एब जबकि महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभाई चुनाव के लिए वोट पड़ चुके हैं और
उम्मीदवारों की किस्मत ईवीएम मशीनों में बंद हो चुकी है, दो परस्पर जुड़ी हुई सच्चाइयों पर
लगभग सभी की कमोबेश एक जैसी राय होगी। पहली यह कि इन दोनों ही राज्यों में, जहां 2014 के
आम चुनाव में मोदी की जीत के फौरन बाद भी भाजपा ने अपना तब तक का बेहतरीन प्रदर्शन
किया था और सरकार बनाई थी, इस बार भी वही पैटर्न दुहराया जाने वाला है और
भाजपा के ही हाथों में सत्ता रहने के और देवेंद्र फडणवीस तथा खट्टड्ढर के मुख्यमंत्री पद पर
बने रहने के आसार हैं। बेशक, ऐसा होता नजर आने के कारण अनेक हैं। इनमें
शायद सबसे महत्वपूर्ण कारण तो नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा द्वारा राष्ट्रवादी
उन्माद का धुंधाधार तरीके से जगाया और भुनाया जाना ही है, जिसकी चर्चा हम जरा बाद
में करेंगे। इसी सिक्के का दूसरा पहलू कांग्रेस पार्टी का, जिस पर इन दोनों राज्यों में
भाजपा या उसके नेतृत्ववाली कतारबंदी का चुनावी मुकाबला करने का मुख्य दारोमदार
था, मोदी-शाह की भाजपा के उन्मत्त राष्ट्रवाद के इस अभियान के सामने बहुत हद तक निहत्था,
कन्फ्यूज्ड और पंगु नजर आना है। इसी का नतीजा है कि शब्दशरू न सही, व्यावहारिक मानों
में इन विधानसभाई चुुनावों में भाजपा को एक हद तक वाक-ओवर जैसा ही मिलता नजर आ रहा
था और चुनाव के नतीजे को लेकर लोगों की कमोबेश एक जैसी धारणा बनी है। यह दूसरी
बात है कि मीडिया से भिन्न, जमीन पर यह चुनाव अंततरू शायद इतना इकतरफा नहीं निकले,
लेकिन उसके लिए तो हमें नतीजे आने तक इंतजार करना होगा। फिर भी विधानसभाई चुनाव के
इस चक्र के लगभग इकतरफा तरीके से भाजपा या उसके नेतृत्ववाले गठजोड़ के पक्ष में झुक
जाने की स्थिति के पीछे काम कर रहे कुछ अन्य कारकों को भी, कम से कम दर्ज जरूर किया
जाना चाहिए। इनमें पहला बड़ा कारक तो भाजपा और उसकी मातृ संस्था आरएसएस के गिर्द
जुटे संघ परिवार द्वारा हरियाणा और महाराष्ट्र, दोनों में ही अपनी प्रतिगामी
सोशल इंजीनियरिंग का आगे बढ़ाया जाना है। इन दोनों ही राज्यों में संघ-भाजपा की इस
सोशल इंजीनियरिंग की रीढ़ है, इन राज्यों में संख्या में तथा इसके बल पर राजनीतिक रूप
से भी ताकतवर रहीं, गैर-सवर्ण बिचली जातियों के नेतृत्व के खिलाफ, अन्य सभी निचली व बिचली
जातियों को गोलबंद करना। संघ परिवार की यह गोलबंदी, सवर्ण जातियों नेतृत्व में हो रही
है और इसके जरिए, सत्ता को बिचली जातियों के नेतृत्व के हाथों में जाने से बचाया जा रहा
है।
इस प्र्रकार से राजनीतिक सत्ता पर सामाजिक नियंत्रण के पहलू से, मंडल-उत्तर दौर में
आए बिचली जातियों के पक्ष में बदलाव को पलटे जाने को ही दिखाता है और यह इस सामाजिक
इंजीनियरिंग को प्रतिगामी बना देता है। महाराष्ट्र में यह गोलबंदी, राजनीतिक-आर्थिक रूप से
ताकतवर मराठों के नेतृत्व को निशाना बनाकर की गई है और हरियाणा में,
राजनीतिक-आर्थिक रूप से ताकतवर, जाट नेतृत्व को निशाना बनाकर। याद रहे इस
वृहत्तर सामाजिक इंजीनियरिंग के ऊपर से संघ परिवार, सूक्ष्म स्तर पर छोटे जाति-
समुदायों को मैनेज करने पर भी विशेष रूप से ध्यान देता रहा है।
इसके अलावा, विपक्ष की कतारों में से बड़ी संख्या में तथा उपरले स्तर तक, दल-बदल कराए जाने
के अलावा भी हरियाणा में जाट नेतृत्व का प्रतिनिधित्व करने वाली आइएनएलडी का दो-फाड़
होनाय चुनाव से ऐन पहले कांग्रेस के पूर्व-राज्य अध्यक्ष का अपनी पार्टी के खिलाफ बगावत
का झंडा उठानाय राज्य में निश्चित हार नजर आने के बाद भी विपक्ष का अपनी एकता
बढ़ाने के लिए कोई यत्न तक नहीं कर पानाय इस सब के पीछे भी जानकारों के अनुसार संघ
परिवार के राजनीतिक मैनेजमेंट की महत्वपूर्ण भूमिका है। जाहिर है कि महाराष्ट्र
में इस राजनीतिक मैनेजमेंट की सबसे महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति हैकृ पांच साल लगातार और
सार्वजनिक रूप से आपसी झगड़ों में उलझे रहने के बाद, भाजपा का शिव सेना के साथ
अपना गठजोड़ बनाए रखने में कामयाब होना है। इतना ही नहीं, मोदी के दुबारा चुने जाने
की पृष्ठड्ढभूमि में भाजपा, शिव सेना को छोटे भाई की भूमिका स्वीकार करने के लिए
राजी करने में कामयाब रही लगती है, हालांकि भाजपा ने भी उसके साथ गठजोड़ की कीमत
चुकाना मंजूर किया है और 2014 के विधानसभाई चुनाव में अकेले लड़कर हासिल हुई
सीटों के अनुपात में उसने अपेक्षाकृत कम सीटों पर लडऩा मंजूर किया है। शाह-मोदी की
भाजपा, सत्ता के हाथ से फिसलने का रत्तीभर जोखिम नहीं लेती है। इन चुनावों के संबंध में
दूसरी बड़ी सच्चाई का संबंध खुद प्रधानमंत्री के स्तर से भाजपा के चुनाव प्रचार में,
हिंदुत्ववादी उन्माद जगाने के औजार के रूप में, जम्मू-कश्मीर को लेकर ढाई महीने पहले
उठाए गए कड़े कदमों का नंगई से इस्तेमाल किए जाने से है। यह भी उतना ही गौरतलब है कि खुद
प्रधानमंत्री की अगुआई में खुलेआम, उनकी सरकार के कश्मीर एक्शन का इस्तेमाल, मौजूदा
गहराते आर्थिक संकट तथा उसके चलते खड़े हो रहे जनता की रोजी-रोटी के वास्तविक सवालों
को दबाने के लिए किया जा रहा था। वास्तव में जैसे मौजूदा आर्थिक संकट तथा उसके
दुष्प्रभावों की जिम्मेदारी ये बचने के लिए कश्मीर कार्रवाई की आड़ में छुपने की अपनी
कोशिश की बदहवासी को ही उजागर करते हुए, प्रधानमंत्री ने महाराष्ट्र की एक सभा में तो यह
दावा तक पेश कर दिया कि विपक्ष का, भाजपा के चुनाव में बार-बार कश्मीर
कार्रवाई की दुहाई देेने को, आर्थिक संकट की ओर से ध्यान हटाने की कोशिश
बताना, विपक्ष के लिए शर्म से डूब मरने की बात है। प्रधानमंत्री ने सवाल उठाया कि विपक्ष
उनसे, कश्मीर को छोड़कर, अर्थव्यवस्था की हालत पर सवालों के जवाब देने की मांग कैसे कर
सकता है और उन्होंने जनसभा के मंच से गर्जना की,डूब मरो! जैसे कश्मीर कार्रवाई की
दुहाई भी काफी नहीं हो, खासतौर पर मुंबई में अपनी सभा में प्रधानमंत्री 1993 के बम
विस्फोटों की याद दिलाना नहीं भूले, हालांकि उससे ठीक पहले, बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद,
1992 के आखिर में तथा 1993 के शुरू में हुए मुस्लिम विरोधी दंगों की, उन्हें जरा सी भी याद
नहीं आई। इसी प्रकार, हरियाणा में अपनी चुनाव सभाओं में उन्होंने कश्मीर
कार्रवाई के साथ, पाकिस्तान चले जा रहे हरियाणा के हिस्से के पानी का मुद्दा
उछाला, पर इसका जिक्र तक करना जरूरी नहीं समझा कि उन्हें इसकी याद सिर्फ चुनाव के लिए
आई थी, या उनकी डबल इंजन की सरकार ने पिछले पांच साल में इस मामले में कुछ किया भी
था? और जैसे इतना भर काफी नहीं हो, विधानसभाई चुनाव के इस चक्र में चुनाव प्रचार खत्म
होने के बाद, शब्दश: मतदान की पूर्व-संध्या में, भारतीय सेना ने सीमा पार बड़ी
कार्रवाई की, जिसमें खुद सेना प्रमुख के दावे के अनुसार, पाकिस्तान के छरू से दस तक सैनिक
मारे गए और आतंकवादियों के पूरे चार लॉचिंग पैड नष्ट कर दिए गए। वैसे, पाकिस्तान की
जवाबी कार्रवाई में भारत के तीन जवान मारे जाने की भी खबर है। इस पर बरबस राहत
इंदौरी की दो व्यंग्यात्मक पंक्तियां याद आ जाती हैंरू श्सरहदों पर तनाव है क्या, पता तो करो
चुनाव है क्या? बेशक, पुलवामा और बालाकोट के नाम पर बहुसंख्यकवादी-राष्ट्रवादी
उन्माद जगाकर, इसी साल हुए लोकसभा चुनाव में पिछली बार से ज्यादा बहुमत हासिल करने
वाली भाजपा ने अगर विधानसभाई चुनाव के इस चक्र में, सबसे बढ़कर कश्मीर को ठीक करने
के नाम पर, उसी तरह के उन्माद को जगाने की कोशिश की है, तो इसमें अचरज की कोई बात
नहीं है। अगर मोदी-1 की सरकार से जनता के बढ़ते मोहभंग को रोकने तथा पलटने के लिए,
संसदीय चुनाव में बहुसंख्यकवादी राष्ट्रवादी उन्माद जगाना जरूरी हो गया था, तो लोकसभा चुनाव
के धक्के के बाद विपक्ष की सारी लडख़ड़ाहट के बावजूद, फडणवीस और खट्टड्ढर के शासनों से
भी जनता किसी भी तरह से खुश नहीं थी। इसके ऊपर से, देश के पैमाने पर बढ़ते आर्थिक संकट
की मार ने, भाजपा की डबल इंजन सरकारों के श्सब चंगा सी के प्रचार को जनता की नजरों
में और संदिग्ध बना दिया था। बढ़ते पैमाने पर रोजगार छिनने तथा गहरे से गहरे होते कृषि
संकट से, भाजपा की राज्य सरकारों के रिकार्ड के साथ ही, खुद मोदी सरकार की नीतियों
पर भी सवाल उठने शुरू हो गए थे। ठीक इन्हीं सवालों को दबाने के लिए, बालाकोट
कार्रवाई की तरह, जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने तथा उसे दो केंद्र-शासित क्षेत्रों
में बांटने को और यह सब पूरे कश्मीर को जेल में तब्दील कर किए जाने को, साहसपूर्ण
पाकिस्तान-विरोधी कदम की तरह प्रचारित किया जा रहा था। इस सब का बहुसंख्यकवादी स्वर
स्वतरू स्पष्टड्ढ है। बहुसंख्यकवाद के अलावा किसी और तर्क से इस विडंबना को समझा ही नहीं जा
सकता है कि सत्ताधारी पार्टी देश के एक राज्य में जनतंत्र ध्वस्त करने को, देश के दूसरे
हिस्सों में जनतांत्रिक चुनाव में अपने चुने जाने की सबसे बड़ी दलील के तौर पर पेश कर
रही थी। और जहां तक जम्मू-कश्मीर में जनतंत्र के ध्वंस का सवाल है, वह कितनी नंगई से तथा कितने
मुकम्मल तरीके से हो रहा है, इसे महाराष्ट्र तथा हरियाणा के चुनाव प्रचार के दौरान
ही सामने आई दो सच्चाइयों से समझा जा सकता है। राज्य में हालात सामान्य होते जा रहे होने
के दिखावे के हिस्से के तौर पर, खासतौर पर कश्मीर में जेलों में डाले गए पांच हजार से
ज्यादा राजनीतिक नेताओं व प्रमुख कार्यकर्ताओं में से एक-एक, दो-दो की रिहाई की जो प्रक्रिया
शुरू की गई है, उसमें रिहाई के लिए संबंधित व्यक्तियों से या उनके परिजनों से, यहां तक
कि कुछ मामलों में तो आस-पास के लोगों तक से बांड भरवाए जा रहे हैं, जो कश्मीर में उस
शर्मनाक व्यवस्था के बड़े पैमाने पर थोपे जाने को दिखाता है, जिसके किस्से हमने ब्रिटिश
राज के जमाने के प्रसंगों मे ही सुने थे। बांड के साथ जमा कराई जाने वाली जमानत की
राशि तथा बांड की राशि, बांड की शर्तें टूटने पर जब्त कर ली जाएंगी। इससे भी
भयानक यह कि सरकार ने बांड को जो नया प्रारूप तैयार कराया है, जिस पर दस्तखत
करने के बाद इन राजनीतिक बंदियों को छोड़ा जा रहा है, उसमें सरकार की कश्मीर से
संबंधित हाल की कार्रवाइयों की आलोचना न करने, उनके खिलाफ किसी जलसे-जुलूस में
शामिल न होने यानी जनतांत्रिक-राजनीतिक अधिकारों व स्वतंत्रताओं का प्रयोग ही नहीं
करने का, वचन भरवाया जा रहा है। दूसरी खबर, जम्मू-कश्मीर के भाजपा के इंचार्ज,
राम माधव के कश्मीर से संबंधित मोदी सरकार के ताजा कदमों के बाद घाटी में आयोजित
पहले राजनीतिक कार्यक्रम में, उनके इस ऐलान की है कि कश्मीर में तीन सौ नेताओं को अभी
तीन-चार महीने जेल में ही रहना होगा। क्यों? क्योंकि भाजपा नेता के अनुसार वे जेल से
ही लोगों को उकसा रहे हैं और शांति कायम करने के प्रयासों के लिए उनका जेल में
रखा जाना जरूरी है? प्रधानमंत्री मोदी ने भी महाराष्ट्र में चुनाव प्रचार के दौरान
कश्मीर में जनतंत्र की बहाली के लिए चार महीने मांगे थे। इसके बावजूद, एक्जिट पोल के
नतीजे अगर सच साबित होते हैं, तो यह इसी का इशारा होगा कि बहुसंख्यकवादी-राष्ट्रवाद की
दुहाई की काठ की हांडी, अभी बार-बार चढ़ेगी। हां! 2014 के विधानसभाई चुनाव के
मुकाबले कुल मतदान में हरियाणा में दस फीसद से भी ज्यादा की और महाराष्ट्र में भी डेढ़
फीसद से ज्यादा की गिरावट, इसका इशारा जरूर करती है कि खट्टड्ढर और फडणवीस का
मुख्यमंत्री पद पर एक और कार्यकाल पाना, जनता की नजर से विकल्पहीनता की मजबूरी का
सौदा ही ज्यादा है, सारे बहुसंख्यकवादी राष्ट्रवादी उन्माद के बावजूद मोदी राज के अनुमोदन
का कम।