैये पर
मुहर लगा दी और विपक्षी दलों के उनके मित्रों को हैरान कर दिया, वह था राज्यसभा में
श्आप का जम्मू-कश्मीर से जुड़े अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने और इस राज्य का दर्जा
घटाते हुए इसे दो केंद्रशासित प्रदेशों में बांटने वाले विधेयक का समर्थन करना। आखिर
जो केजरीवाल दिल्ली के लिए पूर्ण राज्य के दर्जे की मांग को अपना प्रमुख एजेंडा बनाए हुए हों,
उनका किसी ऐसे विधेयक का समर्थन करना तो चौंकाएगा ही, जो किसी राज्य का दर्जा घटाते
हुए उसे केंद्रशासित प्रदेश बनाने की बात करता हो। लेकिन कदाचित केजरीवाल ने यह सोचा
कि इस मोड़ पर स्मार्ट पॉलिटिक्स यही है कि एक असंभव से स्वप्न के पीछे भागने के बजाय
मोदी के जीत के पलों में उनके साथ मिलकर चला जाए। केजरीवाल की रणनीति में इस बदलाव
के प्रतिफल भी नजर आने लगे हैं। इस साल पहली बार मोदी ने केजरीवाल को उनके जन्मदिन
पर शुभकामना पत्र भेजा। इसके बाद एक-दूसरे के लिए दोस्ताना ट्वीट्स भी किए गए। एक
और अनोखी बात हुई। केंद्र ने यमुना के डूब क्षेत्र में जल-संरक्षण परियोजना के दिल्ली
सरकार के प्रस्ताव को जिस तेजी से मंजूरी दी, वह मोदी और केजरीवाल के मध्य नए सहभागिता
आंदोलन का संकेत था। हालांकि ऐसा भी नहीं कि सबकुछ बढिय़ा ही है। हाल ही में मोदी
सरकार ने केजरीवाल को कोपेनहेगन में आयोजित क्लाइमेट चेंज कॉन्फ्रेंस में जाने की
इजाजत नहीं दी, जहां पर कि केजरीवाल दिल्ली की आबोहवा को साफ-सुथरा बनाने की अपनी
उपलब्धि का बखान करना चाहते थे। लेकिन यहां गौरतलब है कि केजरीवाल ने इसके बावजूद
केंद्र के खिलाफ एक शब्द नहीं बोला। ये वही केजरीवाल हैं जो मोदी को कायर और मनोरोगी
जैसे विशेषणों से नवाज चुके हैं। लेकिन आज वह खुद को नियंत्रित किए हुए हैं तो इसकी एक खास
वजह है। दरअसल केजरीवाल उम्मीद कर रहे हैं कि अपने हमलों की धार को मोदी से हटाने से
वह अगले साल फरवरी में होने वाले दिल्ली विधानसभा चुनाव की तीक्ष्णता को कम कर सकते हैं
और अपने चुनाव अभियान का ताना-बाना स्थानीय मसलों के इर्द-गिर्द बुन सकते हैं। लोकसभा
चुनावों में दिल्ली में आप के सफाये के बाद केजरीवाल को समझ में आ गया कि यदि वह खुद को
मोदी के मुकाबले खड़ा करते हैं तो उनकी मिट्टी पलीद होना तय है। उन चुनावों में आप का
प्रदर्शन यहां तक कि कांग्रेस से भी बदतर रहा। राष्ट्रीय राजधानी में भाजपा को 56.58
प्रतिशत और कांग्रेस को 22.46 फीसदी वोट मिले, जबकि आप का वोट शेयर 18 फीसदी पर
सिमट गया। यह उसे 2014 मिले वोटों से तकरीबन 15 फीसदी कम था। श्आप दिल्ली की सात लोकसभा
सीटों में से पांच में तीसरे स्थान पर खिसक गई और इसके तीन प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो
गई। ये नतीजे केजरीवाल के लिए आंख खोलने वाले थे, जो कि 2015 में हुए विधानसभा चुनावों
में 70 में से 67 सीटें जीतने के बाद दिल्ली को अपनी जागीर समझने लगे थे। केजरीवाल जानते
हैं कि यदि भाजपा दिल्ली में मोदी की आक्रामकता के इस्तेमाल के साथ राष्ट्रवादी भावनाओं के
ज्वार पर सवार होने का फैसला कर ले (जैसा वह फिलहाल महाराष्ट्र व हरियाणा के
विधानसभा चुनावों में कर रही है) तो वह बुरी तरह परास्त होंगे और उनके राजनीतिक
कॅरियर पर भी परदा गिर सकता है। लिहाजा मुकाबले में बने रहने के लिए उनकी यही
कोशिश है कि दिल्ली-केंद्रित विमर्श गढ़ा जाए और अपनी सरकार के कामकाज के आधार
पर बात की जाए। निश्चित ही उनके पास शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम के
अलावा गरीबों को मुफ्त बिजली व पानी जैसी नागरिक सुविधाएं देने जैसी कुछ उपलब्धियां हैं भी,
जिन्हें लेकर वे जनता के बीच जा सकते हैं ।
यहां पर एक दिलचस्प बात यह भी है कि जहां भाजपा फिलहाल महाराष्ट्र और हरियाणा के
विधानसभा चुनावों में पूरी तरह डूबी है और साथ ही साथ पश्चिम बंगाल के चुनावों के लिए भी
रणनीतियां बनाने में जुटी है, जबकि वे अप्रैल 2011 से पहले नहीं होने वाले, वहीं वह दिल्ली को
लेकर सुस्त है, जहां चुनाव में छह महीने से भी कम वक्त बचा है। अमित शाह ने दिल्ली इकाई के
अपने नेताओं के साथ कुछ बैठकें जरूर की हैं, लेकिन उन बैठकों में उन्होंने उन्हें अपने
मतभेदों को सुलझाने की ताकीद देने के अलावा ज्यादा कुछ नहीं कहा। दिल्ली में भाजपा की
तैयारियों के अभाव ने केजरीवाल को थोड़ी बढ़त दे दी है। देश की यह राजधानी पहले ही
केजरीवाल के होर्डिंग्स और पोस्टर्स से पट चुकी है, जिनमें वह अपनी सरकार की
उपलब्धियों का बखान करते नजर आ रहे है। जनता को बेहतर शासन देने की अपनी छवि को
चमकाने के क्रम में उन्होंने सर्दियों में प्रदूषण नियंत्रण हेतु दिवाली के बाद एक बार फिर
से ऑड-ईवन योजना लागू करने की घोषणा भी कर दी।
साफ है कि केजरीवाल ने अपनी फिलहाल महत्वाकांक्षाओं की लगाम खींच ली है। यह एक
व्यावहारिक कदम है। 2019 के जनादेश ने मोदी को अजेयता का ऐसा आभामंडल प्रदान कर
दिया है, जिसे भेद पाना फिलहाल किसी के लिए भी मुश्किल लगता है। जहां कांग्रेस को अब भी यह तय
करने में मुश्किल हो रही है कि देश के मिजाज को देखते हुए क्या रुख अपनाए, वहीं केजरीवाल
ने अनुच्छेद 370 के मुद्दे पर मोदी सरकार के पक्ष में खड़े होने में तनिक भी देर नहीं लगाई।
केजरीवाल उम्मीद कर रहे हैं कि उनके समर्थन देने से दिल्ली में भाजपा के राष्ट्रवाद की
धार को निस्तेज किया जा सकेगा। बेशक केजरीवाल ने 2019 के आम चुनाव के बाद से अपने
अप्रत्याशित कदमों से भाजपा को रक्षात्मक मुद्रा में ला दिया है। यदि उनकी रणनीति सफल होती
है और दिल्ली के चुनाव में स्थानीय मुद्दे हावी होते हैं, तो मोदी शायद अपनी ऊर्जा 2021 में पश्चिम
बंगाल में होने वाले विधानसभा चुनाव जैसी आगामी बड़ी लड़ाइयों के लिए बचाकर रखना
चाहें। आखिर, दिल्ली अब भी एक पूर्ण राज्य नहीं, जहां के मुख्यमंत्री के पास वास्तविक शक्तियां
नहीं हैं। दो अहम क्षेत्र- जमीन व पुलिस व्यवस्था तो केंद्र सरकार के अधीन ही हैं, जिसकी अगुआई
फिलहाल मोदी ही कर रहे हैं।
ऐसे में केजरीवाल इस बात को लेकर संतुष्ट हो सकते हैं कि उन्होंने दिल्ली की लड़ाई के लिहाज
से खुद को मुकाबले में ला दिया है, अब भले ही नतीजा कुछ भी हो।
(लेखिका राजनीतिक स्तंभकार हैं)