संस्कृति की समृद्ध परंपरा को सहेजने की दरकार

आधुनिक भाषा में यदि इस परिभाषा को गढ़ा जाए तो मध्य प्रदेश इन दिनों कल्चरल फ्यूजन, यानी
सांस्कृतिक संलयन के दौर से गुजर रहा है। शब्दकोष में भी इसकी गहरी-गंभीर व्याख्या की
गई है। आसान शब्दों में कहा जाए तो यह किसी क्षेत्र, राज्य या देश के संगीत, भोजन, शिक्षा,
साहित्य, आर्थिक व्यवहार, आध्यात्मिकता और स्वास्थ्य सेवा जैसे जीवन के सभी पहलुओं से
जोडऩे वाली सांस्कृतिक अभिव्यक्ति की एक प्रक्रिया है। तभी तो प्रदेश के एक हिस्से इंदौर में
जहां बीते शुक्रवार मैग्निफिसेंट एमपी में देश-विदेश के 900 निवेशकों का जमघट रहा।
वहीं, दूसरे इलाके जबलपुर और सागर में दसवें सांस्कृतिक महोत्सव का आयोजन हुआ। अब
21-22 अक्टूबर को रीवा में इसका समापन होने जा रहा है। दोनों आयोजनों में एक
समानता यह भी है कि इससे मध्य प्रदेश के उद्योग, पर्यटन और लोक संस्कृति का देश-दुनिया में
प्रचार-प्रसार हो रहा है। एक आयोजन राज्य सरकार का था और दूसरे का दायित्व
केंद्र सरकार के पास है। एक के मेजबान कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री कमलनाथ थे और
दूसरे का दायित्व है केंद्र की भाजपा सरकार के मंत्री प्रहलाद पटेल के पास। वैसे दोनों
आयोजनों के एक ही समय में होने के कोई राजनीतिक मायने हों या ना हों, लेकिन समय की यह
उपलब्धि मध्य प्रदेश की साढ़े सात करोड़ जनता के लिए उम्मीद की एक नई इबारत लिख रही है।
देश के अधिकांश प्रगतिशील राज्य अपनी धरोहरें दुनिया को दिखा चुके हैं। सामाजिक,
धार्मिक, राजनीतिक या फिर सांस्कृतिक आयोजनों के जरिए अपनी तमाम खूबियों का प्रदर्शन भी
कर चुके हैं। सांस्कृतिक महोत्सव के माध्यम से अब बारी मध्य प्रदेश की है। इस तर्क के साथ कि
वह अपनी परंपरागत पहचान को प्रसिद्धि में बदल सके। लेकिन, ऐसी कोई पड़ताल शुरू करते ही
पहला सवाल सामने आता है कि प्रदेश का प्रतिनिधित्व करने वाले नीति-नियंता क्या यह जानते
हैं कि प्रदेश की सांस्कृतिक पहचान क्या है? कैसे इसे गौरवशाली बनाया जा सकता है? साथ
ही यह भी कि, यदि वर्तमान में कोई उपलब्धि अर्जित की गई है तो उसके प्रदर्शन का लक्ष्य कहां से
शुरू होगा?
मध्य प्रदेश की लोक संस्कृति पर गहन अध्ययन कर 15 से ज्यादा पुस्तकें लिख चुके सागर
विश्वविद्यालय में मुक्तिबोध सृजन पीठ के निदेशक डॉ. श्यामसुंदर दुबे बताते हैं - श्बोलियों का
इतिहास 11वीं शताब्दी से मिलता है, लेकिन छठीं शताब्दी में महान नाटककार राजशेखर
रचित संस्कृत नाटक कर्पूर मंजरी में बुंदेली के कई शब्द भाषाई समृद्धि का प्रमाण देते
हैं। माना यह जाता है कि राजशेखर जब उत्तर प्रदेश के कन्नौज से निकले तो संभवतरू
बुंदेलखंड के रास्ते त्रिपुरी (जबलपुर) पहुंचे। इसके बाद यहीं रचे-बसे और यहीं के
दरबार में नाटक का मंचन किया। बुंदेली की तरह अब मालवी, निमाड़ी, बघेली बोलियों के
इतिहास को भी खंगालने की आवश्यकता है। संत जुड़ीराम के पदों की पांडुलिपियों पर काम
करते हुए पता चलता है कि मध्य प्रदेश में 200-250 साल पहले कबीर परंपरा को मानने वाले
लोग बड़ी संख्या में थे। चिंता और आश्चर्य का विषय यह है कि इसे अभी तक साहित्यिक इतिहास में
सम्मानजनक स्तर पर दर्ज ही नहीं किया गया। मध्य प्रदेश के गांव-गांव में गुजरात का गरबा
खेला जाता है, लेकिन हर त्योहार-अवसर के लिए खास बंदिशों के साथ गाए जाने वाले नारदी,


कहरवा जैसे मप्र के लोकगीतों को आधुनिक तरीके से दोबारा चलन में लाने की जरूरत है।
संभवतरू कम लोगों को ही यह पता होगा कि एक लोकगीत की वजह से इसी जमीन पर अंग्रेजों को विरोध
झेलना पड़ा था। दरअसल, एक दौर में महुआ आजीविका का अहम हिस्सा था। अंग्रेजों ने इसके
जंगल काटकर रेल पटरियों के नीचे बिछाई जाने वाली लकडिय़ां बनाने का काम
शुरू कर दिया। तब साहित्यिक-सांस्कृतिक विरोध के रूप में लोककवि इसरी की ये पंक्तियां
सामने आईं- श्महुआ मानुस पालन, इन पर लगे कुल्हरियां घालन। जनमानस की इस सांकेतिक-
सार्वजनिक असहमति के बाद अंग्रेजों को पेड़ों की कटाई बंद करना पड़ी। तथ्यों का संकलन
और प्रचार-प्रसार निजी तौर पर प्रदेश में आज भी कई लोग कर रहे हैं। ऐसी संस्थाएं भी
हैं, जो प्रयास कर रही हैं कि हमारी गौरवशाली विरासत को जन-मन तक पहुंचाया जाए।
जैसे- दमोह के हटा कस्बे में वसंत पंचमी पर तीन दिवसीय स्थानीय व्यंजनों का मेला लगता है। इसमें
लुप्त होते व्यंजनों जैसे महेरी, लता, लप्सी, बरा (रोटीनुमा), और सन्नाटा (म_ा की तरह
एक पेय) जैसे लोक व्यंजनों की प्रदर्शनी लगाई जाती है। यदि योजनाबद्ध नीति बनाकर प्रचार
किया जाए, तो प्रदेश के साथ देश-विदेश में इसे नई पहचान दिलाई जा सकती है। वैसे भी मध्य
प्रदेश की लोक संस्कृति में कई दोहे व्यंजनों पर लिखे गए हैं। उदाहरण के लिए - श्दोई दीन से गए
पाड़े, हलवा मिले न माड़ेश्। माड़े अब लुप्त होता व्यंजन है। दमोह के मडिय़ादौ और रनेह गांव
की कुछ महिलाओं के हाथों में इस दुर्लभ व्यंजन की विधा आज भी स्वाद का सम्मान बढ़ा रही है। 16
परतों की महीन रोटी बनाने की यह कला मध्य प्रदेश की एक ऐसी पहचान बन सकती है, जो लंबे
समय तक मिसाल के रूप में बार-बार दोहराई जाती रहेगी। मप्र के पास देश का पहला
संस्कृत बैंड भी है। यह पुरानी परंपरा को जीवित करने की नई पद्धति है। युवाओं को संस्कृत
से जोडऩे के लिए साल 2015 में इस बैंड को बनाने वाले डॉ. संजय द्विवेदी कहते हैं -दिल्ली के
कनॉट प्लेस में जब हमने प्रस्तुति दी तो जनता उसी तरह थिरक रही थी, जैसे कोई फ्रेंच बैंड अपनी
लय में हो। हां, यह अनुभव चिंताजनक रहा कि प्रदेश से पहले हमें बाहरी राज्यों ने
स्वीकारा। हालांकि अब तो संस्कारधानी के खुले मैदान में जुटी पुरानी पीढ़ी से लेकर
राजधानी के युवा श्रोता भी मिल रहे हैं।केंद्रीय पर्यटन और लोक संस्कृति मंत्री प्रहलाद
पटेल ने हाल ही में सांस्कृतिक महोत्सव के मंच से यह विश्वास दिलाया है कि देश-प्रदेश के गांव-
गांव में लोक कलाकारों, लोक गीतों और प्राचीन परंपराओं की पड़ताल शुरू की गई है।
उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार की यह कोशिश ईमानदार बनी रहेगी और अपनी लुप्त हो
चुकी विशेषताओं को वजह बनाकर मध्य प्रदेश जैसे राज्य भी फिर पहचान-प्रसिद्धि के नए पड़ाव
हासिल करेंगे।