पिछले दो वर्ष से अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप चीन से आयात होने वाली तमाम वस्तुओं पर
आयात कर बढ़ा रहे थे। पलटवार करते हुए चीन ने भी अमेरिका से आयातित सामान पर
आयात कर में वृद्धि की, नतीजतन दोनों देशों के बीच व्यापार कम होने लगा। अंतरराष्ट्रीय
मुद्रा कोष (आईएमएफ) का कहना है कि इस व्यापार युद्ध का संपूर्ण विश्व की अर्थव्यवस्था पर
दुष्प्रभाव पड़ेगा। आईएमएफ आकलन के पीछे मुक्त व्यापार का सिद्धांत है। अर्थशास्त्री मानते
हैं कि संपूर्ण विश्व का एक बाजार होने पर तमाम देशों में जो सबसे बेहतर होगा, वही माल का
उत्पादन करेगा। मसलन, किसी कार की उत्पादन लागत भारत में पांच लाख रुपए और अमेरिका
में सात लाख रुपए है तो मुक्त व्यापार के सिद्धांत के अनुसार ऐसी परिस्थिति में कार का
उत्पादन भारत में होना चाहिए। भारत में उत्पादन कर इसे अमेरिका को निर्यात करना
चाहिए, जिससे ढुलाई का खर्च वहन करने के बाद भी अमेरिकी उपभोक्ता को छह लाख रुपए में वह
कार उपलब्ध हो जाए। अर्थशास्त्री मानते हैं कि मुक्त व्यापार से विश्व के सभी उपभोक्ताओं को
सस्ता माल उपलब्ध हो जाएगा, जिससे उनके जीवन स्तर में सुधार आएगा। इसी आधार पर चीन में
बना माल भारत में बड़ी मात्रा में आयातित हो रहा है और भारतीय उपभोक्ताओं का जीवन
स्तर उठ रहा है। प्रश्न है कि तब अमेरिका को चीन से आयात होने वाले माल पर आयात कर
क्यों बढ़ाने पड़े? कारण है कि अमेरिका में रोजगार सृजित नहीं हो रहे हैं।
अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा तमाम वस्तुओं का उत्पादन चीन, भारत, वियतनाम आदि
देशों में किया जा रहा है और फिर उसे अमेरिका में आयात किया जा रहा है। इससे
अमेरिकी उपभोक्ताओं को सस्ता माल जरूर मिल रहा है, किंतु अमेरिकी श्रमिकों को
रोजगार नहीं मिल रहे हैं। रोजगार के अवसर चीन, भारत अथवा वियतनाम में सृजित हो
रहे है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अपने नागरिकों के रोजगार बचाना चाहते हैं।
इसीलिए उन्होंने फैसला किया है कि अमेरिकी उपभोक्ताओं को चीन में बना सस्ता माल उपलब्ध
कराने के बजाय अमेरिकी श्रमिकों को रोजगार मुहैया कराया जाए। यदि अमेरिका
में उत्पादन लागत ज्यादा आती है तो अमेरिकी उपभोक्ता उसे वहन करें। सस्ते माल और
रोजगार के बीच अंतर्विरोध है। मुक्त व्यापार से अमेरिका को सस्ता माल तो मिल रहा है,
लेकिन रोजगार सृजित नहीं हो पा रहे हैं। अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियां राष्ट्रपति ट्रंप
की इस नीति का विरोध कर रही हैं। इन कंपनियों के लिए यह फायदेमंद है कि वे उस देश में माल
का उत्पादन करें, जहां पर श्रम सस्ता होने के साथ प्रदूषण संबंधी नियम शिथिल हों। अमेरिकी
कंपनियां चाहती हैं कि राष्ट्रपति ट्रंप ट्रेड वॉर से पीछे हटें और मुक्त व्यापार को
अपनाएं, जिससे उन्हें विश्व के तमाम देशों में विचरने की छूट मिले। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की
तर्ज पर आईएमएफ भी मुक्त व्यापार का समर्थन कर रहा है। उसका कहना है कि यदि
बहुराष्ट्रीय कंपनियां संपूर्ण विश्व में विचरण करेंगी तो पूरी दुनिया के उपभोक्ताओं
को सस्ता माल मिलेगा। इस बात में दम है, लेकिन आईएमएफ के पास इसका जवाब नहीं है कि यदि
उत्पादन चीन में होगा तो अमेरिकियों को रोजगार कैसे मिलेगा? इसी क्रम में राष्ट्रपति ट्रंप
चाहते हैं कि चीन अमेरिका से दुग्ध उत्पादों जैसे मक्खन अथवा चीज के आयात की छूट दे जिससे
अमेरिकी किसानों के लिए अवसर बढ़ें। दोनों ही देश आखिरकार अपनी जनता के
रोजगारों का संरक्षण करना चाहते हैं। ऐसी परिस्थिति में भारत के समक्ष दो विकल्प हैं।
एक, हम आईएमएफ की तर्ज पर कहें कि अमेरिका और चीन के बीच जारी ट्रेड वॉर को समाप्त
किया जाए। संपूर्ण विश्व को एक बाजार बनाया जाए, जिससे भारतीय उपभोक्ताओं को भी सस्ता
माल उपलब्ध हो। इसी सोच के चलते चीन में बने खिलौने, बिजली के सामान और अन्य वस्तुएं आज
भारतीय उपभोक्ताओं को सस्ते में उपलब्ध हो रही हैं। इस रणनीति का दूसरा फायदा यह हो
सकता है कि चीन और अमेरिका के बीच ट्रेड वॉर के चलते तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियां चीन
छोड़कर दूसरे विकासशील देशों का रुख कर रही हैं। जैसे एपल ने वियतनाम में अपना
कारखाना लगाया है तो फोक्सकॉन ने भारत में। हम प्रयास कर सकते हैं कि जो
बहुराष्ट्रीय कंपनियां चीन से बाहर जाना चाहती हैं, उन्हें भारत में आकर उत्पादन
करने को प्रेरित करें। इस रणनीति में समस्या यह है कि रोजगार का मसला ज्यों का त्यों
रह जाता है। यदि वर्तमान में बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा चीन में उत्पादन करने से
अमेरिकी रोजगारों का हनन हो रहा है तो भविष्य में फोक्सकॉन द्वारा भारत में
उत्पादन करने से भी अमेरिकी श्रमिकों के रोजगारों का हनन होगा। इसके चलते अमेरिका
द्वारा संरक्षणवाद का सहारा लिए जाने की आशंका कायम रहेगी। तब हमारा यह
प्रयास विफल हो जाएगा। आज हम अभी अपनी ताकत बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भारत में स्थापित
करने में लगाएंगे और भविष्य में उनके द्वारा बनाई गई वस्तुओं पर अमेरिका द्वारा
आयात कर लगाए जाएंगे। जैसे ये कंपनियां आज चीन को छोड़कर जा रही हैं, आने वाले
वक्त में वैसे ही भारत को छोड़कर किसी अन्य देश या अपने मुल्क अमेरिका का भी रुख कर
सकती हैं। लिहाजा मुझे यह रणनीति सफल होती नहीं दिखती। दूसरी रणनीति यह हो सकती है कि
अमेरिका और चीन की तर्ज पर हम भी संरक्षणवाद को अपनाएं। जिस प्रकार अमेरिका और
चीन ने अपने श्रमिकों और किसानों के रोजगार को बचाए रखने के लिए ट्रेड वॉर
अपनाया है, कुछ वैसी ही रणनीति हमें भी अपनानी होगी। हम भी चीन से आयात होने वाली
वस्तुओं पर आयात कर बढ़ाकर चीनी माल के भारतीय बाजार में प्रवेश को हतोत्साहित
कर सकते हैं। इससे भारत में उत्पादन को प्रोत्साहन मिलेगा। यह रणनीति दीर्घकाल में
कारगर होगी। हालांकि कुछ वक्त के लिए भारतीय उपभोक्ताओं पर यह रणनीति इसलिए
भारी पड़ेगी, क्योंकि उन्हें चीन की सस्ती वस्तुओं को छोड़कर महंगे भारतीय उत्पादों को
खरीदना पड़ेगा। इस नुकसान की भरपाई के लिए भारत द्वारा देश में प्रतिस्पद्र्धा बढ़ाई
जा सकती है, जिससे कंपनियां कुशल व सस्ते माल का उत्पादन करें। बहुराष्ट्रीय कंपनियों को
किसी देश के श्रमिकों के हित से कोई वास्ता नहीं है। उनकी दृष्टि विश्व स्तर पर लाभ कमाने पर
ही केंद्रित रहती है। राष्ट्रपति ट्रंप ने सही आकलन कर इस विचारधारा का विरोध किया है।
हमें भी उनकी रणनीति के अनुसार संरक्षण को बढ़ावा देना चाहिए, जिससे हमारे देश
के नागरिकों को रोजगार मिले। महंगे माल और रोजगार के बीच हमेशा रोजगार
को ही प्राथमिकता देनी चाहिए। रोजगार उपलब्ध हो और महंगा माल खरीदना पड़े तो श्रमिक
बिना टेलीविजन के भी जीवनयापन कर सकता है। वहीं यदि सस्ता टेलीविजन उपलब्ध हो, लेकिन
खाने के लिए रोटी न हो, तो वो सस्ता टेलीविजन किस काम का?
(लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री एवं आईआईएम, बंगलुरु के पूर्व प्रोफेसर हैं)