आरएसएस के चिंतक और नेता लगातार यह कहते आए हैं कि भारत एक हिन्दू राष्ट्र है। जाहिर
है कि इस पर धार्मिक अल्पसंख्यकों, विशेषकर सिक्खों और मुसलमानों, के अतिरिक्त भारतीय
संविधान में आस्था रखने वालों को भी गंभीर आपत्ति है। इस साल दशहरे पर संघ प्रमुख मोहन
भागवत ने अपने एक घंटे के भाषण में इसी बात को दोहराया। इसके बाद अनेक सिक्ख संगठनों
और बुद्धिजीवियों ने इसका विरोध किया और कई स्थानों पर इसके विरोध में प्रदर्शनों की
घोषणा भी की गई। पंजाबी ट्रिब्यून और नवां जमाना जैसे कई प्रमुख पंजाबी
समाचारपत्रों ने इसके खिलाफ संपादकीय लिखे। शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी
(एसजीपीसी) व शिरोमणि अकाली दल, जो एनडीए का हिस्सा है, ने भी भागवत के वक्तव्य पर कड़ी
प्रतिक्रिया व्यक्त की। अकाल तख्त के कार्यकारी जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह ने कहा कि
उनकी यह मान्यता है कि आरएसएस की इस तरह की बयानबाजी से देश विभाजित होगा। संघ के
नेताओं द्वारा जिस तरह के वक्तव्य दिए जा रहे हैं, वे राष्ट्रहित में नहीं हैं।श् उन्होंने
अमृतसर में पत्रकारों से कहा। पंजाब लोक मोर्चा के मुखिया अमोलक सिंह ने कड़े शब्दों में
भागवत के इस दावे का खंडन करते हुए कहा कि इस तरह के वक्तव्य एक बड़े षडय़ंत्र का हिस्सा और
खतरे की घंटी हैं। भागवत के वक्तव्य पर जिस तरह की कड़ी प्रतिक्रिया सिक्ख संगठनों ने दी है
वह अकारण नहीं है। ये संगठन सिक्खों को हिन्दू धर्म का हिस्सा बताए जाने के खिलाफ हैं। इसके
पहले भी हिन्दू राष्ट्रवादी संगठनों द्वारा दिए गए इस तरह के वक्तव्यों का विरोध और उनकी
निंदा सिक्ख संगठन करते रहे हैं। सन् 2000 में तत्कालीन संघ प्रमुख के. सुदर्शन ने दावा
किया था कि सिक्ख धर्म, दरअसल, हिन्दू धर्म का एक पंथ है और खालसा का गठन हिन्दुओं की मुसलमानों
से रक्षा करने के लिए किया गया था। आरएसएस ने सिक्खों को हिन्दू धर्म के झंडे तले लाने
के लिए राष्ट्रीय सिक्ख संगत नामक एक संगठन का गठन किया है। सिक्ख धर्म के संस्थापक संत
गुरुनानक थे। यह धर्म 16वीं सदी में अस्तित्व में आया। गुरुनानक देव ने ब्राह्मणवाद का कड़ा
विरोध किया और उनके आध्यात्मिक उत्तराधिकारी भी ब्राह्मणवाद के खिलाफ थे। सिक्ख
धर्म के सिद्धांत, भक्ति और सूफी संतों की शिक्षाओं पर आधारित हैं। ये संत समतावादी मूल्यों में
आस्था रखते थे और ब्राह्मणवादी असमानताओं के विरोधी थे। अन्यों के अतिरिक्त, संत कबीर
और बाबा फरीद, गुरुनानक के प्रेरणास्रोत थे। सिक्ख धर्म के मूल सिद्धांत, उन अनेक
वैचारिक आंदोलनों पर आधारित थे जो मानवतावाद और समानता की बात करते थे।
गुरुनानक ने हिन्दू धर्म और इस्लाम दोनों के कट्टर अनुयायियों की निंदा की। उनका जोर,
जीवंत अंतरसामुदायिक रिश्तों पर था। वे इस्लाम और हिन्दू धर्म, दोनों के सबालटर्न
संस्करणों के पैरोकार थे। उनकी शिक्षाएं दोनों धर्मों के मूल्यों का संश्लेषण थीं। जहां
उन्होंने हिन्दू धर्म से पुनर्जन्म और कर्म का सिद्धांत लिया वहीं उन्होंने इस्लाम के एकेश्वरवाद
और सामूहिक रूप से प्रार्थना करने की प्रथा को अपनाया। सिक्ख गुरुओं ने जातिप्रथा,
यज्ञोपवीत और गाय को पूज्य मानने का विरोध किया। इस धर्म की एक अलग पहचान है, जो गुरुग्रंथ
साहब की शिक्षाओं पर आधारित तो है ही वरन् जिसमें अंतरसामुदायिक रिश्तों के लिए भी
पर्याप्त जगह है। आरएसएस अपने हिन्दू राष्ट्रवादी एजेंडे के तहत, सिक्ख धर्म को हिन्दू धर्म का पंथ
निरूपित कर रहा है। संघ के सावरकर ने हिन्दू को ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित
किया था, जिसकी पितृभूमि और पुण्यभूमि दोनों सिन्धु नदी से लेकर समुद्र तक के विशाल भूभाग
में हों। इस परिभाषा से बड़ी चतुराई से यह दर्शाने का प्रयास किया गया कि मुसलमान
और ईसाई इस देश के नहीं हैं। इससे भी आगे बढ़कर, इस्लाम और ईसाई जैसे प्राचीन
धर्मों को विदेशी बताया गया। उद्देश्य यह था कि हिन्दू राष्ट्र के निर्माण के लिए सभी गैर-
मुसलमानों और गैर-ईसाईयों को एक मंच पर लाया जाए। समय के साथ राजनैतिक
मजबूरियों के चलते यह परिभाषा बदलती रही। अब तो मुसलमानों और ईसाईयों को भी हिन्दू
बताया जा रहा है। यह एक कुटिल चाल है। पहले इन दोनों धर्मों के लोगों को हिन्दू बता दो और
फिर उन पर गाय, गीता, गंगा और भगवान राम जैसे हिन्दू प्रतीक लाद दो। यह धर्म के क्षेत्र में
राजनैतिक हस्तक्षेप है। सन् 1990 में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नियुक्त हुए मुरली मनोहर
जोशी का कहना था कि मुसलमान मोहम्मदिया हिन्दू हैं और ईसाई क्रिस्टी हिन्दू। सभी धर्मों के
लोगों को हिन्दू बताने की कोशिश कई समस्याओं को जन्म दे रही है। इसी कारण जैनियों को
अल्पसंख्यक धार्मिक समुदाय का दर्जा पाने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा। सिक्ख और बौद्ध
किसी भी स्थिति में अपनी अलग धार्मिक पहचान खोना नहीं चाहते। इसके पहले भी सिक्ख धर्म और
पंजाबी भाषा को हिन्दू रंग देने के प्रयास हुए थे। इसके प्रत्युत्तर में भाई कहन सिंह ने एक
पुस्तक लिखी थी, जिसका शीर्षक था, हम हिन्दू नहीं हैं। संघ कुनबा, सिक्खों को श्केशधारी
हिन्दूश् कहता है, जबकि सिक्खों का यह मानना है कि उनका धर्म एकदम अलग है। कई सिक्ख
अध्येताओं ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि हर भारतीय को अपने धर्म का पालन करने की स्वतंत्रता
होनी चाहिए और संघ को सिक्खों पर हिन्दू धर्म लादने का प्रयास नहीं करना चाहिए। उनका
मानना है कि सिक्ख परंपराएं, ब्राह्मणवादी मानकों से एकदम भिन्न और सांझा संस्कृति पर
आधारित हैं। गुरुग्रंथ साहिब, सूफी और भक्ति, दोनों संत परंपराओं से प्रेरित है। हम यह
कैसे भूल सकते हैं कि मियां मीर ने अमृतसर के स्वर्ण मंदिर की आधारशिला रखी थी। इस
मंदिर में जो लंगर होता है उसमें सभी धर्मों और जातियों के लोगों का स्वागत किया जाता है
और उन्हें प्रेम से भोजन कराया जाता है। संघ से जुड़ी राष्ट्रीय सिक्ख संगत, पंजाब में
लगातार यह प्रचार कर रही है कि सिक्ख, हिन्दू धर्म का एक पंथ है। आरएसएस का एजेंडा है
हिन्दुत्व और हिन्दू राष्ट्रवाद। सिक्ख धर्म इन दोनों अवधारणाओं से कोसों दूर है। यही कारण
है कि सिक्ख बुद्धिजीवी और धार्मिक अध्येता एक होकर भागवत के इस दावे का विरोध कर रहे
हैं कि सिक्ख हिन्दू धर्म का हिस्सा हैं।