जैसा भी हो, सद्भाव के लिहाज से उपयोगी फैसला

सत्तर वर्षों से चल रहे अयोध्या विवाद का अन्ततरू सर्वोच्च न्यायालय के पांच न्यायाधीशों की
संविधान पीठ द्वारा एक राय से फैसला कर दिया गया। इस फैसले में पीठ ने तीनों
दावेदारों को विवादित भूमि के स्वामित्व से खारिज कर दिया। उसने माना कि यह स्थल हिन्दुओं
के अधिकार में था और वे इस स्थल पर पूजा करते थे, लेकिन साथ ही यह भी स्वीकार किया कि


मुसलमान भी शुक्रवार के दिन नमाज पढ़ा करते थे। अलबत्ता, वे स्वामित्व का प्रमाण नहीं दे
पाए। पीठ ने यह कहकर रामलला विराजमान को विवादित भूमि का मालिकाना हक दे दिया कि
देवता भी विधिक या न्यायिक व्यक्ति हो सकता है, जबकि उसने निर्मोही अखाड़े और शिया वक्फ
बोर्ड के दावे सिरे से खारिज कर दिये। सेन्ट्रल सुन्नी वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष नेे अन्तिम दौर
में सद्भाव की स्थापना के लिए विवादित भूमि हिन्दुओं को देने और मुसलमानों को मस्जिद के लिए अलग
से जमीन देने सम्बन्धी जो पत्र मध्यस्थता पैनल की मार्फत दिया था, पीठ ने उस पर कोई टीका नहीं
की, लेकिन सरकार को निर्देश दिया कि वह सुन्नी वक्फ बोर्ड को मस्जिद के लिए पांच एकड़ जमीन
अयोध्या के प्रमुख स्थल पर दे। सेन्ट्रल सुन्नी वक्फ बोर्ड फैसले से प्रसन्न नहीं है, फिर भी उसने
न्यायालय के सम्मान की घोषणा की है।पहली नजर में देखें तो लगता है कि पीठ ने इस फैसले में
सबसे निर्णायक आधार पुरातत्व विभाग की उस खुदाई को बनाया, जिसमें उस स्थल पर मिले
साक्ष्यों के आधार पर पहले वहां मंदिर होने के प्रमाण मिलने की बात कही गई थी। लेकिन वह
कब, क्या और कैसा था, इस बाबत निश्चयात्मक ढंग से कुछ निर्धारित नहीं किया था। अब मामले में
आगे की भूमिका का निर्वाह केन्द्र सरकार को करना है। न्यायालय की पीठ ने उस पर
जिम्मेदारी डाली है कि वह तीन माह के भीतर मन्दिर निर्माण के लिए ट्रस्ट बनाये और
सेन्ट्रल सुन्नी वक्फ बोर्ड को देने के लिए मस्जिद की जमीन की व्यवस्था करे। विवादित स्थल के
बाहर की जिस अन्य भूमि का अधिग्रहण किया गया है, वह फिलहाल रिसीवर के पास ही बनी
रहेगी क्योंकि न तो उस पर कोई विवाद था और न वह निर्णय में ही शामिल हैं।
इस फैसले से स्वाभाविक ही सबसे अधिक प्रसन्नता हिन्दूवादियों और रामलला विराजमान को
हुई है, जो भविष्य में बनने वाले मंदिर के मुख्य निर्णायक और कार्यवाहक होंगे।
राजनीतिक रूप से इसका श्रेय भी केन्द्र सरकार को ही जायेगा क्योंकि मंदिर बनाने का
आन्दोलन इस सरकार की पार्टी का ही था। जहां तक मुस्लिम पक्ष की बात है, वह तो 1986 में ही इस
स्थल पर मन्दिर बनाने के लिए इसे हिन्दुओं को दे देने का पक्षधर था। उसके नेताओं का, जिनमें
मुख्य रूप से सैयद शहाबुद्दीन, मो. काकया, ओवैसी और शाही इमाम शामिल थे, का मानना था
कि विश्व हिन्दू परिषद और भारतीय जनता पार्टी इस विवाद के बहाने जो आन्दोलन चला रही हैं,
वास्तव में वह मन्दिर-मस्जिद के नहीं, बल्कि भारत के मुस्लिमों को समाज की मुख्य धारा से विरत
करने के लिए है। उनके अनुसार ऐसे में देश के मुस्लिमों के पास कोई विकल्प नहीं है,
क्योंकि उन्हें देश में रहना है, तो अलग होकर नहीं, बल्कि साथ ही रहना होगा। जहां तक
हिन्दूवादियों का सम्बन्ध है, जिस मंदिर निर्माण के लिए वे आन्दोलनरत थे, अब वह उन्हें मिलने जा
रहा है क्योंकि वह नरेन्द्र मोदी सरकार, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने तीन महीने के भीतर
राममन्दिर हेतु ट्रस्ट बनाने और उसका निर्माण करने का अधिकार दिया है, उनकी
सहयोगी है। यों, यह काम सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बनाये गये मध्यस्थता प्रयासों द्वारा भी अन्त
में संभव लगने लगा था। लेकिन तब हिन्दूवादियों का एक वर्ग इस बात के लिए तैयार नहीं था कि हम
श्उनकेश् द्वारा दी गई जमीन को स्वीकार करके राममन्दिर निर्माण की उपलब्धि के
श्रेय में बंटवारा करें। इसलिए उनकी मांग थी कि मस्जिद अयोध्या में तो क्या उसकी 84 कोसी
परिक्रमा या शास्त्रीय सीमा से भी बाहर होनी चाहिए। इस लिहाज से देखें तो मुसलमानों को
अयोध्या में किसी प्रमुख स्थान पर मस्जिद के लिए पांच एकड़ जमीन दिये जाने का न्यायालय का
निर्देश उनके अहं और मान्यताओं पर चोट जैसा है। लेकिन आम आदमी की बात करें तो वह
यह सोचकर प्रसन्न है कि चलो, अब अयोध्या विवाद समाप्त हो गया, जिससे आगे शांतिपूर्वक रहने
और अपना जीवन सुचारू रूप से चलाने तथा इस क्षेत्र को सरकारी-गैरसरकारी सभी
दृष्टियों से विकसित करने का अवसर मिलेगा। गौरतलब है कि 1949 से लेकर 1983 तक यह विवाद
आम लोगों को किसी भी तरीके से प्रभावित नहीं कर रहा था। इस विवाद के पक्षकार मुकदमे


के नामपर मात्र औपचारिकताओं का निर्वाह भर कर रहे थे। 1983 में विश्व हिन्दू परिषद के
प्रवेश के बाद ही इस विवाद में तेजी और तुर्शी आई। उसी के बाद राममन्दिर के लिए
आन्दोलन और अभियान चलने और बढऩे लगे, जो उसके पक्ष में वातावरण बनाने में प्रमुख
रूप से सहायक सिद्ध हुए। यहां यह भी गौरतलब है कि वर्तमान संविधान के तहत कानून की दृष्टि से
आस्था और विश्वास के नाम पर कोई अधिकार नहीं मिल सकता। इस मामले में भी उसे यह कहकर
स्वीकार किया गया है कि यह रामलला की जमीन है, जो न्यायिक व्यक्ति हैं। जहां तक रामलला
विराजमान के अस्तित्व का प्रश्न है, वह विश्व हिन्दू परिषद के नेता देवकीनन्दन अग्रवाल के एक शपथ
पत्र पर आधारित है, जो 1989 में दायर हुआ था। इसमें उन्होंने दावा किया था कि हमने राम
चबूतरे से रामलला की मूर्ति उठाकर विवादित ढांचे में विधिवत स्थापित कर उसकी प्राण-
प्रतिष्ठा की। इसलिए रामलला विधिक पुरुष हैं और चूंकि यह मामला उन्हीं के अस्तित्व से बना है,
इसलिए उन्हें विधिक व्यक्ति मानना चाहिए। तब जिला जज फैजाबाद ने उनके प्रार्थनापत्र को
स्वीकार करके रामलला विराजमान को मामले में पक्षकार बना दिया था, जिसका किसी
ने विरोध नहीं किया था। भले ही उनका शपथपत्र भये प्रगट कृपाला की मान्यता को
अस्वीकार करता है। ज्ञातव्य है कि लखनऊ उच्च न्यायालय के फैसले में भी जिन तीन व्यक्तियों
को स्वामित्व के अधिकार दिये गये थे, उनमें एक रामलला विराजमान थे। इस फैसले से पहले न
सिर्फ अयोध्या बल्कि प्रदेश भर में बड़े पैमाने पर सुरक्षा बलों की व्यवस्था और तैनाती
की गई थी। इस अंदेशे के कारण कि निर्णय को लेकर कहीं विद्रोह और अशांति न पैदा हो।
इसके मद्देनजर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तक को सौहाद्र्र की अपील करनी पड़ी। उन्होंने कहा कि
एकता और सद्भाव की रक्षा लोगों का प्रमुख दायित्व है। यह बात दूसरी है कि उनके ही कुछ लोगों
को सद्भाव शब्द तक से चिढ़ है। वे इससे धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा मिलना बताते और चाहते हैं कि
देश की पहचान धर्मनिरपेक्षता नहीं बल्कि हिन्दुत्व से हो। लेकिन आस्था और विश्वास कोई भी हो,
वे अनन्तकालिक नहीं हो सकते। युग परिवर्तन को स्वीकार करना ही पड़ता है जो बदलाव का
प्रतीक माना जाता है। तिस पर बदलाव भी शाश्वत नहीं ही होते क्योंकि परिवर्तनशीलता ही उनका
गुण है। फिर भी कुल मिलाकर यह फैसला सद्भाव व सौहाद्र्र की दृष्टि से, जिसकी अयोध्या में समृद्ध
परंपरा रही है, सहयोगी ही है, विरोधी नहीं।