दिल्ली सरकार ने हाल ही में मजदूरों के हक में एक महत्वपूर्ण फैसला करते हुए, अपने राज्य
में न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने की अधिसूचना जारी की है। इससे कुशल, अकुशल और अर्धकुशल
मजदूरों को मिलने वाली न्यूनतम मजदूरी में तकरीबन 11 फीसदी का इजाफा हो गया है।
सरकार के इस अकेले कदम से अब राज्य में मजदूरों को बढ़ी हुई मजदूरी मिल सकेगी।
अकुशल श्रेणी में राष्ट्रीय न्यूनतम मजदूरी फिलवक्त 4628 रुपये प्रति महीने है, जबकि दिल्ली में यह
अब 14,842 रुपये प्रति महीने यानी रोजाना 571 रुपए हो गई है। अद्र्धकुशल श्रेणी में 16,341
रुपये प्रति महीने (629 रुपये रोजाना) की मजदूरी तय की गई है। जबकि कुशल श्रेणी में
मजदूरों को 17,991 रुपये प्रति महीने (692 रुपये हर रोज) मिला करेंगे। इसी तरह से ऑफिस
में और सुपरवाइजरी स्टाफ के रूप में काम करने वालों के न्यूनतम वेतन में भी इजाफा
किया गया है। दसवीं से कम पढ़े-लिखे लोगों को 16,341 रुपये हर महीने मिलेंगे। दसवीं पास लेकिन
ग्रेजुएशन से कम पढ़ाई करने वालों को 17991 और ग्रेजुएट को 19572 रुपये का वेतन
मिलेगा। इस लिहाज से देखें, तो दिल्ली सबसे ज्यादा न्यूनतम मजदूरी देने वाला राज्य बन गया है।
इससे दिल्ली के 55 लाख संगठित और गैर-संगठित क्षेत्र में काम करने वाले मजदूरों को फायदा
होगा। बढ़ती महंगाई के इस दौर में गरीब मजदूरों का वेतन बढ़ाकर, केजरीवाल
सरकार ने सचमुच उन्हें एक बड़ी राहत प्रदान की है। न्यूनतम मजदूरी बढऩे से न सिर्फ मजदूरों
की गरीबी मिटेगी, बल्कि अर्थव्यवस्था में जो मंदी आई हुई है, उसमें भी कमी आएगी। बाजार
में पैसा आएगा, तो मांग बढ़ेगी। लोगों को नया रोजगार मिलेगा। जिसका असर पूरी
अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा।
मजदूरों को बढ़ी हुई न्यूनतम मजदूरी मिले, इसके लिए दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार कई
दिनों से कोशिश और संघर्ष कर रही थी। आज से साढ़े तीन साल पहले अप्रैल, 2016 में
सरकार ने मजदूरों, कई ट्रेडों और उद्योग संघों के सदस्यों के साथ एक न्यूनतम मजदूरी समिति
बनाई। जिसे राज्य के उपराज्यपाल ने इस आधार पर खारिज कर दिया कि समिति बगैर
उसके इजाजत के बनी है। बहरहाल उपराज्यपाल से इजाजत लेकर एक बार फि र यह कमेटी
बनी और उसकी सिफारिशों को सरकार ने राज्य में लागू कर दिया। लेकिन राह इतनी
आसान नहीं थी। इन सिफारिशों के खिलाफ व्यापार और उद्योग संघ ने दिल्ली हाई कोर्ट में एक
याचिका दायर कर दी। हाई कोर्ट ने याचिका पर सुनवाई करते हुए, अधिसूचना को यह
कहकर खारिज कर दिया कि श्सरकार ने जल्दबाजी में यह फैसला लिया है। अधिसूचना जारी
करने से पहले नियोक्ता और कर्मचारियों की राय नहीं ली गई, जो कि संविधान का उल्लंघन
है। इसके बाद मामला, सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा। जहां सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली सरकार को
अंतरिम राहत प्रदान करते हुए, निर्देश दिया कि वह इस दौरान न्यूनतम मजदूरी बोर्ड का
पुनर्गठन करे और नई दरों को तय करने के लिए अपनी पद्धति को संशोधित करे। अदालत के इस
निर्देश के बाद सरकार ने नवंबर, 2018 में फिर से न्यूनतम मजदूरी बोर्ड का गठन किया
और न्यूनतम मजदूरी को अंतिम रूप दिया। सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली सरकार के इस प्रस्ताव को
स्वीकार कर लिया। नियोक्ताओं द्वारा उठाए गए सभी एतराजों को अदालत ने यह कहकर
खारिज कर दिया कि सरकार द्वारा न्यूनतम मजदूरी में बढ़ोतरी सही है। न्यूनतम मजदूरी
सलाहकार समिति द्वारा जनवरी, 2019 में तय किए गए नए न्यूनतम मजदूरी अधिसूचना को राज्य में
लागू किया जाए। जाहिर है कि सर्वोच्च न्यायालय के इस आदेश के बाद, मजदूरी में बढ़ोतरी
की राह आसान हो गई।
दिल्ली सरकार ने भले ही अपने राज्य में न्यूनतम मजदूरी नीति लागू कर दी हो, लेकिन इस नीति
का जमीनी स्तर पर कार्यान्वयन, आसान काम नहीं है। क्योंकि, ज्यादातर ठेकेदार और
नियोक्ताओं की कोशिश होती है कि कम से कम मजदूरी में उन्हें मजदूर मिलें। जिससे वे ज्यादा
मुनाफा कमा सकें। सरकार को भी इस बात का अच्छी तरह से अहसास है। लिहाजा उसने
अधिसूचना जारी करते हुए स्पष्ट किया है कि किसी ठेकेदार ने अपने कर्मचारियों को
नियमानुसार मजदूरी नहीं दी, तो उस पर सख्त कार्रवाई की जाएगी। इसमें जुर्माना लगाने से
लेकर लाइसेंस रद्द करना तक शामिल है। सरकार ने अपनी नीति को अमलीजामा पहनाते हुए,
सरकारी एजेंसियों से जुड़े उन 1373 ठेकेदारों को हटा दिया है, जो मजदूरों को न्यूनतम
मजदूरी नहीं दे रहे थे। इसके अलावा सरकार ने न्यूनतम मजदूरी के उल्लंघन की शिकायतों
पर विशेष अभियान चलाया है और न्यूनतम मजदूरी न देने वाले 100 से ज्यादा लोगों पर
मामला दर्ज किया है। कई नियोक्ताओं के खिलाफ धोखाधड़ी के मामले भी दर्ज किए गए हैं।
बेरोजगारी और प्रतियोगिता की वजह से देश भर में मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी से कम पर
काम करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। खास तौर से असंगठित क्षेत्रों जैसे निर्माण और
खेती के कामों में मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती। उनका वेतन, उपभोक्ता मूल्य
सूचकांक से भी जुड़ा हुआ नहीं है। दूसरी ओर, देसी-विदेशी बड़े कारपोरेट घराने
लगातार मुनाफा बटोर रहे हैं। वे मजदूरों की संख्या में कमी कर, उनका वर्कलोड
बढ़ाकर, वेतन को कम या जाम करके तथा ठेकाकरण के माध्यम से श्रम की लागत को कम कर,
अपने मुनाफे को बनाये रखना चाहते हैं। साल 2016 से संयुक्त ट्रेड यूनियन आंदोलन
मजदूरों के लिए 18,000 रुपये प्रति माह के न्यूनतम वेतन की मांग कर रहा है। यही नहीं उनकी
यह मांग भी है कि न्यूनतम वेतन को उपभोक्ता सूचकांक से जोड़ा जाए।
न्यूनतम वेतन के संदर्भ में भारतीय श्रम सम्मेलन की सिफारिशें और सुप्रीम कोर्ट के निर्देश
देश के सभी मजदूरों व कर्मचारियों के लिए एक जैसे हैं। मूल्य भी सभी के लिए एक समान हैं।
लेकिन केन्द्र की मौजूदा सरकार ने इन्हें लागू करने के बजाय न्यूनतम मजदूरी अधिनियम,
1948, वेतन भुगतान अधिनियम, 1936, बोनस भुगतान अधिनियम, 1965 और समान पारिश्रमिक अधिनियम,
1976श् को घालमेल कर एक नया कानून वेतन संहिता विधेयक, 2019 (कोड ऑन वेज बिल) बना
दिया है। वेतन संहिता विधेयक, न्यूनतम वेतन के निर्धारण को सरकार यानी केन्द्र सरकार
और राज्य सरकारों की मर्जी पर छोड़ देता है। इसमें एक न्यूनतम वेतन सलाहकार बोर्ड के
गठन का प्रावधान है। लेकिन इस बोर्ड की सिफारिशें, सरकार के लिए बाध्यकारी नहीं
हैं। यही नहीं श्वेतन संहिता विधेयकश्, न्यूनतम वेतन के निर्धारण के लिए आईएलसी की सर्वसम्मत
सिफारिशों और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के आधार को पूरी तरह से नजरअंदाज
करता है। वेतन के नियमित भुगतान समेत न्यूनतम वेतन को लागू कराने के संबंध में प्रावधानों
को इतना कमजोर कर दिया गया है कि अन्य सभी प्रावधान निरर्थक हो जाते हैं। पूर्ववर्ती वेतन
भुगतान अधिनियम, न्यूनतम वेतन अधिनियम, समान पारिश्रमिक अधिनियम और बोनस भुगतान अधिनियम
में जो भी ताकत थी, उसे इतना कमजोर कर दिया गया है कि कानून पर अमल का मामला ही खतम हो
जायेगा। नियोक्ता इतने ताकतवर हो जायेंगे कि अपनी मर्जी से वे कानून का उल्लंघन
करेंगे। इस कानून ने श्रम कानूनों के दायरे से वेतन निर्धारण को पूरी तरह से अलग
कर दिया है। न्यूनतम मजदूरी, किसी भी मजदूर या कर्मचारी का मौलिक अधिकार है। एक
कर्मचारी को न्यूनतम मजदूरी नहीं देना, कानूनन गलत है। न्यूनतम मजदूरी दिए बिना लोगों से
काम लेना, आपराधिक कृत्य है और इसके लिए न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 के तहत दंडात्मक
प्रावधान भी मौजूद हैं। दिल्ली हाई कोर्ट ने अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में न्यूनतम मजदूरी का
भुगतान नहीं करने को अनुचित और अक्षम्य करार देते हुए कहा था कि अपने कर्मचारियों को
न्यूनतम मजदूरी नहीं देने वाले उद्योगों को चालू रहने का कोई अधिकार नहीं है। बावजूद
इसके देश के कई राज्यों मेें मजदूरों और कामगारों को न्यूनतम मजदूरी नहीं मिलती।
अलग-अलग राज्यों में उन्हें अलग न्यूनतम मजदूरी मिलती है। पूरे देश में न्यूनतम मजदूरी एक
समान नहीं है। अनेक राज्यों में उन्हें बहुत कम न्यूनतम मजदूरी मिलती है। तो कहीं उनका वेतन,
उपभोक्ता मूल्य सूचकांक से भी कम है। मजदूरों और कामगारों की जिंदगी में बेहतरी लाने
के लिए जरूरी है कि उनकी न्यूनतम मजदूरी में बढ़ोतरी हो। उन्हें पूरे देश में एक समान
न्यूनतम मजदूरी मिले। जिससे वे महंगाई से अच्छी तरह से मुकाबला कर सकें। न्यूनतम मजदूरी
में इजाफा होगा, तो उनकी गरीबी भी कम होगी। गरीबी कम होगी, तो उनका जीवनस्तर भी
सुधरेगा।