आजाद की जयंती और जेएनयू

धर्म, अर्थ और राजनीति की ढेर सारी हलचलों के बीच मौलाना अब्दुल कलाम आजाद की जयंती
आई और चली गई। भारत को गुलाम बनाने के लिए अंग्रेजों ने कई तरह की कुटिल चालें
चली थीं, इन्हीं में से एक थी यहां की ज्ञान और शिक्षा की उस परंपरा को खत्म करना, जो
व्यक्ति को भीतर से जिंदा रहने, आजाद रहने का अहसास कराती थी। अंग्रेजों की इस साजिश
में रूढिय़ों के बंधन में बंधे भारतीयों ने भी सहर्ष मोहरा बनना स्वीकार किया। उनके


लिए धार्मिक कट्टरता, सड़ी-गली मान्यताएं, वर्तमान की सुध छोड़ अतीत का गौरवगान करना अधिक
महत्वपूर्ण था।
अंग्रेजों ने भारतीयों की इस कमजोरी को खूब पहचाना और उसका फायदा उठाया। लेकिन
इसी दौर में बहुत से विद्वान थे, जो भारतीयों को सही मायनों में शिक्षित करना चाहते थे।
राजा राममोहन राय, ज्योतिबा फुले, सावित्री बाई फुले, पंडिता रमाबाई, ईश्वरचंद्र
विद्यासागर, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, ऐसे नामों की सूची में एक नाम मौलाना अबुल कलाम आजाद
का भी शामिल है। मौलाना आजाद ने स्वतंत्र भारत में बुनियादी शिक्षा से लेकर उच्च
शिक्षा की इमारत खड़ी करने के लिए जो काम किए, उसके लिए भारत को ताउम्र उनका ऋ णी
होना चाहिए। उनके जन्मदिन 11 नवंबर को 2008 से राष्ट्रीय शिक्षा दिवस के रूप में मनाया जा
रहा है। यह उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन की एक छोटी सी पहल है। लेकिन 11 नवंबर 2019 को
जब देश की राजधानी दिल्ली में जेएनयू के छात्रों का हुजूम सड़क पर उमड़ा था और अपने लिए
न्याय की मांग कर रहा था, तो लगा कि देश मौलाना आजाद के योगदान का ऋण तो नहीं उतार
रहा, अलबत्ता उनकी देन का अपमान जरूर कर रहा है। बात-बात में दुश्मनों को सबक सिखाने
का दम भरने वाली सरकार में शायद इतना नैतिक साहस नहीं है कि वह छात्रों से आमने-
सामने बात करे, उनके आक्रोश का सामना कर उसे शांत करने की कोशिश करे।
सोमवार को जब अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (एआईसीटीई) में जेएनयू के दीक्षांत
समारोह को उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू और मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश
पोखरियाल निशंक संबोधित कर रहे थे, तब बाहर सड़कों पर जेएनयू के हजारों छात्र फीस
वृद्धि और ड्रेस कोड जैसे फरमानों के खिलाफ आवाज बुलंद कर रहे थे। घंटों चले इस
प्रदर्शन को पुलिस काबू में करने की कोशिश करती रही और आखिर में छात्रों के साथ
धक्का-मुक्की कर, खींच कर तितर-बितर कर दिया गया। छात्रों का आरोप है कि पुलिस ने
लाठीचार्ज किया, जबकि पुलिस इससे इन्कार कर रही है। लेकिन पुलिस और छात्रों की
भिड़ंत का दृश्य समाचार चौनलों पर था, जिसे जनता देख सकती है और अपनी राय बना सकती है।
जब तक बाहर प्रदर्शन चल रहा था, मंत्री महोदय का निकलना मुश्किल हो गया, लगभग छह घंटे वे
कार्यक्रम स्थल पर फंसे रहे। देश में उच्चशिक्षा के लिए माहौल कैसा बन गया है, यह समझने
के लिए इस घटना को हांडी के चावल का एक दाना मान लेना चाहिए। जवाहरलाल नेहरू
विश्वविद्यालय में देश भर के होनहार छात्रों को, उनकी आर्थिक स्थिति के भेद के बावजूद उच्च
शिक्षा हासिल करने का मौका मिलता है। इस विश्वविद्यालय ने एक से एक बढ़कर प्रतिभाएं इस देश
को दी हैं। हाल में अर्थशास्त्र के लिए नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले अभिजीत बनर्जी ने
भी जेएनयू में पढऩा तय किया था, क्योंकि यहां शिक्षा के साथ विचारों के खुलेपन को भी
सम्मान दिया जाता रहा है। लेकिन उसकी इसी खासियत को पिछले कुछ वक्त से बदनाम किया जा
रहा है। विचारों की भिन्नता का संबंध देशभक्ति से जोड़ा जा रहा है। आंदोलन करने को
जेएनयू की फितरत के तौर पर प्रचारित किया जाता है। लेकिन इस बार के आंदोलन में
वैचारिक भिन्नता के बावजूद दक्षिणपंथी और वामपंथी, सभी छात्र एक सााथ हैं। दरअसल
जेएनयू प्रशासन ने बड़ी बेरहमी से हास्टल और मेस की फीस में वृद्धि की है। जो कमरे 10
और 20 रुपए में छात्रों को मिलते थे, उनका किराया सीधे 3 सौ और 6 सौ रुपए कर दिया गया
है, वन टाइम मेस सेक्टोरिटी फीस 5500 रुपये से बढ़ा कर 12000 रुपये कर दिया गया है।
इसके अलावा फरमान जारी हुआ है कि रात 11 बजे या अधिकतम 11.30 बजे के बाद छात्रों को
अपने हॉस्टल के भीतर रहना होगा और बाहर नहीं निकल सकेंगे। अगर कोई अपने
हॉस्टल के अलावा किसी अन्य हॉस्टल या कैंपस में पाया जाता है तो उसे हॉस्टल से
निकाला जाएगा। नए मैनुअल में ये भी लिखा गया है कि लोगों को डाइनिंग हॉल में उचित कपड़े


पहन कर आना होगा। अगर यह फीस वृद्धि लागू हुई तो जेएनयू के कम से कम 40 प्रतिशत छात्रों
को संस्थान छोडऩा पड़ेगा, क्योंकि ये छात्र ऐसे परिवारों से आते हैं, जिनकी मासिक
कमाई 12 हजार रुपए से कम है। कुशाग्र होने के बावजूद ये छात्र महंगे शिक्षा संस्थान तक
नहीं पहुंच पाते हैं, ऐसे में जेएनयू जैसे सरकारी संस्थान ही उनकी प्रतिभा को पंख लगाते हैं।
लेकिन मोदी सरकार कमाई के नाम पर इनके पंखों को कतरना चाहती है। प्रधानमंत्री की
विदेश यात्राओं, सरकारी विज्ञापनों, उद्घाटनों-शिलान्यासों के भव्य आयोजनों में
करोड़ों खर्च करने वाली सरकार को यह पसंद नहीं आ रहा कि जेएनयू के छात्र सस्ते में
शिक्षा हासिल करें। पहले सार्वजनिक निकाय निजी हाथों में गए, अब धीरे से बचे-खुचे शिक्षा
संस्थान भी इसी तरह बर्बादी की ओर ढकेले जा रहे हैं और जनता अब भी सोई हुई है, जबकि
खिलवाड़ उसके साथ ही हो रहा है।