नदी संरक्षण के अधूरे कदम

कुम्भ मेले के दौरान केंद्र सरकार ने टिहरी बांध से पानी अधिक मात्रा में छोड़ा था
जिससे प्रयागराज में पानी की मात्रा एवं गुणवत्ता दोनों में सुधार हुआ था। इस कदम के लिए
सरकार को साधुवाद। अधिक पानी आने से प्रदूषण का घनत्व कम हो गया और तीर्थ यात्रियों
को पूर्व की तुलना में अच्छा पानी उपलब्ध हुआ। लेकिन कुम्भ मेले के बाद परिस्थिति पुनरू
पुराने चाल पर आ गई दिखती है। उद्योगों और नगरपालिकाओं से गन्दा पानी गंगा में अभी भी
छोड़ा ही जा रहा है यद्यपि मात्रा में कुछ कमी आई हो सकती है। देश की नदियों को स्थायी रूप
से साफ करने के लिए हमें दूसरी रणनीति अपनानी पड़ेगी। पर्यावरण मंत्रालय ने कुछ
वर्ष पहले आईआईटी के समूह को गंगा नदी के संरक्षण का प्लान बनाने का कार्य किया
था। आईआईटी ने कहा था कि उद्योगों पर प्रतिबंध लगा दिया जाए कि वे एक बूंद प्रदूषित पानी भी
बाहर नहीं छोड़ेंगे। जितने पानी की उन्हें जरूरत है, उतना लेंगे और उसे साफ कर बार-
बार उपयोग करते रहेंगे जब तक वह पूर्णतया समाप्त न हो जाए अथवा जब तक उसका पूर्ण
वाष्पीकरण न हो जाए। ऐसा करने से नदियों में उनके द्वारा गंदे पानी को छोडऩा
पूर्णतया बंद हो जाएगा। जब गंदे पानी को बाहर ले जाने के लिए नाला या पाइप ही बंद कर
दिया जाएगा तो फिर प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के कर्मियों की मिलीभगत से किसी भी नदी में गन्दा
पानी डालने का अवसर इन्हें नहीं मिलेगा। इस कार्य में बाधा यह है कि प्रदूषित पानी का
पुनरुपयोग करने के लिए उसे साफ करना पड़ेगा जिससे उद्योगों की लागत में वृद्धि होगी। समस्या
यह है कि यदि केवल गंगा के क्षेत्र में रहने वाले उद्योगों पर यह प्रतिबन्ध लगाया जाए तो गंगा
के आसपास के क्षेत्रों में उद्योगों की लागत ज्यादा होगी जबकि दूसरी नदियों के पास लगे हुए
उद्योगों को पूर्ववत गन्दा पानी नदी में डालने की अनुमति होगी। उनपर पानी का पूर्ण उपयोग
करने का प्रतिबन्ध नहीं होगा। इसलिए यह सुझाव इस सुझाव को देश की सभी नदियों पर लगा
देना चाहिए। सभी क्षेत्रों में कागज, चीनी, चमड़े इत्यादि के प्रदूषण करने वाले उद्योगों को
पानी का पुन:पयोग करना जरूरी बना देना चाहिए। तब सभी की उत्पादन लागत एक ही स्तर से
बढ़ेगी। तब किसी नदी विशेष के क्षेत्र में लगने वाले उद्योगों मात्र को नुकसान नहीं होगा। इस
सुझाव को लागू न करने के पीछे प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों का भ्रष्टाचार है। जब तक
उद्योगों को प्रदूषित पानी को साफ करके नदी में छोडऩे का अधिकार रहता है तब तक प्रदूषण
नियंत्रण बोर्ड के अधिकारियों को घूस खाने का अवसर रहता है क्योंकि उन्हें ही जांच
करनी होती है कि छोड़े गए पानी में प्रदूषण है अथवा नहीं। अपने भ्रष्टाचार के इस अधिकार को
बोर्ड के अधिकारी छोडऩा नहीं चाहते इसलिए वह शून्य तरल निकास के आईआईटी के सिद्धांत
को लागू नहीं करना चाहते हैं। उनके दबाव में सरकार इस सख्त कदम को उठाने से डर रही
है। नदियों के प्रदूषण का दूसरा हिस्सा नगरपालिकाओं द्वारा छोड़े गए गंदे पानी का है।
यहां भी आईआईटी का मूल कहना था कि किसी भी नगरपालिका द्वारा प्रदूषित पानी को
साफ करके नदी में नहीं छोडऩा चाहिए। पानी को साफ करने के कई स्तर होते हैं। प्रदूषित
पानी को न्यून स्तर पर साफ करके सिंचाई के लिए उपयोग कर लेना चाहिए। इस पानी का
नहाने इत्यादि के लिए दुबारा उपयोग हो सके उतना साफ करना जरूरी नहीं है। अभी तक की
पालिसी है कि केंद्र सरकार द्वारा नगरपालिकाओं को प्रदूषण नियंत्रण संयंत्र लगाने
के लिए पूंजी उपलब्ध कराई जाती है। नगरपालिकाओं के लिए यह लाभप्रद होता है कि इस पूंजी
को लेकर वे बड़े-बड़े संयंत्र लगाएं और संयंत्र लगाने में भ्रष्टाचार से लाभान्वित हों।
इसके बाद संयंत्र चलाने में उनकी रुचि नहीं होती है क्योंकि नगरपालिका के प्रमुख के सामने
प्रश्न होता है कि उपलब्ध धन का उपयोग वे सड़क पर बिजली देने के लिए करेंगे अथवा प्रदूषण
नियंत्रण संयंत्र को चलाने के लिए। ऐसे में वे जनता को तत्काल राहत प्रदान करने के लिए
सड़क पर बिजली जैसे कार्य में खर्च करना चाहते हैं और प्रदूषण नियंत्रण में खर्च नहीं
करना चाहते हैं।


इस समस्या का सरकार ने उपाय यह निकला है की नगरपालिकाओं को संयंत्र लगाने के लिए
पूंजी देने के स्थान पर उन्होंने उस पूंजी को निजी उद्यमियों को देने का प्लान बनाया है। इन
उद्यमियों को पूंजी का 40 प्रतिशत हिस्सा तत्काल उपलब्ध करा दिया जाता है और शेष 60 प्रतिशत
हिस्सा तब दिया जायेगा जब वे इन संयंत्रों को सफलतापूर्वक कई वर्ष तक चलाते रहेंगे। जैसे
आने वाले दस वर्षों में प्रतिवर्ष पूंजी का 6 प्रतिशत हिस्सा दे दिया जाए तो दस वर्षों तक संयंत्र को
सुचारू रूप से चलाने से उद्यमी को शेष 60 प्रतिशत पूंजी भी मिल जायेगी। यद्यपि यह प्लान पूर्व
की तुलना में उत्तम है परन्तु इसमें भी कार्यान्वयन की समस्या पूर्ववत रहती है। मान लीजिये
उद्यमी ने संयंत्र लगाया और उसे यदाकदा चलाया तो भी यह माना जाएगा कि वह संयंत्र चल रहा
है। बाद में दी जाने वाली 60 प्रतिशत पूंजी भी उन्हें मिलती रहेगी यद्यपि वास्तव में संयंत्र पूरी
तरह से नहीं चल रहा है। कारण यह है कि संयंत्र लगातार चल रहा है या नहीं, इसकी जांच
पुनरू उन्हीं भ्रष्ट प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के कर्मियों द्वारा की जायेगी जो आज तक इस कार्य
को संपन्न करने में असफल रहे हैं। सरकार को चाहिए कि नगरपालिकाओं के लिए दूसरा
प्लान बनाएं। जैसे इस समय देश में राष्ट्रीय बिजली की ग्रिड है जिसमें निजी बिजली निर्माता
बिजली बना कर उसमें डालते हैं और बिजली को बेचते हैं। इसी प्रकार सरकार द्वारा
साफ किये गए प्रदूषित पानी का ग्रिड बनाया जा सकता है। जिस प्रकार बिजली बोर्ड निजी
उत्पादकों से बिजली खरीदने के समझौते करते हैं, उसी प्रकार उद्योग इस ग्रिड से साफ किये गए
पानी को खरीदने के समझौते कर सकते हैं। केंद्र सरकार साफ किये गए पानी को खरीदकर
किसानों को उपलब्ध कराने के समझौते कर सकती है। तब उद्यमियों के लिए लाभप्रद हो जाएगा कि
प्रदूषित पानी को साफ कर वे अधिकाधिक मात्रा में सरकार को बेचे और सरकार को लाभ
होगा कि वास्तव में पानी की सफाई होने पर ही सरकार को धन उपलब्ध करना होगा। उद्यमियों
को पूंजी निवेश के लिए रुपया भी नहीं देना होगा जैसे वर्तमान में बिजली संयंत्रों को देने की
जरूरत नहीं होती है। वर्तमान में मुंबई और नागपुर जैसे शहरों में उद्योगों द्वारा
नगरपालिका से गन्दा पानी खरीदकर उसे साफ कर अपने कार्य में लिया जाता है। अतरू साफ
किया गए पानी का एक राष्ट्रीय बाजार बन सकता है और जिसके लिए उद्योग पर्याप्त धन का
निवेश करने को तैयार होंगे। हमें अपनी नदियों को साफ रखने के लिए नई रणनीति को
बनाना होगा अन्यथा हमारी नदियां साफ नहीं होंगी।