स्त्री सुरक्षा और आजादी

अठाहरवीं सदी के बड़े फ्रांसिसी दार्शनिक चाल्र्स फुरिए ने कहा था कि किसी भी समाज में
प्रगति और आजादी का बुनियादी पैमाना यह है कि उस समाज की स्त्रियां किस हद तक आजाद हैं.
चाल्र्स फुरिए समाजवाद के पूर्वज दार्शनिक माने जाते हैं. विचारकों ने उनके समानता के
सिद्धांत को काल्पनिक समाजवाद कहा है. उनकी यह सदी औद्योगिक क्रांति के बाद आगे बढ़ती हुई
मानव की सदी है. फुरिए का समय यूरोपीय समाज के सामंतवाद से पूंजीवाद में रूपांतरण का
समय है. इस समय में स्त्री अस्मिता और अधिकारों की बात वैचारिक रूप से चिंतन जगत में उभर
रही है. दूसरी ओर प्रकृतिवादी विचारकों ने तो स्त्री की सामाजिक असमानता का कारण
स्त्री की प्राकृतिक दुर्बलता को बताया था. उनके अनुसार, स्त्री प्राकृतिक रूप से पुरुष से
कमजोर होती है. जब भी स्त्री अस्मिता की बात उठती है, तो परस्पर विरोधी मत उभर कर सामने
आते हैं. स्त्री सुरक्षा और अस्मिता का विचार अब भी इन्हीं मतों के बीच बहस से गुजर रहा
है. हैदराबाद में जिस बर्बरता के साथ एक महिला डॉक्टर को बलात्कार के बाद जला
देने की घटना सामने आयी है, वह इस बात का संकेत है कि स्त्रियों के मामले में हमारा
समाज अब भी बर्बर है. यह कोई अकेली घटना नहीं है. उस घटना के ठीक कुछ दिन बाद ही
रांची में कॉलेज की एक छात्रा गैंगरेप की शिकार हुई.यदि महीने भर की घटनाओं
को जुटाया जाये, तो स्त्रियों पर होनेवाले हमलों की लंबी सूची सामने आयेगी. राष्ट्रीय
अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों को देखने से पता चलता है कि देश का
कोई भी राज्य महिला उत्पीडऩ से मुक्त नहीं है. महिलाओं के खिलाफ होनेवाले हमले हमारे
समाज की प्रगति के सूचक कतई नहीं हैं.
स्त्रियों के खिलाफ होनेवाले हमलों में समाज आगे बढ़कर अपराध की मनोवृत्ति को खत्म करने
की बात नहीं करता है, बल्कि संरक्षण की नीति अपनाते हुए संकुचन के रास्ते पर आगे बढ़
जाता है. संकुचन के सिद्धांत के तहत घर, परिवार और समाज के सभी सदस्य स्त्रियों को
लेकर अतिरिक्त सतर्कता बरतना शुरू कर देते हैं. उन्हें घर से बाहर जाने से रोकने
लगते हैं. इस तरह का सामाजिक व्यवहार अपराध की मनोवृत्ति को कमजोर नहीं करता है,
बल्कि उल्टे स्त्रियों को बाहर निकलने से रोककर उनकी आजादी और समानता को खतरे
में खड़ा करता है. अपराध की मनोवृत्ति को तोडऩे के लिए सामाजिक जुटान जरूरी है.
अगर कहीं किसी स्त्री के खिलाफ अपराध होता है, तो तुरंत उसके पक्ष में सामाजिक एकता का
प्रदर्शन जरूरी है. सामाजिक दबाव ही अपराध की मनोवृत्ति को कमजोर कर सकता है.
लेकिन, अक्सर मामलों में देखा गया है कि स्त्रियों को ही नैतिकतावादी सलाह दिये जाते हैं.
चूंकि हमारे समाज में स्त्री का सवाल पारिवारिक-सामाजिक प्रतिष्ठा का सवाल है, ऐसे में
स्त्रियों पर होनेवाले अपराध को देखने का नजरिया अब भी पुरातनपंथी है. ऐसे मामलों में
या तो पीडि़त पक्ष प्रतिष्ठा के नाम पर चुप्पी साध लेते हैं या आस-पास का समाज पीडि़त पक्ष को
ऐसे देखता है, मानो उनकी प्रतिष्ठा और पवित्रता ही खत्म हो गयी हो. इसमें कोई दो मत नहीं है कि
स्त्रियों के खिलाफ होनेवाले अपराध पुरुषवादी कुत्सित मानसिकता के परिणाम होते हैं. यौन
उत्पीडऩ, बलात्कार, एसिड अटैक जैसी घटनाएं पितृसत्तात्मक समाज के क्रूरतम लक्षण


हैं. अपराध की मनोवृत्ति और अपराध से बचने के लिए स्त्रियों को बाहर न निकलने
देनेवाली प्रवृत्ति दोनों ही पुरुषवादी हैं.
ये दोनों भिन्न विचार के होते हुए भी स्त्री की प्रगति के विरोधी हैं. स्त्रियों की आजादी और
सुरक्षा के लिए जरूरी है कि समाज में ज्यादा से ज्यादा स्त्रियों की खुली भागीदारी हो.
स्वाभाविक सी बात है कि यदि कोई स्त्री घर से बाहर निकलती है और उसे बाहर के समाज
में स्त्रियों की भागीदारी ज्यादा मिलेगी, तो उसका भय कम होगा. स्त्रियों की सुरक्षा पुरुषों
द्वारा तय किये जाने से बेहतर स्थिति यह होगी कि स्त्रियां ही खुद की सुरक्षा का विकल्प बनें.
घर के बाहर या काम की जगह में स्त्रियां अपनी अधिकतम भागीदारी से खुद को सुरक्षित
महसूस करें. कानून और व्यवस्था को इसमें सहयोग करना चाहिए. लेकिन, इस मामले में
हमारा देश अब भी पिछड़ा हुआ है. विभिन्न सेवाओं में स्त्रियों की भागीदारी अब भी बहुत
कम है. एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में पुलिस सेवा में स्त्रियों की भागीदारी मात्र
सात प्रतिशत है. इसी तरह की स्थिति अन्य सेवाओं की भी है. इस तरह के लैंगिक भेद से स्त्रियों की
सुरक्षा सुनिश्चित नहीं हो सकती है. हमारे देश में स्त्रियों की सुरक्षा के लिए अब तक विधिवत
कोई टास्क फोर्स नहीं है. सूचना क्रांति से आये प्रौद्योगिकी और तकनीकों का भी कारगर
प्रयोग नहीं किया जा रहा है. न ही उनकी सुरक्षा और आजादी के लिए अलग से कोई बजट
है.
इस मामले में हम अब भी पुरातनवादी हैं. सरकार ने निर्भया कांड के बाद पीडि़तों के
राहत और पुनर्वास के लिए 'निर्भया फंडÓ की व्यवस्था की है. इस फंड में एक हजार करोड़
रुपये दिये गये, जिसके इस्तेमाल न होने पर सवाल उठ रहे हैं. स्त्रियां केवल घर के
बाहर ही हमलों की शिकार नहीं होती हैं, बल्कि घर के अंदर भी बराबर उत्पीडऩ का
सामना करती हैं. इससे मुक्त होने के लिए प्रकृतिवादी विचार या संकुचन का सिद्धांत हमारा
सहयोगी नहीं हो सकता है. यह पितृसत्ता को ही आदर्श रूप में स्थापित करने का प्रयास करता
है. स्त्री की सुरक्षा और आजादी दो विरोधी चीजें नहीं हैं, बल्कि इन दोनों के पूरक रूप
में ही स्त्री सवालों को हल किया जा सकता है. हैदराबाद में जिस महिला डॉक्टर के साथ
घटना घटी, वह घर से बाहर हुई थी. इस तरह की घटनाएं लड़कियों के घर से बाहर
होने पर घरवालों की चिंताओं को बढ़ा देती हैं. लेकिन, स्त्रियां सिर्फ बाहर ही नहीं, बल्कि
घर के अंदर भी यौन उत्पीडऩ का शिकार होती हैं. इसलिए संकुचन के बजाय समाज में उनकी
खुली भागीदारी की बात करनी चाहिए. उस लैंगिक भेद को खत्म करने का सामाजिक विमर्श
होना चाहिए, जो पुरुषवादी विचार में अपराध की शक्ल बनकर सामने आता है. यह कहना
बहुत मुश्किल है कि किस पुरुष की मनोवृत्ति क्या है. स्त्रियों का सवाल हमारी सभ्यता में ऐसा
सवाल है जो जाति, धर्म, समुदाय से परे होकर आता है. यहां स्त्रियां केवल स्त्री पहचान के
साथ ही मौजूद होती हैं. स्त्रियां सामाजिक असमानता और उत्पीडऩ का शिकार प्राकृतिक
दुर्बलता के कारण नहीं होती हैं, बल्कि व्यवस्थागत कारणों से होती हैं.