विकसित होती अर्थव्यवस्था और भूखा भारत

देश में कुपोषण और भुखमरी के हालात बदलने का नाम नहीं ले रहे। ग्लोबल हंगर इंडेक्स
द्वारा हाल ही में जारी आंकड़ों के मुताबिक भारत 117 देशों की रैंकिंग में 102वें
नंबर पर है। इसमें सबसे हैरानी की बात यह है कि हंगर इंडेक्स में भारत अपने पड़ोसी
देशों पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका से भी पीछे है। इस इंडेक्स में पाकिस्तान
94 नंबर पर, बांग्लादेश 88वें नंबर पर और श्रीलंका 66वें नंबर पर है। रिपोर्ट
कहती है कि भारत, दुनिया के उन 45 देशों में शामिल है जहां भूख को लेकर हालात बेहद
गंभीर हैं। भारत में लोगों के स्वास्थ्य, पोषण और विकास के मुद्दों पर पर्याप्त काम नहीं
किया गया है। रिपोर्ट के मुताबिक देश में भूखे लोगों की संख्या साल 2015 में 78 करोड़ थी
जो अब बढ़कर 82 करोड़ हो गई है। यही नहीं देश में 6 से 23 महीने उम्र के बच्चों में से सिर्फ 9.6
फीसदी को न्यूनत्तम पौष्टिक आहार मिल पाता है। सरकारी आंकड़े भी कुछ इससे इतर बात नहीं
करते। इसी साल अप्रैल महीने में केंद्रीय स्वास्थ्य राज्य मंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते ने संसद को


बताया था कि देश में 93 लाख से ज्यादा बच्चे गंभीर कुपोषण के शिकार हैं। ग्लोबल हंगर
इंडेक्स ही नहीं, भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद् (आईसीएमआर), पब्लिक हेल्थ
फाउंडेशन ऑफ इंडिया की अगुवाई में हुए एक हालिया अध्ययन में भी यह चौंकाने वाला
खुलासा हुआ था कि देश में हर तीन में से दो बच्चों की मौत कुपोषण से हो रही है। जाहिर है
कि स्थितियां बेहद चिंताजनक हैं, यदि अब भी हमने इस समस्या पर ध्यान नहीं दिया, तो हालात और भी
ज्यादा विकराल हो जाएंगें।


आयरलैंड की कन्सर्न वल्र्डवाइड तथा जर्मनी की वेल्थहंगरहिल्फे संस्था द्वारा संयुक्त रूप से
प्रकाशित यह ग्लोबल हंगर इंडेक्स वैश्विक, राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर भूख को मापने का
पैमाना है। ये इंडेक्स दुनिया भर में कुपोषण और भूख को चार पैमानों पर रिकॉर्ड
करता है। कुपोषण, बाल मृत्युदर, उम्र के अनुपात में कम विकास, लंबाई के अनुपात में कम
वजन। चारों पैमाने पर आकलन के बाद, सभी देशों को 0 से 100 तक अंक मिलते हैं। इसी आधार
पर सभी देशों में भुखमरी के हालात का अंदाजा लगाया जाता है। रिपोर्ट में भारत को
महज 30.3 अंक मिले, जो भुखमरी की गंभीर स्थिति को दर्शाता है। बड़ी आबादी की वजह से भारत
के ग्लोबल हंगर इंडेक्स इंडीकेटर में आने वाली वैल्यू का असर क्षेत्र के इंडीकेटर
वैल्यू पर काफी होता है। मिसाल के तौर पर भारत का चाइल्ड वेस्ंिटग रेट 20.8 फीसदी है,
जो बेहद ऊंचा है। यह इस रिपोर्ट में शामिल किसी भी देश से ज्यादा है। खुले में शौच से
मुक्ति प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का ड्रीम प्रोजेक्ट है। सत्ता में आते ही उन्होंने यह मुद्दा
जोर-शोर से उठाया था और इस साल 2 अक्टूबर तक पूरे देश को खुले में शौच से मुक्त
करने का लक्ष्य घोषित किया। सरकार ने इस दिशा में कदम बढ़ाते हुए, स्वच्छ भारत के लिए
करदाताओं पर स्वच्छता उपकर भी लगाया। 2 अक्टूबर, 2014 से अप्रैल 2018 तक इस मद में
प्राप्त धनराशि में से 1 लाख 59 हजार करोड़ रूपए स्वच्छता अभियान के लिए आबंटित किए गए
हैं। सरकार की इस कवायद से खुले में शौच से कितनी मुक्ति मिली, इसकी सच्चाई श्ग्लोबल हंगर
इंडेक्सश् रिपोर्ट बतलाती है। रिपोर्ट में इसके संबंध में दावा किया गया है कि ग्रामीण
भारत में अभी भी खुले में शौच की प्रवृति जारी है। इस प्रवृति से लोगों के सेहत पर असर
पड़ता है और इसका सबसे ज्यादा शिकार बच्चे होते हैं। साल 2014 से जब से प्रधानमंत्री
नरेन्द्र मोदी ने देश की सत्ता संभाली है, ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत की रैंकिंग में
लगातार गिरावट हो रही है। साल 2014 में भारत 77 देशों की रैंकिंग में 55 नंबर पर
था, तो साल 2017 में बनी 119 मुल्कों की फेहरिस्त में उसे 100वां पायदान हासिल हुआ था और
साल 2018 में वह 119 देशों की सूची में 103वें स्थान पर आ गया। साल 2019 में स्थिति और भी
ज्यादा बिगड़ गई। मोदी सरकार, लगातार यह दावा करती है कि भारतीय अर्थव्यवस्था, दुनिया
की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। देश में तेज आर्थिक विकास हो रहा है। साल 2024 तक देश की
अर्थव्यवस्था 5 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच जाएगी। सरकार की यह बात मान भी ली जाए, तो आर्थिक
विकास लोगों की जिंदगी को संवारने में मदद करता है। तेज आर्थिक वृद्धि दर से प्रति व्यक्ति आय
दर में बढ़ोतरी होती है। साथ ही सार्वजनिक राजस्व में भी बढ़त देखी जाती है। जिसका इस्तेमाल
सरकार कहीं न कहीं समाज के विकास में ही करती है। लेकिन ग्लोबल हंगर इंडेक्स,
सरकार के तमाम दावों और आंकड़ों पर सवाल खड़े करता है। 8 फीसदी की दर से बढ़ रही
अर्थव्यवस्था क्या इतनी भी सक्षम नहीं है कि वह अपनी आबादी के एक बड़े तबके को भोजन करा
सके? उनकी गरीबी और भुखमरी को दूर कर सके। आर्थिक वृद्धि हुई भी है, तो इसका फायदा
देश के चंद पूंजीपति घरानों को ही मिला है। तथाकथित तेज आर्थिक वृद्धि दर के इस चमकते दौर में


पूंजीपतियों ने तो काफी तरक्की की है। अमीर और अमीर होते जा रहे हैं, तो गरीब और
गरीब। आर्थिक उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण की नीतियों ने देश के अमीर
और गरीब वर्ग के बीच आर्थिक असमानता बढ़ाने का ही काम किया है। अमीर और गरीब के
बीच में बढ़ती खाई ने गरीबों को भोजन जैसी बुनियादी सुविधाओं से दूर कर दिया है। आर्थिक
असमानता की वजह से भुखमरी की समस्या और भी ज्यादा गंभीर हुई है। जाहिर है कि प्रति
व्यक्ति आय दर में असमानता, ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत की बिगड़ती स्थिति की एक बड़ी वजह है।
ग्लोबल हंगर इंडेक्स रिपोर्ट, भूख से लडऩे के लिए दक्षिण एशिया के दो देशों, नेपाल और
बांग्लादेश की जमकर तारीफ करती है। इसमें कहा गया है कि इन दो देशों ने बाल पोषण की
दिशा में अहम कदम उठाए हैं और इनके तजुर्बे से बाकी देश सबक सीख सकते हैं। ऐसा नहीं है कि
हमारी सरकारें भुखमरी और कुपोषण की समस्या से अंजान है और इस समस्या के समाधान
के लिए कोई कोशिशें नहीं कर रहीं। पूरे देश में एक राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति,
आयुष्मान भारत योजना और राष्ट्रीय पोषाहार मिशन लागू है। बाल पोषण की दिशा में
और सबके लिए भोजन की उपलब्धता को सुनिश्चित करने के लिए सरकार ने कई सामाजिक
योजनाएं बनाई हैं। मसलन अंत्योदय अन्न योजना, मिड डे मील योजना, अन्नपूर्णा योजना,
राशन वितरण प्रणाली। इन सब योजनाओं के अलावा साल 2013 में भोजन का अधिकार
कानून भी इसलिए बना कि स्थितियों में सुधार आए। देश को कुपोषण और भुखमरी के कलंक से
मुक्ति मिले। लेकिन तमाम कोशिशों के बाद भी कुपोषण और भुखमरी जैसी समस्याओं से
निजात नहीं मिल पा रही है। भोजन का अधिकार कानून लागू होने के बाद भी यदि देश का एक
बड़ा वर्ग सस्ते दामों पर अनाज पाने की सहूलियत से महरुम है, तो इसके लिए सरकार एवं
प्रशासनिक अमले की उदासीनता और लापरवाही जिम्मेदार है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली,
स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार और भोजन के अधिकार कानून को सही तरह से अमल में लाकर ही
देश भुखमरी और कुपोषण की समस्या से निपट सकता है। जरूरत, हमारी आर्थिक नीतियों की
समीक्षा की भी है। क्या वजह है कि आर्थिक वृद्धि का फायदा, देश के सभी वर्गों तक नहीं पहुंचा,
यह सिर्फ एक वर्ग तक ही क्यों सीमित रह गया?