नफरत और ग्लानि के बीच झूलता किशोर न्याय

आज मैं एक अस्पताल में हूं। जहां 13 साल की एक बालिका का उच्च न्यायालय के आदेश से
गर्भपात कराया जा रहा है। बालिका के माता-पिता को उसके दो माह से गर्भवती होने की
जानकारी तब हुई, जब परिजन बालिका के पेट-दर्द की शिकायत लेकर डॉक्टर के पास
पहुंचे। थाने में मुकदमा दर्ज हुआ और तब यह बात सामने आई कि बालिका के सगे मामा ने ही
उसका बलात्कार किया है। मैंने अस्पताल में ही इस अपराध का अपना विश्लेषण किया और
सोचा कि रिश्ते को तार-तार करने वाले इस व्यक्ति को तो फांसी ही दी जानी चाहिए। बाद में
पता चला कि वह आरोपी तो नाबालिग है। हम भावावेश में कितना बह जाते हैं कि अक्सर बिना
कुछ जाने, बिना कुछ समझे सिर्फ कुछ बातें सुनकर निर्णायक बन बैठते हैं। मैं अपराध की
शिकार बच्ची और आरोपी बच्चे से अब तक नहीं मिल पाया था, मुझे घटना की पुख्ता
जानकारी भी नहीं थी, लेकिन मेरे मन में अपराधी को फांसी देने की बात उठने लगी थी।
मेरे मन में एक सवाल यह भी था कि आखिर उस बालिका के साथ इतना कुछ घटित हुआ तो उसके
परिवार को इसकी खबर तक कैसे नहीं हुई? परिवार अपने ही बच्चों को समझने में इतना विफल
क्यों हो रहे हैं? क्यों बच्चों के साथ पालकों की बातचीत नहीं होती? क्यों बच्चे अपने आपको
इतना अकेला समझ रहे हैं कि वे अपने ही माता-पिता से इतनी गंभीर बात तक साझा नहीं
करते? उस बालिका की मनोदशा क्या रही होगी जो इस स्थिति से निपट अकेली जूझ रही थी
और उसे समझने वाला कोई भी नहीं था? इसी के साथ यह सवाल भी उठता है कि आखिर बच्चों के
लिये कौन-सी जगह सुरक्षित है? कुछ महीनों बाद मुझे कानून का उल्लंघन करने वाले बच्चों से
संप्रेक्षण गृह में मिलकर उस मनोदशा को समझने का मौका मिला जिससे बच्चे अपराध की
दुनिया में चले जाते हैं। उन बच्चों के साथ वहां क्या होता है? क्या वे बच्चे सुधार की ओर
अग्रसर होते हैं? उन बच्चों को समाज कैसे स्वीकार करता है? संप्रेक्षण गृह में मेरी
मुलाकात एक ऐसे बालक से हुई जो दिन भर रोता रहता था। बहुत कम बात करने और अपने
में ही खोये रहने वाले इस बालक से बातचीत शुरू हुई तो पता चला कि वह इधर-उधर की बात तो
बहुत करता था, लेकिन घटना के बारे में पूछते ही रो पड़ता था। एक दिन उसने कहा कि आप
मेरे बारे में जान जाओगे, तो मुझसे नफरत करने लगोगे। धीरे-धीरे पता चला कि उस
पर जिसके बलात्कार का आरोप है, वह कोई और नहीं उसी की भांजी थी। मेरे सामने
पूरी घटना, किसी फिल्म की तरह चलने लगी। मैं लगभग चार माह बाद उस लड़के से मिल रहा
था जिसके लिए मैंने फांसी मांगी थी। बच्ची के साथ जबरदस्ती करने का पूछने पर उसने
मासूमियत से कहा कि नहीं! मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई। उसने तो अपने कपड़े खुद उतारे थे।
उसने यह जरूर बताया कि मैंने घटना के कुछ देर पहले पोर्न मूवी देखी थी। उस समय घर
पर कोई भी नहीं था, मैंने उससे कहा और वह भी मान गई। मुझे दो माह बाद पता चला कि वह


गर्भ से है। मैं उस बच्ची से नहीं मिल पाया, पर इस पूरी घटना से मुझे एक बात स्पष्ट रूप से
समझ आई कि दोनों की शारीरिक संबंधों को लेकर कोई समझ नहीं थी।
एक तरफ दोषी बालक था तो दूसरी तरफ वह बच्ची जो अकेले ही तरह-तरह के सामाजिक,
पारिवारिक, आर्थिक-दबावों को झेल रही थी। ऐसे में क्या हम इस बीमारी का सही इलाज
कर पा रहे हैं? क्या इस घटना के पीछे उन दोनों बच्चों का परिवार भी दोषी नहीं है?
क्या इस पूरी प्रक्रिया में राज्य और सरकार की लाचारगी सामने नहीं आती है? राज्य
ने किशोर न्याय (बालकों की देख-रेख और संरक्षण) अधिनियम-2015 (जेजेएक्ट) बच्चों को
पुनरू समाज में शामिल करने और सकारात्मक भूमिका निभाने के उपाय के तौर पर
बनाया था, लेकिन इसके तहत बालमित्र विधि के रूप में स्थापित प्रक्रिया का उल्लंघन करते हुए
बच्चों को ऐसे संप्रेक्षण गृह भेज दिया जाता है जिसे वे खुद जेल मानते हैं। जाहिर है,
संप्रेक्षण गृह की बदहाल परिस्थितियों में बच्चों को काउंसलिंग का सकारात्मक पहलू नहीं दिखता,
उल्टे उनके बाल मन में एक अलग तरह की कुंठा जन्म लेने लगती है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड
ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार 2012 में 38,172 नाबालिग बच्चियां दुष्कर्म का शिकार
हुई थीं और 2016 में यह आंकड़ा बढ़कर 64,138 हो गया था। ये आंकड़े इस बात की पुष्टि करते
हैं कि 2012 में बने बाल यौन अपराध संरक्षण अधिनियम (पोक्सो) से बाल लैंगिक शोषण की
घटनाओं में कोई कमी नहीं आई है। इसी संदर्भ में कुछ और सवाल हैं, जिनके हल खोजा जाना
जरुरी है। मसलन-यदि कोई नाबालिग कानून का उल्लंघन करता है तो फिर हमारे पूरे तंत्र
में उस बच्चे के लिए क्या जगह है? समाज तो एक झटके में बलात्कारी को फांसी की सजा दिए
जाने की मांग पर आमादा हो जाता है, लेकिन यदि कोई बच्चा आत्मग्लानि से भर रहा है और
सुधार की ओर जाना चाहता है तो उसके लिए हमारी क्या तैयारी है? क्या हम उस बच्चे को
एक मौका और देने के लिए तैयार हैं? किशोर न्याय की तो बुनियादी शर्त भी यही है कि बच्चे
को सुधरने का एक मौका और दिया जाना चाहिये। जेजेएक्ट भी बच्चे को निर्दोष मानकर
कार्यवाही शुरु करता है। सजा की पूरी व्यवस्था सुधार के सिद्धांत पर ही टिकी है।
हमारी नफरत और उस बच्चे की आत्मग्लानि के बीच किशोर न्याय झूल रहा है जिसके लिए
समाज को अपनी तैयारी करनी होगी।
( लेखक पत्रकारिता के विद्यार्थी हैं और सेफ सिटी यूथ फैलो हैं।)