बहुसंख्यकवाद एक ऐसे राजनीतिक दर्शन के रूप में स्वीकार किया जाता है, जिसमें बहुमत
समुदाय का दबदबा होता है और वह अन्य समुदायों की तुलना में प्राथमिकता यानी अधिक
अधिकारों का आनंद उठाता है. इसे दो तरह से अंजाम दिया जाता है. पहला, कानून के द्वारा
और दूसरा, एक विशिष्ट तरीके से, जो हमारे सामने उद्घाटित हुआ है. अल्पसंख्यकों को दबदबे
में लेने का शास्त्रीय तरीका संवैधानिक मार्ग से होकर जाता है. ऐसे किसी देश में यह
स्पष्टत: स्थापित हो जाता है कि एक तरह के सदस्य दूसरे से अधिक विशिष्ट हैं. श्रीलंका का संविधान
बौद्ध धर्म को सर्वोच्च स्थान देता है.
यह प्रावधान सत्तासीन लोगों को हमेशा यह अवसर प्रदान करेगा कि वे श्रीलंका के गैर-
बौद्धों से छेड़छाड़ करते रहें. ऐसा नेता, जो इन प्रावधानों को कड़ाई से लागू करने पर
तुला हो, अन्य की अपेक्षा अधिक हानि करेगा. पर संविधान का यह प्रावधान एक धमकी के रूप में
हमेशा मौजूद रहेगा. इस तरह की शब्दावली बाद में एक आरंभ बिंदु की तरह इस्तेमाल की
जाती है. पाकिस्तान के संस्थापक ने अपने देश के द्वारा अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव किये
जाने की परिकल्पना नहीं की थी. मगर वे भी पकिस्तान के संवैधानिक ताने-बाने में इस्लामी
तत्वों का समावेश देखना चाहते थे. जिन्ना के निधन के छह माह बाद उनके उत्तराधिकारी
लियाकत अली खान के अंतर्गत पाकिस्तान की संविधान सभा ने एक शानदार बहस के बाद संविधान
के उद्देश्य कथन का प्रस्ताव अंगीकार किया.
यह बहस ज्यादातर तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (आज का बांग्लादेश) के बांग्लाभाषी हिंदुओं
एवं मुस्लिमों के बीच हुई थी. मुस्लिम सदस्य इस्लामी तत्वों को एक गैर-नुकसानदेह तत्व के रूप में
शामिल करना चाहते थे. इसमें 'संप्रभुता केवल अल्लाह की हैÓ और पाकिस्तान में 'लोकतंत्र
के सिद्धांत, स्वतंत्रता, समानता, सहनशीलता तथा सामाजिक न्याय को इस्लाम द्वारा प्रतिपादित ढंग
से पूरी तरह लागू किया जायेगा,Ó जैसी शब्दावलियां थीं.इस पर हिंदुओं ने आपत्ति
प्रकट की. उनका कहना था कि आज इन शब्दों का इस्तेमाल करनेवाले लोग सदाशयी हो सकते
हैं, पर बाद में इन शब्दों का दुरुपयोग कर गैर-मुस्लिमों के साथ भेदभावजनक प्रावधानों
का समावेश किया जा सकता है. फिर इस विवाद पर मतदान हुआ, जो धार्मिक आधार पर
विभाजित हो गया. न तो किसी हिंदू ने मुस्लिम विचारधारा के पक्ष में मत दिया और न ही किसी
मुस्लिम ने हिंदू विचार के समर्थन में. कुछ ही समय पश्चात हिंदुओं की आशंका सही सिद्ध होने
लगी.पाकिस्तान का संविधान क्रमश: नकारात्मक तत्वों पर जोर देने लगा और जल्दी ही
राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री के पद कानूनन केवल मुस्लिमों के लिए आरक्षित हो गये. और बाद
में, ऐसी ही संवैधानिक प्रक्रिया द्वारा मुस्लिमों के एक संप्रदाय को इस्लाम से बहिष्कृत कर
उनका उत्पीडऩ किया जाने लगा.हमारे पड़ोस में ही भूटान को लें, तो वहां एक बौद्ध ही
राजा हो सकता है. कुछ वर्षों पूर्व तक नेपाल भी एक हिंदू राष्ट्र हुआ करता था. बांग्लादेश
का संविधान 'बिस्मिल्लाहिर्रहमानीर्रहीमÓ से प्रारंभ होता है. यह सही है कि बांग्लादेश ने
अपने संविधान का पाकिस्तानियों जैसा दुरुपयोग नहीं किया है, मगर यह शब्दावली अपनी जगह
कायम है, जिसकी ओट में कभी भी कुछ किया जा सकता है. संवैधानिक बहुसंख्यकवाद को हमेशा
ही किसी ऐसे नेता की प्रतीक्षा रहती है, जो ऊपर से देखने में गैर-नुकसानदेह जैसे लगते
शब्दों की एक आक्रामक व्याख्या कर डालेगा.अब हम उस खास तरीके पर गौर करें, जिससे
कोई देश बहुसंख्यकवादी हो सकता है. दक्षिण एशिया में भारत विशिष्ट देश है, जो संवैधानिक
रूप में शुरू से आखिर तक बहुलवादी है. मगर किसी बाहरी प्रेक्षक को भारत किसी अन्य
दक्षिण एशियाई बहुसंख्यकवादी स्टेट से शायद ही भिन्न प्रतीत होगा. यह तो है कि भारत में
कोई भी प्रधानमंत्री बन सकता है, मगर आज तक यहां कोई मुस्लिम प्रधानमंत्री नहीं बन सका है.
हमें इस तथ्य पर संतोष हो सकता है कि पाकिस्तान के विपरीत, हमारे यहां मुस्लिम राष्ट्रपति
हुए हैं, पर पाकिस्तानी राष्ट्रपति के पास वास्तविक शक्ति होती है. यदि भारत में राष्ट्रपति
के पास संसद को बर्खास्त करने की शक्ति होती, तो मैं निश्चित तौर पर यह कह सकता हूं कि हमने
किसी मुस्लिम को राष्ट्रपति भी नहीं बनाया होता.भारत में हुआ यह है कि बहुमत समुदाय ने
सत्ता के सभी आयामों पर काबिज होते हुए भी बहुलवादी होने का दावा कायम रखा है. हमने
अन्य साधनों के द्वारा बहुसंख्यकवाद लागू कर रखा है. नागरिकों का राष्ट्रीय
रजिस्टर के साथ नागरिकता संशोधन विधेयक उसे सिद्ध कर देगा, जो मैं कह रहा हूं.
कश्मीर और असम में तथा आतंकवाद पर हमारी कार्रवाइयां यह प्रदर्शित कर देती हैं. सच यह
है कि बहुसंख्यकवाद का भारतीय मॉडल ज्यादा सूक्ष्म और कम अनगढ़ होता हुआ भी उतना ही
मारक है. मॉडल यह मानता है कि एक समुदाय ज्यादा प्रमुख है, जिसे यह प्राथमिकता तथा विशिष्ट
स्थान प्रदान करता है. लेकिन, तभी हम अल्पसंख्यकों पर यह आरोप भी लगा देते हैं कि वे
'तुष्टीकरणÓ के लाभग्राही हैं! (अनुवादरू विजय नंदन)
(यह लेखक के निजी विचार हैं.)