महात्मा गांधी के 150वीं जयन्ती वर्ष में हमारे नये उत्तरदायित्व

जिन्होंने दो अक्टूबर को महात्मा गांधी की 150वीं जयंती सच्चे मन से मनाई है, उन भारतीयों ने
एक तरह से अपने लिए कुछ नई जिम्मेदारियों को आमंत्रित कर लिया है जिन्हें वे साझा व
सामूहिक तौर पर पूरा करने के लिए एक तरह से अनायास ही प्रतिबद्ध हो गये हैं। ये नये
उत्तरदायित्व न तो घोषित हैं न ही उन पर थोपे गये हैं। ये नैतिक हैं इसलिए स्वैच्छिक हैं। फिर
भी, इन्हें निभाना एक तरह से देश के प्रति अपनी नागरिक जिम्मेदारियों को पूरा करना तो
है ही, गांधी के प्रति उऋण होना भी है। नागरिकों के रूप में हमें जन्म से ही जैसे कुछ
अधिकार मिलते हैं वैसे ही पैदाइशी कुछ कर्तव्य भी होते हैं। सामान्य परिस्थितियों में तो आप
उन जिम्मेदारियों का सरसरी तौर पर निर्वहन न भी करें तो भी न आपका कुछ विशेष
बिगड़ता है न ही राज्य उसे बहुत गंभीरता से लेता है। समाज भी उदारतावश उसे नजरंदाज
कर देता है। फिर भी हर राष्ट्र-समाज में अक्सर ऐसे घटनाक्रम आते ही हैं जब विशिष्ट
हालात पैदा हो जाते हैं और नागरिक बोध के चलते उनके द्वारा कुछ नए-पुराने दायित्वों
का निर्वाह करना जरूरी हो जाता है। वैसे ही, जैसे अहिंसा को मानने वाले भी देश पर
आए संकट के चलते या नैतिकता के तकाजे पर हथियार उठा लेते हैं। कुछ ऐसी ही स्थिति भारत
की भी है। इनके चलते अब कुछ एकदम नई जिम्मेदारियां हैं, जो हाल के समय में हुए परिवर्तनों से
उठ खड़ी हुई हैं। इन दायित्वों को जानने से पूर्व उनकी पाश्र्वभूमि को जानना जरूरी है।
स्वतंत्रता के पूर्व नागरिक के तौर पर हमारे नागरिक दायित्व सीमित थे। हमारे
राष्ट्रवादी नेताओं ने आजादी का एजेंडा हमारे जीवन से स्टेपल कर दिया था। महात्मा
गांधी ने एक संप्रभु भारत के आर्थिक-सामाजिक जीवन का ब्यूप्रिंट बनाकर आजादी को एक
तरह से नागरिकों की अनिवार्यता बनाकर उन्हें श्करो या मरोश् का नारा दिया था।
1947 के तत्काल बाद की पीढ़ी ने गांधी मार्ग को पूरी तरह तो नहीं अपनाया लेकिन बापू के
कुछ सिद्धांतों को अपनाने के प्रयास तो हुए ही। स्वतंत्रता-समानता-बंधुत्व का एजेंडा देश और
नागरिक दोनों का ही था। यानी नागरिक मिलकर स्वतंत्रता, समानता व बंधुत्व के आधार पर
देश बनाएं और राज्य इसके अनुरूप नागरिकों में स्वतंत्रता-समानता-बंधुत्व की भावना
रचे। इसलिए इसके अनुकूल संविधान बनाया गया। समय के साथ देश की तासीर के अनुकूल इसके
धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को बनाए रखने की सांझी जिम्मेदारी राज्य, नागरिक व संविधान की हो
गई। अब बड़ा स्पष्ट तो यह हो गया है कि देश, प्रजा और संविधान का यह चरित्र बदलने की
कोशिश करने वाले ऐसे व्यक्तियों, विचारों और संगठनों का विरोध करना हमारी नई
जिम्मेदारी है। स्वतंत्रता-समानता-बंधुत्व की भावना से हटने वालों की खिलाफत करना आज का
हमारा स्पष्ट व प्रारंभिक कर्तव्य बन गया है। वे ताकतें जो देश के धर्मनिरपेक्ष चेहरे को


बिगाड़कर उसे एक धर्म के वर्चस्व वाले और बहुसंख्यकवादी समाज में बदलने को लालायित थीं (अब
भी हैं) लंबे अरसे तक संविधान की शक्ति से हाशिये पर थीं। वे नागरिकों की सजगता व
हमारे पूर्ववर्ती हुक्मरानों के लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष कामकाज के तौर-तरीकों से
लगातार पराजित होती रहीं लेकिन अंततरू हाल के वर्षों में नियामक तत्व बन गई हैं। यहीं से
हमारे नए उत्तरदायित्वों की शुरुआत हो जाती है। महात्मा गांधी सत्ता को हिंसा व अन्याय का
सबसे बड़ा स्रोत मानते थे इसलिए वे उसके पूर्ण विलोपन के पक्षधर थे। हालांकि उन्होंने जीते जी
महसूस कर लिया था कि इन्सानी जरूरतों के चलते ऐसा बहुत संभव नहीं लगता। इस करके उन्होंने
उच्चादर्शों का समझौता किया। उनका मानना था कि अगर मनुष्य कुछ कमतर आदर्शों को
पाने का भी प्रयास करे तो भी वह काफी बेहतरीन समाज रच सकता है। वैसे उनके इन आदर्शों
का भी आधार नैतिकता ही थी और संविधान निर्मित स्वतंत्रता-समानता-बंधुत्व की अवधारणा।
इसके ठीक विपरीत आप देखें तो किसी राज्य की बड़ी आबादी को बंधक बनाए रखने, आदिवासी
क्षेत्रों में लोगों को बेदखल करने तथा देश के सबसे कास्मोपोलिटन शहर में रात के
अंधेरे में सैकड़ों पेड़ काट डालने की जो घटनाएं हुई हैं वे राज्य से निकली हिंसक व
अहंकारी शक्ति के बल पर ही हुई हैं। इनमें लोगों की सहभागिता तो दूर, उनसे पूर्ववर्ती या
बाद में संवाद की आवश्यकता तक महसूस नहीं की गई। नोटबंदी, जीएसटी, एनआरसी, बैंकों के
विलीनीकरण जैसे अनेक उदाहरण हैं जिनमें संवाद व सहभागिता की शासक वर्ग द्वारा चिंता
ही नहीं की गई। ये निर्णय इस भावना के अंतर्गत लिए गए कि बहुमत मिलने के बाद सरकार जो
चाहे वह कर सकती है। यह कार्यप्रणाली नागरिकों की सारी नैसर्गिक स्वतंत्रता व अधिकारों
के हनन पर टिकी है क्योंकि सरकार से संवाद और निर्णय में सहभागिता लोकतंत्र का
आधार है। इस तरह की शासन पद्धति का विरोध करना भी गांधी के अनुयायी नागरिकों के
लोकतांत्रिक व नैतिक कर्तव्य हैं। इस समय बड़ी तेजी से ऐसा देश बनाने की कोशिशें हो रही
हैं जैसे कि वह किसी एक धर्म के मतावलंबियों का ही बसेरा हो सकता है। इसके खिलाफ लड़ते हुए
समानता और बंधुत्व भाव बनाए रखना भी आज का हमारा नागरिक कर्तव्य है।
हम पिछले कुछ समय से यह भी देख रहे हैं कि देश की सत्ता बेहद केंद्रीकृत हो रही है। न केवल
पूरी व्यवस्था एक पार्टी के भीतर सिमट रही है वरन पार्टी के भीतर भी पूरी शक्ति
कुछ ही हाथों में कैद है। यहां लगभग सभी दलों की बात हो रही है। नागरिक जिस भी पार्टी का
हो, अपने दल समेत सभी राजनैतिक संगठनों में संपूर्ण ताकत को कुछ हाथों में सौंपने का जमकर
विरोध करे। इस प्रवृत्ति को किसी पार्टी का आंतरिक मामला कहकर नहीं छोड़ा जा सकता।
सत्ता व राजनैतिक शक्ति के केंद्रीकरण के खिलाफ आवाज उठे क्योंकि इनका
विकेंद्रीकरण ही प्रजातंत्र की कुंजी है। इन दिनों यह सामान्य प्रवृत्ति भी साफ दृष्टिगोचर हो
रही है कि सरकार जवाबदेही से बच रही है। सरकार व राजनैतिक दलों की तानाशाही
का भरपूर प्रतिकार गांधी के हर अनुयायी का पुनीत कर्तव्य है और उन पर हाल के
वर्षों में इस दायित्व को निभाने का अतिरिक्त अवसर है। अधिनायकों को संसद के प्रति जवाबदेह
बनाना, उन्हें मीडिया व जनसामान्य के प्रति उत्तरदायी बनाए रखने का काम बापू
आखिरकार हमें ही सौंप गये हैं। इधर समाज में बढ़ती हिंसा की ओर ध्यान दिलाने वाले
बुद्धिजीवियों और सरकार की कमियों को रिपोर्ट करने वाले पत्रकारों पर होने
वाले मामले बताते हैं कि सरकारों को अपनी कमियां सुनना पसंद नहीं है। मामला यहीं तक नहीं
रुकता। सत्ता में बैठे कुछ लोग 2019 को देश का अंतिम चुनाव बतलाते रहे हैं, तो अब बिना
चुनाव लड़े ही अपनी सरकार बनाने का दावा भी किया जाने लगा है। संसदीय प्रणाली के
औचित्य पर भी सवाल उठाए जाते रहे हैं। इस गैरलोकतांत्रिक मानसिकता का प्रखर विरोध


करते रहना भी गांधी को आत्मसात करना होगा। सत्ता की नई प्रवृत्ति यह भी विकसित हुई है
कि हमारे जीवन के बुनियादी मुद्दे अर्थात रोजी, रोटी, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य से ध्यान
भटकाया जा रहा है और हमें उन पर्दे ढंके कमरों में हांका जा रहा है जो सरकार
की इन मोर्चों पर मिल रही नाकामियों को छिपाए। कारण है कि हमारी अर्थव्यवस्था चौपट
हो गई है, कृषि बदहाल है, उद्योगों का हाल खस्ता है, मंदी का साया है, बेरोजगारी बढ़ रही है।
श्देश में सब अच्छा हैश् की खुशफहमी फैलाई जा रही है। इस भ्रम को समाप्त करना व मनुष्य के
बुनियादी मसलों को लेकर सवाल करना महात्मा गांधी के 150वीं जयन्ती वर्ष के हमारे नये
उत्तरदायित्वों में अहम जगह पर है। इसी 2 अक्टूबर को हमने बड़ों-बड़ों को गांधी के आगे
झुकते देखा है। इसका अर्थ है कि अभी भी वे हमारे पक्ष में अन्याय के प्रतिरोध का एक सशक्त
उपकरण हैं। उनसे प्राप्त शक्ति व साहस बटोरकर नागरिक अपने नए दायित्वों का निर्वाह
करें! जो इन कर्तव्यों को न निभाएं, उन्हें 151वें वर्ष की जयंती पर गांधीजी की मूर्ति व चित्रों
पर माल्यार्पण तो दूर, पास फटकने का भी नैतिक अधिकार नहीं है।