अमृत दास उम्र 72 साल, म्रत्यु अप्रैल 2019, सुब्रत डे उम्र 38, म्रत्यु मई 2018ध् और जोब्बार अली ध्
उम्र 61 साल, म्रत्यु अक्तूबर 2018 असम के निवासी इन तीनों के बीच क्या समानता ढूंढी जा सकती
है ? ऐसा नहीं था कि यह तीनों एक दूसरे के वाकिफ थे, या इनके परिवारवाले एक दूसरे को
जानते थे और न ही इनकी मौत एक ही स्थान पर हुई। अमृत दास और सुब्रत जहां असम के गोलपारा
में गुजरे तो जोब्बार का इन्तकाल तेजपुर में हुआ। अलबत्ता एक साझापन जरूर था कि इन
तीनों का अन्तिम समय बिल्कुल गैरों के बीच डिटेन्शन सेन्टर,बन्दी ग्रह, में गुजरा। ऐसा नहीं
कि इन्होंने कोई जुर्म किया था, जिसकी सजा यह भुगत रहे थे। दरअसल अपनी अपनी नागरिकता
साबित करने के लिए जिन जिन दस्तावेजों को जमा करना पड़ता है- और अगर इनमें से किसी में
कुछ खामी मिले तो फिर विदेशी घोषित किया जा सकता है- इनमें से किसी एक में कुछ विसंगति पायी
गयी थी, जिसके चलते किसी अलसुबह इन्हें बिना पहले सूचित किए पुलिस उठा कर ले गयी थी और इन्हें
डिटेन्शन सेन्टर्स में रखा गया था। मई 20, 2017 को फॉरेनर्स ट्रीब्युनल ने अमृत दास को
विदेशी घोषित किया था, जब वह जिन्दगी के सत्तरवें साल में थे। डिटेन्शन सेन्टर की ठंडी
फर्श पर सोते सोते अमृत दास को अस्थमा ने जकड़ लिया और पर्याप्त मेडिकल सहायता न मिलने के
चलते हिरासत में दो साल समाप्त होने के पहले ही वह कालकवलित हुए थे।इसी किस्म का हाल सुब्रत डे
का हुआ था, अनागरिक घोषित किए जाने के दो माह के अन्दर दिल का दौरा पडऩे से उनकी मौत
हुई थी।अब यह फॉरेनर्स टिब्युनल कितने मनमाने ढंग से काम करते हैं, यह बात किसी से छिपी
नहीं है। सबसे ताजा मसला गुवाहाटी उच्च अदालत का वह फैसला है जिसमें उसने मोरीगांव के
फॉरेनर्स टिब्युनल द्वारा दिए 57 आदेशों को- जिसमें इतने सारे लोगों को विदेशी घोषित
किया गया था - तत्काल खारिज करने का आदेश दिया है. अदालत का यह कहना था कि आम हालात
होते तो इस अनियमितता के लिए अनुशासनिक कार्रवाई की जाती।सरकारी योजना के
मुताबिक पहले से चले आ रहे 100 फॉरेनर्स टिब्युनल की सहायता के लिए लगभग चार सौ
ट्रिब्युनल दिसम्बर तक बनने हैं। सभी जानते हैं कि असम में नेशनल रजिस्टर आफ सिटिजन्स की
सूची जारी की गयी है, जिसमें असम के 19 लाख निवासियों के नाम नहीं है। इन 19 लाख निवासियों
को अपनी नागरिकता साबित करने के लिए लम्बी कानूनी प्रक्रिया से गुजरना पड़ेगा, जिसमें
फॉरेनर्स टिब्युनल की अहम भूमिका होगी। गनीमत समझी जाएगी कि बमुश्किल छह माह के अन्दर
हुई इन तीन मौतों ने वैसे- चाहे अनचाहे- अवैध प्रवास के नाम पर अनिश्चितकाल के लिए हिरासत
रखने की राज्य द्वारा संचालित प्रणाली की तरफ लोगों का ध्यान आकर्षित किया है, लेकिन
अभी जैसे हालात हैं इसमें सुधार की कोई गुंजाइश नहीं दिखती। केन्द्र में सत्ताधारी पार्टी
की तरफ से जैसा माहौल बनाया जा रहा है तो अनागरिक को ढूंढने का यह सिलसिला पूरे
देश में रफता रफता फैलाया जा सकता है ताकि देश के हर हिस्से में ऐसे ही डिटेन्शन
सेन्टर बनाए जाए, जहां दस्तावेजों की छोटी मोटी कमी के चलते लाखों लोग अपने तमाम मानवीय
अधिकारों से वंचित कर कारावासों में ठूंस दिए जा सकें। दरअसल, जुलाई माह में ही केन्द्र
सरकार ने सभी राज्य सरकारों को यह निर्देश भेजा था कि वह सभी प्रमुख शहरों में ऐसे
डिटेन्शन सेन्टर बनाए। सभी राज्यों को वितरित 2019 मॉडल डिटेन्शन मैन्युअल में ही ऐसे
इलाके एवं सूबे जो आप्रवासियों के पहुंचने के ठिकाने हैं, उन पर फोकस किया जाना है।
सूबा उत्तर प्रदेश में पुलिस महकमे में आदेश जारी किया गया है कि वह जगह जगह ऐसे लोगों
को तलाशें जिनके पास वैध कागजात नहीं हैं। महाराष्ट्र और कर्नाटक की आयी इन खबरों
ने इसको रेखांकित किया है कि यह कोई कपोलकल्पना नहीं है।रिपोर्ट के मुताबिक नवी
मुंबई में अवैध प्रवासियों के लिए महाराष्ट का ऐसा पहला डिटेन्शन सेन्टर बनेगा। राज्य
के गृह विभाग ने सिडको ध्सिटी इंडस्टिशल एण्ड डेवलपमेण्ट कार्पोरेशनध् को लिखा भी है कि
नवी मुंबई के पास नेरूल में 1.2 हेक्टेयर का प्लाट उपलब्ध कराए जहां उन्हें अस्थायी
तौर पर रक्खा जा सके। बंगलुरू से लगभग चालीस किलोमीटर दूर नीलमंगल के
सोन्डेकोप्पा में ऐसा एक डिटेन्शन सेन्टर बन रहा है। दस फीट उंची दीवारें, कंटीली
तारें और इर्दगिर्द बने वॉचटावर्स के चलते यह जगह जेल से कम नहीं दिखती। यह अलग बात है कि
ब्युरो आफ इमिग्रेशन के अधिकारी इस बात को खारिज करते हैं और इसके लिए एक नया नाम
गढ़ते दिखते हैं कि वह डिटेन्शन सेन्टर नहीं है बल्कि मूवमेण्ट रिस्टिक्शन सेन्टर है
अर्थात गतिविधि सीमित रखने का केन्द्र है. याद रहे देश के तमाम पत्रकार, सामाजिक एवं
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने डिटेन्शन सेन्टर को लेकर दो किस्म के सवाल खड़े करते
रहे हैं। पहला सवाल इसी के बहाने किस तरह मानवाधिकारों के सरासर उल्लंघन को सुगम
किया जा रहा है। अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल ने नवम्बर
2018 को जारी अपनी रिपोर्ट बिटविन फीयर एण्ड हेटेड, सर्वाइविंग माइग्रेशन डिटेन्शन
इन असम, जिसे उन्होंने वकीलों, पत्रकारों, अकादमिशियनों, जेलों में सक्रिय डॉक्टर्स तथा
पीडि़त या उनके परिवारवालों से बात करके तैयार किया था - में तमाम ऐसे विचलित
करनेवाले तथ्यों को पेश किया था। एमनेस्टी ने पाया था कि- जिन व्यक्तियों को विदेशी
घोषित किया गया है, उन्हें कितनी कालावधि तक हिरासत में रखा जाएगा इसके बारे में कोई
वैधानिक समयसीमा तय नहीं की गयी- दूसरे जिन व्यक्तियों को विदेशी घोषित किया जाता है उन्हें
आपराधिक जेलों में दोषसिद्ध लोगों एवं विचाराधीन कैदियों के बीच रखा जाता है. हिरासत के
हालात और उसकी परिस्थितियों से व्यक्तियों के मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य पर
नकारात्मक असर पड़ता है, विदेशी टिब्युनल, जो नागरिकत्व के मामलों पर फैसला सुनाते
हैं वह अनियमित विदेशियों को चिन्हित करने के लिए दोषपूर्ण प्रक्रियाओं का इस्तेमाल करते
हैं। और इन्हीं के चलते सरकार से यह मांग की थी कि वह इन टिब्युनलों द्वारा विदेशी
घोषित किए गए लोगों के मानवाधिकारों के उल्लंघन को समाप्त करे तथा जहां तक संभव हो
डिटेन्शन के गैरहिरासती विकल्पों पर सोचे।दूसरे श्रेणी के सवाल डिटेन्शन सेन्टर
निर्माण के कानूनी आधारों को समझने से सम्बधित हैं।
सिटिजन्स फार जस्टिस एण्ड पीस की सुश्री तीस्ता सितलवाड, जिनके सहयोगी असम के कई हिस्सों में
राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर से बाहर कर दिए गए लोगों को कानूनी सहायता देने की
मुहिम में मुब्तिला हैं पूछती हैं कि क्या इनके निर्माण के लिए कोई विधायी प्रक्रिया चलायी
गयी है। अगर वह इसके लिए फॉरेनर्स एक्ट 1946 को इस्तेमाल कर रहे हैं तो आप पाएंगे कि इस
अधिनियमध्एक्ट का सेक्शन 3 बताता है कि विदेशियों को गिरफतार किया जा सकता है,
हिरासत में रखा जा सकता है या सीमित रखा जा सकता है य मगर कहीं भी यह कानून इसके लिए
डिटेन्शन सेन्टर की बात नहीं करता।श्श् वह आगे बताती हैं कि उन्होंने असम के छह जिलों
में बने ऐसे डिटेन्शन सेन्टर्स का अध्ययन किया है, इन सेन्टर्स में ठूंस दिए गए लोगों के
परिवारजनों से बात की है और यही पाया है कि यहां की स्थितियां अमानवीय हैं। दरअसल
सरकार की तरफ से इस मामले में इतनी बदहवासी दिखायी जा रही है कि उसने इस पहलू पर भी
अभी गौर करना मुनासिब नहीं समझा है कि नागरिकता सम्बन्धी दस्तावेजों में कमी के चलते
डिटेन्शन सेन्टर में रखे गए लोग- जिनमें से असम के सभी डिटेन्शन सेन्टर वहां के जेलों
का ही हिस्सा हैं- दोषसिद्ध नागरिकों से भी दोयम दर्जे पर स्थित हैं। वजह यही है कि दोषसिद्ध लोगों को
कम से कम कभी पैरोल पर रिहा किया जा सकता है, अगर परिवार में किसी की शादी हुई
या किसी मौत हुई तो चन्द दिनों के लिए अपने आत्मीयों के बीच भेजा जा सकता है, मगर अनागरिक
घोषित किए गए लोग इस सुविधा से भी महरूम हैं। यह अकारण नहीं कि ऐसे लोगों ने कई बार भूख
हड़तालें भी की हैं। एक तरफ जहां अनागरिक होने के चलते उन्हें पैरोल पर रिहा नहीं
किया जाता लेकिन चूंकि वह जेलों में ही बन्द हैं, इसलिए उन्हें हथकड़ी लगाने से गुरेज नहीं
होता। नवम्बर 2018 का किस्सा है, अनागरिक घोषित किए रतनचंद्र विश्वास - जो गोलपारा में
डिटेन्शन में थे तथा बीमार चल रहे थे-की एक तस्वीर सोशल मीडिया में वायरल हुई, जिसमें
उन्हें गोलपारा के सिविल अस्पताल में भरती किया गया था, मगर उनके हाथों में अभी भी
हथकड़ी पड़ी थी। इस मामले को लेकर जब शोर मचा तब उनकी इस हथकड़ी को हटाया गया। इन
संदिग्ध और घोषित विदेशियों को ऐसे डिटेन्शन सेन्टर्स में अनिश्चितकाल के लिए रखने के
सरकार के निर्णय की मुखालिफत करते हुए मानवाधिकार कार्यकर्ता हर्ष मंदर ने सर्वोच्च
न्यायालय में ध्सितम्बर 2018 में एक जनहित याचिका भी दाखिल की थी। मालूम हो कि राष्ट्रीय
मानवाधिकार आयोग के विशेष पर्यवेक्षक होने के नाते जनाब मंदर ने जनवरी 2018 में असम
के इन केन्द्रों का दौरा किया था और अपनी रिपोर्ट में इस विचलित करनेवाले निष्कर्ष को
साझा किया था कि उन्हें लगता है कि प्रतीक होता है हिरासत में रखे गए यह सभी अनागरिक अपनी
शेष जिन्दगी यहीं बीताएंगे।श् संविधान धारा 21 का उल्लेख करते हुए उन्होंने लिखा था कि
मानवीय गरिमा के अधिकार को, हिरासत में भी, कुचला नहीं जा सकता। और इसलिए यह कहना
मुनासिब होगा कि आम अपराधियों के साथ इन लोगों की हिरासत, जेल परिसरों में ही, जहां
उन्हें कानूनी नुमाइन्दगी या परिवार के साथ सम्वाद का भी अधिकार न हो, खुल्लमखुल्ला इस
अधिकार का उल्लंघन है। ध्यान रहे कि भारत में ऐसी संदिग्ध नागरिकता को लेकर अक्सर
बांगलादेश का नाम लिया जाता है। अब जब भारत और बांगलादेश में ऐसा कोई
औपचारिक करार नहीं है कि जिन्हें भारत विदेशी समझे उन्हें बांगलादेश भेजा जाए तो
ऐसे तमाम लोगों का अधर में लटके रहना लाजिमी है।इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए कि जब
जब राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर की बात होती है या जब भाजपा के अध्यक्ष और उनके
सहयोगी घुसपैठियों को भगाने की बात करते हैं तो यही सवाल पूछा जाता रहा है कि जब आप
बांगलादेश को खुद आश्वस्त कर चुके हैं कि यह सब भारत का आंतरिक मामला है- जबकि जनमानस
में इसी विमर्श को तवज्जो दी जाती रही है-जो अवैध प्रवासी हैं वह दरअसल बांगलादेशी हैं। अन्त में,
इस बात को मददेनजर रखते हुए कि असम में नेशनल रजिस्टर आफ सिटिजन्स बनाने के सिलसिले
का एक चरण पूरा हो गया है और घुसपैठियों और अवैध प्रवासियोंश् को भगाने के
नाम पर इसी किस्म का सिलसिला देश के बाकी हिस्सों में भी चलाने की बात हो रही है, तथा जिस
बात के फायदे भी सत्ताधारी पार्टी को दिख रहे हैं, यह सोचना मासूमियत की पराकाष्ठा होगी
कि यह किस्सा यहीं समाप्त होगा, भले ही कितनी भी मानवीय त्रासदियां हमारे सामने आती रहें।
दरअसल हमें नहीं भूलना चाहिए कि नागरिकों की शुद्धता की कवायदें और अंधराष्ट्रवाद वह खाद
पानी होते हैं जिन पर दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी विचार मजबूती पाता है। जैसा कि देवर्षी दास- जो
आई आई टी गुवाहाटी में प्रोफेसर हैं- बताते हैं कि विगत कुछ सालों से चली ऐसी कवायदों
सें - फिर चाहे आधार हो, नोटबंदी हो या नेशनल रजिस्टर आफ सिटिजन्स को अपडेट
करने का सवाल हो- हम गुजरे हैं, जिनमें एक साझापन है। वह हमें एक झटका देती हैं और
राज्य के साथ हमारे अपने रिश्ते की याद दिलाती है। हालांकि वह इस रिश्ते को सर के बल
खड़ा करती हैरू इस तरह इसके बजाय कि लोग राज्य को वैधता प्रदान करे, मामला उलट जाता
है। अब लोगों को चाहिए होता है कि वह राज्य के सामने झुके और अपने लिए वैधता हासिल
करे। एक दमदार, दखलंदाजी करनेवाला राज्य भाजपा का सहयोगी होता है, इसमें क्या आश्चर्य
!