गांधी तो मिट्टी का दीया हैं, उन्हें चाईनीज झालर न बनाएं!

फिल्मी कलाकारों-निर्देशकों को बुलाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इच्छा जाहिर की कि
कलाकार, निर्देशक गांधी पर फिल्में बनाएं। अगर वे कला के बाबत जानते तो यह भी समझते
कि ऐसा कहने की जरूरत नहीं रहती क्योंकि गांधी पर कुछ लिखना, कहना, उनमें श्रद्धा रखना
अथवा उन पर विश्वास करना स्वस्फूर्त ही हो सकता है। बगैर किसी के कहे वी. शांताराम ने
गांधी दर्शन पर आधारित महान फिल्म दो आँखें बारह हाथ बनाई, रिचर्ड एटनबरो ने गांधी
बनाई, राजू हिरानी ने लगे रहो मुन्ना भाई बनाई। यद्यपि बीच में उनके समकालीन
नेताओं के जीवन पर आधारित ऐसी भी फिल्मों का दौर आया जिनमें गांधी को गिराने की
भरपूर कोशिशें की गईं। विशेषकर सरदार पटेल, सुभाषचंद्र बोस, भगत सिंह आदि पर
बनी फिल्में। कुछ मराठी नाटकों में भी गांधी का चरित्र हनन किया गया। श्गांधी वर्सेस
गांधी, मी नाथूराम गोडसे बोलतोय आदि नाटक आए तो हे राम नामक फिल्म भी वनी। गांधी की
हत्या को गांधी वध या गांधी संहार कहना भी सायास लोकप्रिय किया गया। अब तो स्कूली
परीक्षाओं में ये सवाल भी पूछे जाने लगे हैं कि गांधी ने आत्महत्या क्यों की? गांधी के प्रति
असम्मान की नई लहर मोदी युग की देन है। उनकी पूरी पार्टी पार्टी, अनुषांगिक संगठन गांधी
को लगातार अपमानित करते रहे हैं। गांधी को सुविधा के मुताबिक कभी मुस्लिमपरस्त, कभी
पाकिस्तान के निर्माता, देश के विभाजक तो कभी हिंदूविरोधी बताकर लोगों की नजरों से
उन्हें गिराने का खेल जारी है। देश के कथित विनाश से लेकर हिंदुओं को कायर बनाने
के लिए उन्हें जिम्मेदार बताया जाता है। यह पहले भी होता रहा है पर मोदी काल में यह
प्रवृत्ति लगातार परवान चढ़ी है और श्फादर ऑफ दी नेशन यानी मोदी जी ने राष्ट्रपिता
के होते असम्मान को लेकर एक शब्द भी नहीं कहा। उनके समर्थक सच्चे-झूठे किस्से कहकर गांधी
को गालियां देते फिरते हैं। नाथूराम गोडसे की पूजा की जाती है, सावरकर को भारतरत्न
देने की मांग होती है। मोदी जी जितना ज्यादा विदेश घूम रहे हैं, शायद वे उतना ही समझ रहे
होंगे कि विदेशों में भारत की पहचान गांधी के ही कारण है और भविष्य में वे प्रधानमंत्री
पद पर रहने के बावजूद नहीं पूछे जाएंगे, इसलिए वे बार-बार स्वयं को गांधी से जोड़कर
अपनी फेस वेल्यू बढ़ाने की कोशिश करते रहते हैं। दूसरी तरफ, उनके समर्थक उनकी
कोशिशों पर पानी फेर देते हैं- कोई बापू के चित्र पर गोलियां दागकर गांधी
हत्याकांड का सीन रिक्रिएट करती हैं तो कोई जी कहकर गोडसे को अपना आदर देता है।
गांधी दरअसल मिट्टी का दीया हैं जिनका संबंध देश की माटी से है। उनके समग्र दर्शन की जड़ें
उसी माटी से निकला है। जैसे गांव में निर्मित, गरीब कुम्हारों के मेहनतकश हाथों से बना
दीया। स्वावलंबन, मानवीय गरिमा, पर्यावरण संवर्धन व रोजगार का प्रतीक दीपक। संस्कृति
के लिहाज से तो वह हमारी पांच हजारा वर्ष पुरानी परंपरा का हिस्सा है जबकि चीनी


झालर विदेशी पूंजी से बनी है। आयातित। इसके फायदे का कुछ ही अंश गांव में रहेगा,
भारत में रहेगा, अधिकांश बाहर चला जाएगा। गांधी जी पर मोदी फिल्में तो बनवाना चाहते
हैं पर क्या वे ऐसा देश बना रहे हैं जो गांधी की अवधारणाओं के अनुकूल हो? उनके
नेतृत्व में बनते भारत की नई पहचानें हैं- हिंसा, सांप्रदायिक घृणा, नागरिक स्वतंत्रता का
हनन, लुप्त होता सर्व धर्म समभाव, जर्जर व परावलंबी गांव, कृत्रिमता, सर्वोदय की जगह कुछ का
उद्धार, सत्ता लोलुपता, शक्तियों का केंद्रीकरण, पूंजीवाद, हथियारों के प्रति मोह और न
जाने क्या-क्या! गांधी माटी मेड दीपक है जो अंधेरों से लगातार लड़ता है, तेल चुकने व
बाती जलते तक, आखिर तक। वे आंखों को चुंधियाती कृत्रिम रोशनी वाले चीनी झालर नहीं हैं
जो समाज की विद्रूपताओं को छिपाते हों। जीवन प्रणाली व जीवन दर्शन दोनों ही मामलों में मोदी
और गांधी दो विपरीत ध्रुवों पर खड़े हैं। गांधीजी का ताल्लुक बेहद सम्पन्न परिवार से था।
राजनीति या बैरिस्टरी तो छोडिय़े, अपने बाप-दादों की संचित संपदा के बल पर आजीवन एक
धनाढ्य जीवन जी सकते थे लेकिन उन्होंने बगैर शोर-शराबे व आत्म प्रचार के गरीबी को
अंगीकृत किया और जिन लोगों का जीवन जिया वैसों के जीवन में प्रकाश लाने के लिए सब कुछ
दांव पर लगाया। अपने खुद के ही नहीं, साथ चलने वाले सभी लोगों को जीने का ढंग सिखलाया व
आम भारतीयों के जीवन को आलोकित करने का तरीका भी बताया। देश की आजादी के साथ
लोगों को स्वावलंबी बनाने के तरीकों से लेकर उनके सामाजिक जीवन में शांति, खुशहाली,
समानता, बंधुत्व, सहअस्तित्व आदि के गुर बताए। संसार में रहते हुए धार्मिकता, आध्यात्म, नैतिक
उत्थान व रूहानी ऊंचाइयों तक पहुंचने के नायाब फार्मूले गांधी दर्शन में निहीत हैं। जनता को
उन्होंने सवाल पूछना और सार्वजनिक जीवन जीने वालों को जवाबदेह बनाया। इसके विपरीत
मोदी कथित गरीबी से आए और आज देश की पूंजीवादी लॉबी के प्रखर नुमाईंदे बन गए हैं। वे
पूंजीवाद को समर्थित हैं, जिसे पोषित कर देश की गरीबी मिटाने के किसी अपरिभाषित-अबूझ
मॉडल पर काम कर रहे हैं, जिस पर चलते हुए भारत विदेशी पूंजी व ताकतों के आगे
लगातार बिछ रहा है। वे दुनिया में घूम-घूमकर हथियार इकऋे कर रहे हैं तथा
हमलावर देशों के साथ उसका प्यार बढ़ रहा है। लोगों की स्वतंत्रता छीनकर, आर्थिक रूप
से कमजोर कर राज्य मजबूत हो रहा है। प्रेस, विपक्ष व संसद को पर्याप्त व सही जानकारी नहीं
मिलती।सरकार की पारदर्शिता को तो उन्होंने खत्म ही कर दिया है जो गांधी जी की
विचारधारा से एकदम विपरीत है। उन्होंने इसके लिए कार्यकर्ताओं, पार्टी, नौकरशाहों,
संसद, तमाम संस्थाओं के साथ पूरे नागरिकों की ऐसी जमात खड़ी कर दी है, जो उनके कार्यक्रमों
पर इस कदर भरोसा करते हैं कि दुष्परिणामों के सामने आने के बाद भी सोचते हैं कि यह
सब अंततरू देश व नागरिकों के लाभ में ही है। उनकी बातों में तर्क, विवेक, ज्ञान का
कल्याणकारी प्रकाश नहीं है। वे चीजों को चाईनीज बल्बों की फेंकी जलती-बुझती
मायावी रोशनी की तरह आपको दिखाते हैं। रोशनी कुछ सेकंड की होती है। तत्काल अंधेरा
कर एक फ्घ्यूजन की भांति वे आपकी आंखों को चुंधियाकर सत्य को छिपा देते हैं। यह झिलमिल
रोशनी दिखती खूबसूरत है सो लोग उसे ही अच्छे दिन मान रहे हैं। वे भूलते हैं कि इन चीनी
लडिय़ों का जीवन एकाध-दो साल का होता है। मिट्टी के दीप को आप सहेजकर रख लें तो वर्षों काम
आएगा। गांधी वैसे ही मिट्टी के दीये हैं।
गांधी जी का उठना-बैठना, रहन-सहन उन लोगों के साथ था, जिनके लिए वे देश को आजाद
कराना चाहते थे। वे आपको उन्हीं के बीच नैसर्गिक व सहज दीखलाई देते हैं। मोदी आपको
हमेशा मजबूत देशों के राष्ट्राध्यक्षों, उद्योगपतियों, राजनेताओं, फिल्मी कलाकारों, समृद्ध
धर्मगुरुओं, संपन्न अप्रवासी भारतीयों, नेशनल पार्कों में, सेना अधिकारियों यानी रौब-
दाब वालों व रसूखदारों के साथ ही माचो मैन के रूप में तो दिखेंगे पर कभी भी गरीबों,


किसानों, मजदूरों, बीमारों या हिंसा में मारे गये लोगों के परिजनों के साथ नजर नहीं
आएंगे। वे जम्मू-कश्मीर में सैनिकों के साथ फोटो खिंचाएंगे पर वहीं कष्ट उठाते कश्मीरियों
का हाल-चाल जानने नहीं जाते। गांधी एहसास दिलाते थे कि वे मिट्टी के दीपक की तरह हैं जो जमीन
से बने हैं, जबकि मोदी आपको यही महसूस कराएंगे मानों वे विशेष सामग्री से बने किसी दूसरी
दुनिया से आये प्राणी हैं, जिनके पास विशेष आभा है, दिव्य प्रतिभा है, अलौकिक शक्तियां
हैं। उनमें मायाजाल बुनने वाली चकाचौंध है, जो बिजली की जगमग लडिय़ों में होती है।
कोई पूछ सकता है कि वे इतने शक्तिशाली व विशाल जनसमर्थन प्राप्त नेता हैं तो उन्हें गांधी के
प्रति प्रेम जताने या उन जैसा बनने-दिखने की क्या जरूरत है? उनके समर्थक तो उन्हें किसी भी
रूप में स्वीकार कर ही लेंगे। दरअसल, मोदी का जीवन व कार्य प्रणाली एक खोखले दर्शन व
शगूफेवाली पद्धति पर टिकी है, जिसका फूटना तय है। इसे वे भी जानते होंगे। दूसरे, गांधी
ऐसे शाश्वत प्रकाश स्तंभ हैं, जो समर्थकों को ही नहीं विरोधी विचारधारा के जहाजों को भी
उनके अपने किनारों तक पहुंचने के लिए मार्ग दीखाते हैं। इसलिए वे राजनीति में हमेशा
प्रासंगिक बने हुए हैं। वे चीनी माल की तरह यूज एंड थ्रो नहीं हैं। गांधी हमारी अंतर्चेतना से
आलोकित दीप है, मोदी उधार की तकनीक व आयातित पैसों से निर्मित चीनी झालर हैं जिसका
प्रकाश छद्म है, अल्पकालीन है, छलावेदार है। सत्य तो यह है कि मोदी फिल्मवालों से गांधी पर
फिल्में बनाने की अपील कर अपने शासन की विसंगतियां, विद्रूपताएं छिपाना चाहते हैं। वे
गांधी से बार-बार जुड़कर अपनी प्रासंगिकता को साबित करना चाहते हैं। गांधी मिट्टी का
दीया हैं, जो चाईनीज झालर नहीं बनाए जा सकते!