नई चुनौतियों से रूबरू भाजपा

महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव नतीजों ने क्या मोदी के अपराजेय होने के मिथक को
तोड़ दिया है? राजनीतिक विश्लेषकों का एक वर्ग इसे इसी रूप में देखता है। लेफ्ट लिबरल
बिरादरी ऐसा फतवा जारी करने की बहुत जल्दी में है। ऐसे विश्लेषकों के मुताबिक
महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना के गठबंधन को बहुमत मिलना और हरियाणा में भाजपा
का एक बार फिर सबसे बड़ी पार्टी बनना लेकिन बहुमत से कुछ दूर रह जाना, मोदी की हार
है। हार-जीत के खेल में कोई हारता है तो कोई जीतता भी है। यदि मोदी हार गए तो जीता कौन? 54
सीटें पाने वाले शरद पवार या 31 सीटें पाने वाले भूपेंद्र सिंह हुड्डा? जाहिर है कि
ऐसे लोगों को तथ्यों से मतलब नहीं। बस कह दिया कि मोदी की हार हो गई या मोदी को हराया जा
सकता है तो बात खत्म।किसी भी घटना का विश्लेषण संदर्भ से काटकर नहीं किया जा सकता।
सवाल है कि इन दो राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजों का संदर्भ क्या है? संदर्भ यह है कि साल


2014 से पहले महाराष्ट्र में भाजपा चौथे और हरियाणा में तीसरे नंबर की पार्टी थी।
मोदी लहर और महाराष्ट्र की 15 साल, हरियाणा की 10 साल और केंद्र सरकार की 10 साल
की जबर्दस्त एंटी इन्कम्बेंसी के बूते दोनों राज्यों में वह पहले नंबर की पार्टी बन पाई। इस
चुनाव में पांच साल की एंटी इन्कम्बेंसी भाजपा के खिलाफ थी। उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती
नंबर एक की स्थिति बरकरार रखने और सत्ता में वापसी की थी। पार्टी ने दोनों लक्ष्य हासिल
कर लिए। दूसरी ओर पांच साल की एंटी इन्कम्बेंसी के बाद भी विपक्ष उसे पहले नंबर से हटा
नहीं पाया। यही नहीं, हरियाणा में भाजपा के वोट में तीन फीसदी की बढ़ोतरी हुई है।
महाराष्ट्र में जरूर दो फीसदी वोट की कमी आई, लेकिन यह ना भूलें कि पार्टी इस बार सौ
सीटें कम पर लड़ी थी। यदि यह विपक्ष की जीत और मोदी-शाह की हार है तो ऐसा सोचने वालों
की समझ की बलिहारी। ये ऐसे लोग हैं जो अपनों की गर्दन कटने का शोक मनाने की बजाय
विरोधी की उंगली कटने का जश्न मनाने में यकीन करते हैं। यह भी ध्यान रहे कि इन पांच
सालों में दोनों राज्यों में तीन बड़े आंदोलन हुए। इन दोनों राज्यों के चुनाव नतीजों को मोदी
की हार और विपक्ष की जीत के रूप में पेश किया जाना राजनीतिक विश्लेषण का नया
तरीका है। इसका सिलसिला गुजरात विधानसभा चुनाव के समय से शुरू हुआ था, जब स्पष्ट बहुमत
से जीतने वाली भाजपा को इसलिए पराजित घोषित कर दिया गया कि उसकी सीटें कुछ कम हो गईं
और पिछले करीब तीन दशक से सत्ता तक न पहुंच पाने वाली कांग्रेस को विजेता के रूप में
पेश किया गया।जनसंघ से भाजपा के राजनीतिक सफर में पार्टी जिस भी राज्य में पहली
बार सत्ता में आई, वह अगले चुनाव में वापसी नहीं कर सकी। वह चाहे 1977 में मध्य प्रदेश,
राजस्थान, दिल्ली और हिमाचल प्रदेश हो या फिर 1991 में उत्तर प्रदेश या 2008 में कर्नाटक
हो। गुजरात इस मामले में अब तक एकमात्र अपवाद था। उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ का जिक्र इसलिए
नहीं कि ये दोनों राज्य उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश का हिस्सा रह चुके हैं। इतना ही नहीं,
भाजपा संगठन की दृष्टि से भी इन राज्यों की महाराष्ट्र और हरियाणा से तुलना नहीं की जा
सकती। तो क्या इन दोनों राज्यों में भाजपा में कोई समस्या नहीं है। ऐसा कहना सच्चाई से
भागना होगा। दरअसल समस्या पुरानी है, लेकिन वह मोदी-शाह के युग में भी कम नहीं हो रही
है। भाजपा का एक विशेष गुण है। सत्ता में आते ही उसकी सरकार के मंत्री पहले अपने
कार्यकर्ताओं को नाराज करते हैं, फिर आम जनता को। इसके बाद चुनाव आते-आते दोनों
मिलकर पार्टी को हराते हैं। मोदी-शाह के युग में फर्क इतना हुआ है कि यह नुकसान अब
मंत्रियों तक सीमित हो गया है। दोनों राज्यों में हारने वाले मंत्रियों की संख्या और पार्टी
की कम हुई सीटों की संख्या गिन लीजिए तो बात समझ में आ जाएगी। मतलब यह कि जितने मंत्री, लगभग
उतनी सीटें हारना तो तय है। यह नतीजा है उस सोच का जो मानती है मोदी नाम केवलम यानी हम
मंत्री बन गए तो अब जनता ठेंगे पर। मोदी जी तो चुनाव जिताने के लिए हैं ही।जब यह सोच 15 साल
(मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़) से चल रही हो तो मोदी-शाह के लिए भी कठिन हो जाता है। इसी तरह
यदि पांच साल में लुटिया डुबोने वाली वसुंधरा राजे सिधिया हों तो मोदी-शाह के लिए रफू
करना और कठिन हो जाता है। मतादाता ने ऐसे नेताओं को संदेश दिया है कि भरोसा मोदी-
शाह पर है, आप पर नहीं। ऐसे में देवेंद्र फडणवीस और मनोहरलाल खट्टर की जीत की अहमियत
और बढ़ जाती है। पार्टी के लिए भी संदेश है कि मंत्री काम करने के लिए होते हैं, ऐशो-
आराम के लिए नहीं। भाजपा के लिए इन दो राज्यों के जनादेश का यह भी संदेश है कि जब बात
मोदी की हो तो मतदाता मुकाबले में खड़े किसी नेता पर भरोसा नहीं करता, पर जब मनोहरलाल
खट्टर के सामने भूपेंद्र सिंह हुड्डा हों और देवेंद्र फडणवीस के सामने शरद पवार हों तो
मुकाबला वैसा एकतरफा नहीं रहता। यह मोदी पर भरोसे का ही नतीजा है कि पवार और
हुड्डा सारी ताकत लगाकर भी जीत के करीब भी नहीं पहुंच पाए। भाजपा के राजनीतिक
विस्तार के रास्ते की बाधा केवल सामाजिक संतुलन को साधने और उसे मजबूत बनाने की ही


नहीं है। कुछ सहयोगी भी हैं। इसमें शिवसेना का नाम सबसे ऊपर है। शिवसेना एक ऐसी
पार्टी है जो सत्तारूढ़ और विरोधी दल की भूमिका एक साथ चाहती है। वह भीख भी मांगती है और
गाली भी देती है। उसे जो मिलता है, उससे वह कभी संतुष्ट नहीं होती। चुनाव में अपने खराब प्रदर्शन
से वह परेशान नहीं होती। उसके वोट भाजपा से ज्यादा घटे और उसकी स्ट्राइक रेट भी
भाजपा से खराब है। शिवसेना को भाजपा से लगभग आधी सीटें मिली हैं, फिर भी उसे ढाई
साल के लिए मुख्यमंत्री पद चाहिए। उसकी समस्या यह है कि लंबे समय तक देने वाली पार्टी से अब वह
मांगने वाली पार्टी हो गई है। यह बात उसे हजम नहीं हो रही है। शिवसेना के साथ गठबंधन में
विधानसभा चुनाव लडऩा भाजपा की रणनीतिक भूल थी जिसका खामियाजा वह भुगत रही है। अब
देखना यह है कि भाजपा 2014 की तरह अपने रुख पर कायम रहती है या शिवसेना की ब्लैकमेलिंग
के आगे झुक जाती है? महाराष्ट्र के बाद अगला मोर्चा बिहार में खुलेगा। भाजपा
शिवसेना के आगे झुकी तो उसे बिहार में जनता दल यूनाइटेड के सामने भी झुकना
पड़ेगा। आखिर जब शिवसेना पांच महीने में ही भूल गई कि लोकसभा में उसे जो सीटें मिलीं,
वे उद्धव ठाकरे के नहीं मोदी के नाम पर मिली हैं तो जनता दल यूनाइटेड क्यों याद रखेगा?