चुनावी बॉण्डों की व्यवस्था पर पुनर्विचार आवश्यक

नरेन्द्र मोदी सरकार ने राजनीतिक दलों द्वारा चुनावी चन्दा जुटाने की प्रक्रिया को
पारदर्शी बनाने के नाम पर इलेक्टोरल या कि चुनावी बॉण्डों की जो व्यवस्था बनाई
है, जानकारी के अधिकार के बेहद मुश्किल इस्तेमाल के बाद उसके बारे में जो सूचनाएं
हासिल हुई हैं, उनके आलोक में यह सवाल और बड़ा हो गया है कि ये बॉण्ड सचमुच सार्वजनिक
जीवन में पारदर्शिता के सिद्धान्त को मजबूत करने में भूमिका निभायेंगे या इनसे उलटे
उद्योगपतियों व कम्पनियों को अपना कालाधन सफेद करवाने का मौका मिलेगा? जब ये बाण्ड लेने
और देने वाले दोनों के नाम गुप्त रखे जायेंगे, वे जानकारी की सीमा में आयेंगे ही नहीं,
सिर्फ सम्बन्धित बैंक खाते का पता होगा, तो उनकी बाबत पारदर्शिता की बात तो छोटे मुंह बड़ी बात


ही होगी। सवाल यह भी है कि सरकार अपने प्रभाव से विपक्षी दलों को कंपनियों से चन्दा लेने से
वंचित करने लगे, तो उसे किस रूप में लिया जायेगा? अभी तक तो स्थिति यही है कि इन बॉण्डों का
लाभ सत्ता दल को ही मिल रहा है। निस्संदेह यह लोकतंत्र का आधार माने जाने वाले समानता
के सिद्धान्तों के विपरीत है। अब, जब हम जान चुके हैं कि केन्द्र ने इनकी व्यवस्था में चुनाव
आयोग और रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के एतराजों को भी दरकिनार कर रखा है तो उसके
पीछे की अनुचित मनोवृत्तियों को सहज ही समझ सकते हैं। प्रसंगवश, पारदर्शिता लोकतंत्र का
मूल गुण है और कहा जाता है कि इसके बगैर हम सार्वजनिक जीवन को पवित्र नहीं बना सकते।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा तीन साल पहले नोटबन्दी की घोषणा की गई तो दावा किया
गया था कि यह कालेधन पर अंकुश लगाने में सहायक होगी। लेकिन ऐसा कोई अंकुश कतई नहीं
लग पाया। जिन पांच सौ और एक हजार के नोटों को बंद कर कालेधन के उन्हीं में छिपे होने
का अंदेशा जताया गया था, मोटे तौर पर वे सारे के सारे बैंकों में वापस आ गये और
उनके धारकों ने बदले में नये नोट प्राप्त कर लिये और कालेधन की कहीं शिनाख्त ही नहीं
हो पाई! गौरतलब यह भी कि जब नये नोट छापे जा रहे थे और आम लोग बैंकों के दरवाजों
पर लाइनों में खड़े होकर भी उन्हें प्राप्त नहीं कर पा रहे थे, तब यही नोट बड़ी मात्रा में
श्इधर-उधरश् घूम रहे थे। उन्हें बरामद करके घुमाने वालों पर कार्रवाई से भी
यही संदेश गया कालेधन पर अंकुश लगाने के नाम पर थोपी गई नोटबन्दी फेल हो रही है।
इसका सीधा अर्थ यही था कि कालेधन की अर्थव्यवस्था के संचालन में सरकारी मशीनरी भी
शामिल है। वरना नये नोट रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया में छपने के फौरन बाद श्बाहरश्
कैसे चले जाते? जिन लोगों के पास वे पकड़े गये, उनकी पहचान सार्वजनिक न किये जाने से भी
लोगों को लगा कि वे ऐसे अतिमहत्वपूर्ण व्यक्ति हैं, जिनकी न सिर्फ सरकार और उसकी
मशीनरी बल्कि उसकी व्यवस्थाओं के छिद्रों तक भी पहुंच है। और हां, ये छिद्र छोटे-छोटे
नहीं, बल्कि बड़े-बड़े हैं। जैसा कि बता आये हैं, चुनाव आयोग भी इलेक्टोरल बॉण्डों का
पक्षधर नहीं है। हम जानते हैं कि जनप्रतिनिधित्व कानून में प्रत्याशियों के चुनाव खर्च की सीमा
निर्धारित है। कोई प्रत्याशी इससे अधिक खर्चकर जीत जाये तो चुनाव परिणाम रद्दकर नया
चुनाव कराना पड़ता है। इस व्यवस्था के पीछे उद्देश्य यह है कि चुनावों में धन को अनुचित रूप से
निर्णायक भूमिका निभाने से रोका जा सके। क्योंकि लोकतंत्र के मूल में जनेच्छा या जनमत
ही निर्णायक शक्ति है। इसीलिए चुनावों में जाति, धर्म और क्षेत्र आदि के इस्तेमाल को भी
अनुचित घोषित किया गया है। हर चुनाव लडऩे वाले को, वह जीते या हारे, अपने चुनाव खर्च का
विवरण चुनाव आयोग को देना पड़ता है। हारने वाला भी यह विवरण न दे तो उसे छरू वर्ष
के लिए चुनाव लडऩे के अयोग्य घोषित कर दिया जाता है। जनप्रतिनिधित्व कानून के तहत की गई इन
व्यवस्थाओं की अपेक्षाओं के विपरीत इलेक्टोरल बॉण्ड जैसी व्यवस्था स्वीकार नहीं की जा
सकती। खासकर, जब कहा जाता है कि ये किसी सादे कागज पर लिखी राय का परिणाम हैं।
देश में पूंजी के नियमन व नियंत्रण का अधिकार रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया को है। वही इस
सम्बन्धी नीतियां बनाता है और लागू करता है। देश का अन्य कोई भी वित्तीय संस्थान उसकी
बनाई नीतियों व उसके निर्देशों का उल्लंघन नहीं कर सकता। इसीलिए महाराष्ट्र का बहुचर्चित
कोआपरेटिव बैंक घोटाला हुआ, तो उसके खिलाफ आन्दोलन में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया
को भी निशाने पर लिया गया। उससे पूछा गया कि जब यह घोटाला हो रहा था तो उसने
उसे रोकने के आवश्यक कदम क्यों नहीं उठाये?
यहां जानना चाहिए कि गुलामी के वक्त देश की वित्तीय स्थिति के नियमन के लिए अंग्रेजों द्वारा
बनाये गये रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया को स्वतंत्रता के बाद आई सरकारों ने भी स्वीकार
किये रखा और आज भी उसे विश्वसनीय व आवश्यक ही माना जाता है। इसीलिए आज तक सत्तापक्ष


या विपक्ष की किसी भी शख्सियत ने उसे समाप्त करने की मांग नहीं की। ऐसे में सवाल स्वाभाविक
है कि कौन-सा कारण है जिसके चलते उसके ऐतराजों की अवज्ञाकर चुनाव चन्दे के लिए इस
प्रकार के बॉण्डों की नयी व्यवस्था की गई? दूसरे पहलू पर जायें तो भविष्य में जो चुनाव
सुधार प्रस्तावित हैं, उनमें से एक यह भी है कि राजनीतिक दलों को पूरे समय अपनी आस्थाओं,
विश्वासों और नीतियों के प्रचार-प्रसार के प्रयत्नों की सुविधा हो, लेकिन सारा चुनाव खर्च
सरकार उठाये, ताकि उसे धन के अनुचित प्रभाव से बचाया जा सके। यहां तक कि सरकारी
खर्चे पर की गई निष्पक्ष व्यवस्था ही मतदाताओं के पास पहुंचकर मतपत्रों या ईवीएमों में उनकी
राय अंकित कराये। वही उम्मीदवारों के विवरण प्रचारित करने का काम भी करे,
जिससे मतदाता उन्हें जानकर अपनी इच्छा के अनुसार प्रत्याशी का चयन कर सकें।
इलेक्टोरल बॉण्डों का एक और नकारात्मक पहलू यह है कि उनसे सम्बद्ध जानकारियां
जनता के जानने के अधिकार के तहत भी वर्षों के प्रयत्नों से ही मिल पाईं। इसे सहज और
स्वाभाविक नहीं माना जा सकता। चूंकि इनके माध्यम से गुपचुप चन्दे का ज्यादातर लाभ सत्तादल
को ही मिल रहा है, इसलिए भी इसे उसकी राजनीतिक लाभ-हानि की तिकड़मों से जोड़ा जा रहा
है। इस सम्बन्ध में यह भी देखना चाहिए कि कभी कंपनियों के राजनीतिक दलों को चंदा देने पर
प्रतिबन्ध लगाया गया था। ताकि कम्पनियों के अरबपति व करोड़पति संचालकों को उनका लाभार्थी
होने से रोका जा सके। बाद में इस प्रतिबन्ध को इस तर्क से ढीला किया गया कि लोकतंत्र में सत्ता
किसी एक दल के पास ही नहीं बनी रहती। यह भी कहा गया कि चंूकि निर्वाचन प्रणाली
जनप्रतिनिधियों द्वारा ही बनाई गई है, इसलिए इस प्रतिबन्ध की आवश्यकता नहीं है। अंत में कहना
होगा कि अगर सरकार ने इन बॉण्डों की व्यवस्था वाकई चुनावी चन्दे को पारदर्शी बनाने
के लिए की है तो उन्हें पूरी तरह सूचना के अधिकार के हवाले किया जाना चाहिए। यह
अधिकार व्याख्यायित भी है, व्यापक भी और संसद द्वारा स्वीकृत भी। इसकी रक्षा के लिए
राज्यों से लेकर केन्द्र तक में सूचना आयुक्तों को नियुक्त किया गया है और नियम बनाकर
उन्हें व्यापक अधिकार और ऊंचा वेतन दिया जा रहा है। वे अपनी अवज्ञा करने वालों को
दंडित भी कर सकते हैं। इस अधिकार के संदर्भ में इलेक्टोरल बॉण्डों पर चर्चा और
पुनर्विचार आवश्यक है, ताकि ऐसी व्यवस्था बने, जिससे जनता जान सके कि इन बॉण्डों की आड़
में कौन-कौन से खेल किये जा रहा है।