जहां तक स्वदेशी का सवाल है यह सरकार का कार्यक्षत्र न होकर उपभोक्ता का कार्य
क्षेत्र है। ऐसा लगता है कि स्वदेशी आंदोलन के बारे में आज आम भारतीय सोचता है कि
पिछले 70 सालों में देश में छोटी से लेकर बड़ी तथा हल्की से लेकर भारी वस्तुएं बनाई
जा रही हैं इसलिए अब हमारे देश पर किसी भी देश से वस्तुएं आयात करने के संबंध में
कोई दबाव नहीं है, जो कुछ भी आयात हो रहा है वह स्वेच्छा से हो रहा है, इसलिए लोगों का
मानना है कि वर्तमान में स्वदेशी आंदोलन की कोई प्रासंगिकता नहीं है। आज की बाजाघ्र
अर्थव्यवस्था में उत्पादकवर्ग उत्पादन से संबंधित सारे निर्णय उपभोक्ता की मांग को ध्यान में
रखकर लेता है। इस प्रकार बाजाघ्र अर्थव्यवस्था में उपभोक्ता को शहंशाह या
महाराजा कहा जाता है। वह मादक पदार्थों एवं सरकार द्वारा प्रतिबंधित वस्तुओं को
छोड़कर किसी भी वस्तु का उपभोग कर सकता है। किंतु लोकतांत्रिक व्यवस्था होने के कारण
सरकार उपभोक्ता को स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग के लिए मजबूर नहीं कर सकती है।
इस प्रकार बाजार अर्थव्यवस्था के वैश्वीकरण के इस युग में उपभोक्ता को किसी भी देश में
बनी हुई वस्तु को उपभोग करने की स्वतंत्रता है। महात्मा गांधी के स्वदेशी आन्दोलन के
बावजूद भारतीय उपभोक्ता विदेशी वस्तुओं का प्रयोग करने में गर्व महसूस करता रहा है
इसलिए उनका खुलकर उपयोग होता है। गीतकार शैलेन्द्र ने भारतीय उपभोक्ता की
मानसिकता को पहचानते हुए 1950 के दशक में फिल्म के हीरो राजकपूर के लिए एक गीत लिखा
था, जिसके मुखड़े के बोल थेरू मेरा जूता है जापानी, पतलून इंग्लिशतानी, सर पर लाल
टोपी रूसी, दिल है हिन्दुस्तानी। उस समय भारत में अमेरिका एवं चीन में निर्मित उपभोक्ता
सामान भारतीय बाजारों में नहीं आए थे अन्यथा गीतकार शैलेन्द्र अमरीकन शर्ट और
चीनी मोबाइल का उल्लेख भी अपने गीत में कर देते तो आश्चर्य की बात नहीं होती।
उन्नीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में अर्थशास्त्रियों ने थ्योरी विकसित कर ली थी कि
व्यवहार में बाजाघ्र पूर्ण प्रतिस्पर्धात्मक नहीं है, बल्कि बाजार में एकाधिकारात्मक
प्रतिस्पर्धा है जिसमें ब्रांड बहुत बड़ा माध्यम होता है। बड़े-बड़े उत्पादक खासकर
कारपोरेट सेक्टर भारी-भरकम प्रचारतंत्र द्वारा उपभोक्ता को स्वयं के ब्रांड
की वस्तुओं को उपभोग हेतु लुभाते हैं। इस प्रकार बाजाघ्र में ब्रांडेड वस्तुओं के बीच
प्रतिस्पर्धा होती है। आज गांव में रहने वाले व्यक्ति भी सुबह उठकर कोलगेट टूथपेस्ट से
दांत ब्रश करता है। परिवार के सदस्य नहाने के लिए लाइफबाय या लक्स साबुन तथा कपड़े
घोने के लिए सनलाइट व सर्फ एक्सेल पावडर का प्रयोग करते हैं। नाश्ते, व भोजन भी बड़े
ब्रांडेड वस्तुओं से बनना आम बात हो गई है। एक आम भारतीय नागरिक का आवास का किचन,
ड्राईंग रूम आदि ब्रांडेड वस्तुओं से सुसज्जित रहता है। कहने का आशय पूरा परिवार
सुबह से शाम तक ब्रांडेड वस्तुओं का प्रयोग करता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद आज
ग्रामोद्योगों एवं कुटीर उद्योगों को सबसे बड़ी चुनौती देशी विदेशी कारपोरेट की
ब्रांडेड वस्तुओं जो कस्बों एवं गांवों की छोटी दुकानों तथा ठेलों तक पहुंच चुकी हैं। इन
उपभोक्ता ब्रांडेड वस्तुओं के निर्माताओं के उत्पादन संयंत्र एक महानगर में स्थित हैं बल्कि
उन्होंने लगभग एक दर्जन राज्यों के औद्योगिक क्षेत्रों में स्थापित हैं। इस प्रकार ये वस्तुएं
विदेशी न होकर देशी हो गई हैं। कुछ साल पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवा संघ के आनुषंगिक
संगठन स्वदेशी जागरण मंच द्वारा स्वदेशी ब्रांड की वस्तुओं की एक सूची जारी की गई थी।
सवाल उठता है कि यदि पतंजलि, डाबर या निरमा की वस्तुएं सभी उपयोग करेंगे तो हमारे
राज्य, जिले या गांव के ग्रामोद्योग को क्या फायदा होगा। उत्पादों की बिक्री न हो पाने के
कारण हर साल जितने ग्रामोद्योग स्थापित होते हैं उसके आधे केवल तीन साल में बिक्री के
अभाव में बन्द हो जाते हैं। हर समय सवाल यही उठता है कि ग्रामोद्योगों और कुटीर उद्योगों
को जीवित रखने के लिए क्या किया जाय? मैं हर मंच पर कहता रहा हूं कि इसका एकमात्र
उपाय उपभोक्ताओं का स्वदेशी आन्दोलन है। इस स्वदेशी का मतलब शाब्दिक स्वदेशी अर्थात
भारत में बनी हुई वस्तुओं के उपयोग और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार से नहीं है। बल्कि
हमारा स्वदेशी से आशय बहुचरणीय स्वदेशी से है जिसके अंतर्गत ग्राम स्तर, विकास खंड
स्तर, जिला और राज्य स्तर पर संगठन स्थापित करके उपभोक्ता आन्दोलन से है। प्रथम चरण
पर, ग्रामीण उपभोक्ता अपने जिला स्तर की वस्तुओं का ही उपयोग करे। यदि उपभोक्ता
महसूस करता है कि ग्राम में मानक गुणवत्ता की वस्तु नहीं बन पा रही है तो विकल्प के रूप
में अपने विकास खंड क्षेत्र के ग्रामों में निर्मित वस्तुओं का उपयोग करना चाहिए। यदि विकास
खंड के ग्रामों में वह वस्तु नहीं बनाई जा रही है तो स्वयं के जिले में किसी भी स्थान पर बनाई
जाने वाली वस्तु का उपयोग करें। किंतु जिले में भी वह वस्तु नहीं बनाई जा रही है तो
राज्य के किसी भी कोने में उत्पादन की जाने वाली वस्तुओं को खरीद कर उसका उपयोग
करें। जब तक स्वदेशी की इस अवधारणा के साथ गैर-सरकारी स्वदेशी उपभोक्ता संगठन
स्थापित करके उपभोक्ताओं को प्रेरित नहीं किया जाएगा ग्रामोद्योगों को जीवित रखना कठिन
रहेगा। सरकार अपने कार्यालयों एवं अधीनस्थ प्रतिष्ठानों के लिए ग्रामोद्योगों से खरीदी से
अधिक कुछ नहीं कर सकती। ग्रामोद्योगों को जीवित रखने के लिए परिवारों द्वारा, ग्रामोद्योगों
द्वारा बनाई जाने वाली वस्तुओं का खरीदी जरूरी है। यदि एक जिले के एक तिहाई
परिवार भी इस नई अवधारणा की स्वदेशी अपना कर ग्रामोद्योग की वस्तुएं प्रयोग करने
लगते हैं तो मेरी समझ में इस स्वदेशी आन्दोलन को सफल माना जा सकता है।