दोतीन घटनाएं इधर के एक-दो दिनों के भीतर ही हुई हैं। पहली है, हैदराबाद में युवा पशु
चिकित्सक के साथ हुए दुष्कर्म और उसकी नृशंस हत्या से व्यथित एक छात्रा अनु दुबे द्वारा
अकेले संसद भवन के गेट पर उस तख्ती के साथ प्रदर्शन करती है। दूसरा, विख्यात
पर्यावरणवादी व नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेत्री मेधा पाटकर का जन्मदिन और तीसरी,
प्रसिद्ध उद्योगपति राहुल बजाज द्वारा भरी सभा में अमित शाह को यह कहकर आईना दिखलाना
कि लोग वर्तमान सरकार से डरकर जी रहे हैं। तीनों के बीच गहन अंतर्संबंध हैं।
वेटरनरी डॉक्टर की हत्या दो-तीन बातों की ओर इंगित करती है। एक तो यह कि कई
कानूनों और आधुनिक युग में प्रवेश करने के बाद भी हम एक निरापद समाज निर्मित नहीं
कर सके हैं। ऐसा समाज जिसमें न हिंसा हो और न ही किसी भी कमजोर वर्ग पर कोई
अत्याचार। औरतें अब भी पुरुषों के निशाने पर हैं तथा कई तरह के अत्याचारों के साथ
उनका यौन शोषण बढ़ता जा रहा है। लैंगिक बराबरी कायम करने की बजाय हम ऐसा
समाज बना चुके हैं जिसमें महिलाएं असुरक्षित हैं, बार-बार वे पुरुष समाज से प्रताडि़त हो
रही हैं। मध्य युग में जो बर्बरताएं नारियों ने झेली हैं उनसे बाहर आने के चिन्ह
भारत के पुनर्जागरण काल और आधुनिक युग में दिखलाई देने लगे थे। गांधी जी के उद्भव
के पहले ही भारत में स्त्री शिक्षा के प्रबंध कुछ समाज सुधारकों और बाद में ब्रिटिश
सरकार द्वारा किए गए थे। गांधी पहले शख्स थे जो स्त्रियों को राजनीति में लाए। दक्षिण
अफ्रीका में चलाए सत्याग्रह और बाद में भारत की आजादी के आंदोलन से जोड़ा था। शुरुआत
उन्होंने अपने घर से की थी। धर्मपत्नी कस्तूरबा गांधी को उन्होंने न सिर्फ अपनी प्रतिरोधात्मक
गतिविधियों में शामिल किया बल्कि रचनात्मक व सामाजिक कामों से भी जोड़ा था। वे
बराबरी की भागीदार थीं। इससे यह आशा बंध चली थी कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद महिलाएं
तमाम पुरुष प्रायोजित-प्रवर्तित-समर्थित शोषण व अत्याचार से मुक्त होकर बराबरी का स्थान
पा सकेंगी। प्रारंभिक वर्षों में ऐसा होता दिख भी पड़ा था। शिक्षा के प्रसार और विश्व के
साथ हमारे मेलजोल ने महिलाओं को वे सारे अवसर दिए जिनके जरिए वे अपना वजूद बनाए
रखकर मनचाहा संसार बना सकें। गांधी ने स्त्री-पुरुष बराबरी की मानसिकता और
आधारभूमि तैयार कर दी थी जिसके कारण पहले दिन से ही हमारे यहां की महिलाओं को
वे सारे अधिकार मिले जिनके लिए अनेक देशों में औरतों को बड़े संघर्ष और बलिदान
करने पड़े थे। चूंकि महिला-पुरुष के बीच असमानता के तत्व हमारे इतिहास और सामाजिक
संरचना में ही मौजूद हैं, पर आधुनिक युग के प्रकाश में वे दब से गए थे लेकिन जब देश में
पुरातन विचारधारा पर आधारित ताकतें फिर से मजबूत होती गईं, गैर बराबरी ने
अपना सर उठाना फिर शुरू किया। ऐसा नहीं है कि आजादी पाने के बाद महिलाओं पर
अत्याचार पूरी तरह रुक गये हों। पिछले 70 सालों में अनेक कुप्रथाएं जारी रहीं,
महिलाओं पर अत्याचार के कई-कई हादसे भी हुए हैं। वे चाहे मेरठ में 60 के दशक में एक
महिला को सरेआम निर्वस्त्र कर देने का मामला हो या कोलकाता का रवीन्द्र सरोवर
कांड, दिल्ली के जयंती पार्क की क्रूर घटना हो अथवा निर्भया कांड। पिछले 5-6 सालों में
महिलाओं के खिलाफ अत्याचारों की लंबी फेहरिस्त बन गई है तो उसका कारण समाज की यह
सोच है कि महिलाएं शोषण झेलने के लिए ही बनी हैं। यह नारी के प्रति गांधी की
अवधारणा और नजरिए के ठीक विपरीत है जो मानव मात्र की गरिमा के बीच नारी को
विशेष स्थान देते थे। यूरोप की औद्योगिक क्रांति के कारण महिलाओं को जिस हाड़तोड़ मेहनत
और शारीरिक शोषण की चक्की में पिसना पड़ा था, उसका उल्लेख उन्होंने अपनी पुस्तक हिन्द
स्वराज्य में किया है। बहरहाल, जो ताकतें गांधी के समग्र रूप से विरोध में थीं वे ही आज
नारी शोषण और उन पर अत्याचार करने वालों के साथ खड़ी दिख जाती हैं। अपने
राजनैतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए जिन्होंने धर्म और राष्ट्रवाद का इस्तेमाल किया है वे
बलात्कारों और नारी उत्पीडऩ में पीडि़ताओं तथा अपराधियों की जाति, धर्म, सम्प्रदाय, प्रांत
आदि देखने लगते हैं। पिछले दिनों महिलाओं पर हुए विभिन्न अत्याचारों में हम देख रहे हैं कि
अपनी सुविधा और राजनैतिक-सामाजिक दृष्टिकोण के आधार पर पीडि़ता या बलात्कारी
के पक्ष-विपक्ष में लोग खड़े हो रहे हैं। यह विवेकहीनता के साथ बर्बर समाज की नींव रखने
वाला कदम साबित होगा। इस घटना से पूरा देश व्यथित है। संसद मौन है। विपक्ष अनुपस्थित है।
सोशल मीडिया पर लोग जाति और धर्म की तलाश कर रहे हैं। ऐसे में दिल्ली की युवा अनु
दुबे श्एकला चलो रे...श् की तर्ज पर देश की सबसे बड़ी पंचायत के दरवाजे पर दमदार दस्तक
देती है एक बेहद मार्मिक तख्ती लिए हुए जिस पर लिखा था- श्मैं अपने ही देश में सुरक्षित महसूस क्यों
नहीं कर सकती?श् उसके साथ कौन है और इसके उसे क्या परिणाम भुगतने पड़ेंगे- इस
पर विचार किए बिना। न वह डॉक्टर की रिश्तेदार है, न वह राजनीति में है। महात्मा
गांधी का बहाया संवेदना का अजस्र स्रोत उसके अंतर्मन में प्रवाहित है। यह गांधी का आजमाया
गया मार्ग है- वे न किसी को बुलाते थे न किसी का इंतजार करते थे और गलत के खिलाफ अकेले
ही अपनी लुकाठी लिए चल पड़ते थे। अनु ने संदेश दिया है कि अकेले गांधी सत्ता को अब भी चुनौती
देने की हालत में हैं- गोडसे पूजकों की भीड़ में भी। इधर मेधा पाटकर 66 वर्ष की हो गई। यह
वैसा कोई उल्लेखनीय वर्ष नहीं होता जिसमें जन्मदिन को यादगार किया जाए, जिस प्रकार 60 वर्ष
(षष्ठी पूर्ति), 75 वर्ष (अमृत महोत्सव), 80 वर्ष (सहस्र चंद्र दर्शन) अथवा 100 वर्ष (जीवन शताब्दी)। दरअसल 60
वर्ष पहले 6 अक्टूबर, 1969 को नर्मदा बांध की योजना तैयार हुई लेकिन कुछ विवादों के
कारण उसे नर्मदा ट्रिब्यूनल को सौंपा गया और ठीक 10 वर्षों बाद और आज से करीब 50
वर्ष पूर्व (12 दिसम्बर, 1979 को) जांच पड़ताल के बाद ट्रिब्यूनल ने इस विनाशकारी योजना
को स्वीकृति दे दी थी जिसके माध्यम से 30 बड़े, 135 मझोले और 3000 छोटे बांधों का प्रावधान
था। युवा मेधा पाटकर ने अपनी पीएचडी की पढ़ाई को छोड़कर 1985 में इस योजना के खिलाफ
आंदोलन छेड़ दिया था जो पूर्णतरू गांधीवादी तरीके से आज तक चल रहा है। कई-कई बार
उन्होंने बापू की तरह लंबे उपवास किए, बारंबार जेल गईं, लाठियां खाईं। बावजूद
इसके कि 1999 के मुकाबले कुछ ऊंचाई घटाकर इसका निर्माण 2006 में फिर शुरू
किया गया था लेकिन 2017 में सत्ता की इस मायने में विजय हुई कि इसकी ऊंचाई पुनरू
बढ़ाकर (138 से 163 मीटर) कर दी गई। अनेक आदिवासी गांव इसकी डूबान में आ गए। बार-
बार की पराजय से भी निराश हुए बगैर मेधा ने शोषितों, दलितों, आदिवासियों और
कमजोर वर्गों के दिल में बापू की मशाल को ऐसे प्रज्ज्वलित कर रखा है कि उन्होंने न लडऩा
छोड़ा है और न ही सत्ता से सवाल करना। उसी गांधी मार्ग से चलता हुआ एक यात्री एक
समाचारपत्र द्वारा प्रायोजित उद्योगपतियों के सम्मेलन में पहुंचता है और सत्ता के प्रतिनिधि
केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह से सीधे आंखों में आंखें डालकर बतलाता है कि श्देश सरकार
से सवाल पूछने पर डर रहा है।श् यह निरंकुशता के बैल को सींगों से पकड़कर
दबोचने का पराक्रम है जिसमें आप कुचल दिए जाने का खतरा उठा रहे होते हैं।कई मामलों
में देश इसका गवाह भी है। यह एक नई प्रवृत्ति है जो हाल के दिनों में विकसित हुई है, लेकिन
सवाल करने वाला वह है जिसके पुरखों ने दुनिया के सबसे शक्तिशाली साम्राज्य को सीधी
चुनौती देने वाले गांधी का परछाई की तरह साथ दिया था, सब कुछ खो देने का खतरा उठाते
हुए। श्गांधी के पांचवे पुत्रश् कहे जाने वाले जमनालाल बजाज की विरासत को सहेजकर
रखने वाले उनके पौत्र राहुल बजाज जानते हैं कि देशाटन के बाद 4 फरवरी, 2016 को
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के उद्घाटन अवसर पर दिए अपने पहले भाषण में महात्मा गांधी ने
वायसरॉय लॉर्ड हार्डिंग्स की सुरक्षा व्यवस्था, गहनों से लदे राजा-महाराजाओं की
विलासिता व मुल्क की गरीबी, अंग्रेजी में दिए भाषणों, शिक्षा पद्धति और काशी विश्वनाथ
मंदिर की गंदगी को लेकर सबको खरी-खोटी सुनाई थी।
वे यह भी जानते हैं कि उनके पिता ने नमक सत्याग्रह के दौरान बनाया हुआ कई टन नमक
खरीदकर मुफ्त में लोगों को बांटा था। राहुल उस नमक की अदायगी कर रहे हैं। दरअसल यह
गांधी के खाए नमक को चुकाने का ही वक्त है।