पिछले माह महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनावों के समय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी
एवं गृहमंत्री अमित शाह की ताबड़तोड़ चुनावी रैलियों के बावजूद भाजपा इन राज्यों में बहुमत
प्राप्त करने में असफल रही। प्रधानमंत्री और गृहमंत्री दोनों ने ही हर चुनावी रैली में
जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 समाप्त करने को अपनी सरकार की बहुत बड़ी उपलब्धि बताते हुए कहते
रहे कि जो पूर्ववर्ती सरकारें चाह कर भी नहीं कर पाई वह उन्होंने कर दिखाया।
प्रधानमंत्री और गृहमंत्री दोनों ने ही इसको चुनावी मुद्दा इस प्रकार बनाया जैसे वे इन दोनों
राज्यों में जनमत संग्रह करवा कर केन्द्र सरकार की जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाकर,
विरोधी दल के नेताओं की कैद करने व जम्मू-कश्मीर के विभाजन की नीति पर मुहर लगवाना
चाहते हैं। हरियाणा में भाजपा को 36 प्रतिशत तथा महाराष्ट्र में 28 प्रतिशत मत प्राप्त हुए।
इसका एक मतलब यह निकाला जा सकता है कि दोनों ही राज्यों के बहुसंख्यक मतदाताओं ने केन्द्र
सरकार की जम्मू-कश्मीर की नीति व धारा 370 को हटाने के फैसले के विरोध में अपनी
राय प्रकट की। दूसरा, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह द्वारा दोनों
राज्यों में भाजपा को जिताने की अपील भी नकार दी गई। महाराष्ट्र सरीखे महत्वपूर्ण
राज्य में भाजपा ने सत्ता दी। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324 से 329 में चुनाव और चुनाव
सुधार की बात कही गई है। स्वच्छ लोकतंत्र एवं स्वच्छ राजनीति को बढ़ावा देने के लिए चुनाव
प्रणाली में सुधार जरूरी है इसलिए समय-समय चुनाव सुधार के प्रयास होते रहे हैं। 1974 से
1998 की अवधि में चार समितियां चुनाव सुधार हेतु गठित की गई थीं। चुनाव आयुक्त भी समय-समय
पर चुनाव सुधार हेतु प्रयास करते रहे हैं। इस प्रकार चुनाव सुधार एक निरन्तर
प्रक्रिया है जो चलती रहनी चाहिए। 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री
नरेन्द्र मोदी द्वारा चुनावी रैलियों के दौरान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार तथा 2019 के
चुनाव में ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की आलोचना किए जाने को भारत के संघीय
ढांचे में स्वस्थ राजनीति नहीं माना जा सकता। इसलिए ममता बनर्जी उलट कर नरेन्द्र मोदी का
नाम लेकर जब आलोचना करती हैं तो फिर भाजपा को बुरा नहीं मानना चाहिए कि वे
प्रधानमंत्री का नाम लेकर आलोचना कर मर्यादा का उल्लंघन कर रही हैं। इसलिए मेरा
सुझाव रहा है कि राज्यों के विधानसभा चुनाव में प्रधानमंत्री एवं अन्य केन्द्रीय मंत्रियों
द्वारा चुनाव प्रचार पर अंकुश लगना चाहिए। विधानसभा चुनाव में दल के पदाधिकारियों
का चुनाव प्रचार करना चाहिए। अभी तक किसी भी राजनीतिक दल ने प्रधानमंत्री या अन्य
केन्द्रीय मंत्रियों द्वारा चुनाव प्रचार पर रोक लगाने की मांग नहीं की गई है। यहां तक
कि ममता बनर्जी और मायावती ने भी प्रधानमंत्री द्वारा चुनाव प्रचार का विरोध नहीं किया
है। इसलिए मैं समझता हूं कि सबसे बेहतर यह है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित
शाह स्वयं ही अपनी आचार संहिता बना कर घोषणा करें कि वे विधानसभा चुनावों में
चुनावी रैलियों को संबंधित करने नहीं जाएंगे, ऐसा करके वे स्वस्थ परम्परा प्रारंभ
करेंगे। यूरोप के नार्वेे, स्वीडन, डेनमार्क, जर्मनी, ब्रिटेन आदि देशों में संसद के लिए
उम्मीदवार अपना प्रचार स्वयं करते हैं उनको जितवाने के लिए मतदाताओं से अपील करने
बाहर से कोई नहीं आता है। 2014 के लोकसभा चुनाव में भारतीय मतदाताओं ने प्रधानमंत्री
बनवाने के लिए नरेन्द्र मोदी के पक्ष में मतदान किया था। यह मानकर कि प्रधानमंत्री की
चुनावी रैलियों द्वारा प्रचार भाजपा उम्मीदवारों की जीत की गारंटी है। भाजपा
द्वारा हर एक राज्य के चुनाव में प्रधानमंत्री की चुनावी रैलियां आयोजित की जाती हैं।
लेकिन तथ्य बताते है कि भाजपा की सोच पूर्ण रूप से सही नहीं है। 2015 में दिल्ली विधानसभा
चुनाव में प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री अरुण जेटली द्वारा स्थानीय सभी सातों सांसदों के
चुनाव प्रचार के बावजूद भाजपा की बुरी तरह हार हुई, उसे 70 में से मात्र 3 सीटें हीं
मिल सकीं। 2017 में अपने गृह राज्य गुजरात के विधानसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी
एवं भाजपाध्यक्ष अमित शाह 182 में से 99 सीट ही दिलवा सके जो बहुमत के आंकड़े से मात्र 9
सीट अधिक थी। 2018 के विधानसभा चुनाव में मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा
चुनाव में प्रधानमंत्री की रैलियां भाजपा को बहुमत दिलवाने में असफल रहीं। भारत की
वर्तमान चुनावी व्यवस्था व राजनीतिक दलों की बहुलता देश में कालेधन का सृजन का महत्वपूर्ण
श्रोत बन गई है। अब विधायकों की खरीदी और बिक्री आम हो गई है। इसी प्रकार मतदाताओं को
नकदी व मदिरा वितरण आम हो गया है। चुनावी रैलियों पर करोड़ों रुपये खर्च होते हैं
किंतु चुनाव आयोग को बताया जाता है कि वह राजनीतिक दल द्वारा खर्च किया गया है। चुनाव
आयोग द्वारा नए-नए कानून बनाने के बावजूद हर चुनाव क्षेत्र में उम्मीदवारों द्वारा
करोड़ों रुपए पानी की तरह बहाए जाते हैं। अधिकांश चुनाव क्षेत्रों में राजनीतिक दलों के
उम्मीदवारों से अधिक निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव में खड़े होने लगे हैं। इसका एक कारण यह
है कि राजनीतिक दल अपने विरोधियों के वोट काटने के लिए धर्म, जाति व क्षेत्र के व्यक्तियों
को लाखों रुपये देकर खड़ा करते हैं तो दूसरी ओर लोग निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में इस
प्रत्याशा से भी खड़े हो जाते हैं कि कोई न कोई उन्हें लाखों रुपये देकर अपने पक्ष में
नामांकन वापस लेने के लिए कहेगा। चुनाव में यदि किसी भी दल को बहुमत नहीं मिल पाता है तो
सरकार बनाने के लिए निर्दलियों की खरीदी सबसे अधिक आसान होती है। भारतीय संविधान के
अनुसार लोकसभा व विधानसभा चुनावों में स्पष्ट बहुमत प्राप्त करने वाले राजनैतिक दल के
नेता को ही मंत्रिमंडल के गठन हेतु आमंत्रित किया जाता है। इस प्रकार सरकार के गठन में
निर्दलियों की कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं होती है। इसलिए चुनाव कानून में सुधार करके केवल
राजनीतिक दलों को ही लोकसभा व विधानसभा चुनाव में उम्मीदवारी की पात्रता देनी चाहिए तथा
निर्दलीय चुनाव लडऩे की प्रथा समाप्त की जानी चाहिए। बड़ी-बड़ी चुनावी रैलियों पर भी रोक
लगनी चाहिए जिसके लिए दर्जनों बसों और ट्रकों से लोग ढोकर लाए जाते हैं। इन लाखों लोगों की
चुनावी चुनावी रैलियों की बजाय दलों और उम्मीदवारों को नई इलेक्ट्रॉनिक तकनीक जैसे
कि स्मार्टफोन, इंटरनेट, फेसबुक, वाट्सएप ट्वीटर आदि का उपयोग करना चाहिए।