जी हॉ देश की सर्वोच्च हाअस्त्र बना सूचना का अधिकार
प्रेम शर्माअदालत की महापीठ के इस फैसले ने सूचना अधिकार अधिनियम 2005 को
भ्रष्टाचार रोकने और पारदर्शिता लाने का महाअस्त्र बना दिया है। यह फैसला एक और
दृष्टि से इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है कि इस अधिनियम से मुक्त् िपाने की चालें चल रही और
दुहाई देने वाली राजनैतिक पार्टियों के सामने इस फैसले के आने के बाद एक ऐसी
लकीर बन चुकी है जिसे पार करना उन राजनैतिक दलों की गले की फॉस बन जाएगा जो
राजनैतिक दल अपने आप को सूचना का अधिकार अधिनियम से अलग रखना चाहते थे। महाखण्डपीठ ने
उच्चतम न्यायालय की के मुख्य न्यायाधीश कार्यालय को सूचना अधिकार अधिनियम के आधीन
लाकर इस बॉत को साबित कर दिया है कि कानून से ऊपर कोई नही है। देश की सबसे बड़ी
अदालत का यह फैसला पारदर्शी प्रशासन के पक्ष में एक बड़ी जीत है कि उच्चतम न्यायालय के
मुख्य न्यायाधीश का कार्यालय सूचना अधिकार कानून के अधीन होगा। उच्चतम न्यायलय की
संविधान पीठ के इस फैसले से स्पष्ट हो गया कि 2010 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह सही निर्णय दिया
था कि शीर्ष अदालत के मुख्य न्यायाधीश के कार्यालय को सूचना अधिकार कानून के तहत आना
चाहिए। यह निर्णय देते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने साफ किया था कि पारदर्शिता से न्यायिक
स्वतंत्रता प्रभावित नहीं होती, लेकिन उच्चतम न्यायालय के महासचिव इससे सहमत नहीं हुए और उन्होंने
इस फैसले को चुनौती दी। इसकी बड़ी वजह यही रही कि उच्चतम न्यायालय के तत्कालीन मुख्य
न्यायाधीश उच्च न्यायालय के आदेश से असहमत थे। इस असहमति के चलते एक तरह से खुद उच्चतम
न्यायालय मुकदमेबाजी में उलझा। इससे बचा जाता तो बेहतर होता, क्योंकि सूचना के
अधिकार को निजता के अधिकार में बाधक नहीं कहा जा सकता।यह अच्छा नहीं हुआ कि दिल्ली उच्च
न्यायालय के एक महत्वपूर्ण फैसले पर उच्चतम न्यायालय को मुहर लगाने में नौ साल लग गए।
देर से ही सही, इस मामले की सुनवाई कर रही संविधान पीठ इस निर्णय पर पहुंचना
स्वागतयोग्य है कि पारदर्शिता और उत्तरदायित्व का निर्वहन साथ-साथ किया जा सकता है। यह
उल्लेखनीय है कि इस पीठ में वर्तमान मुख्य न्यायाधीश के साथ-साथ वे तीन न्यायाधीश भी शामिल थे
जो भविष्य में उनके उत्तराधिकारी बनेगें।हालॉकि उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश
का कार्यालय कुछ शर्तो के साथ ही सूचना अधिकार कानून के दायरे में आएगा इसलिए यह
देखना होगा कि उससे क्या जानकारी हासिल की जा सकती है और क्या नहीं? यह आशा की
जानी चाहिए कि इस फैसले का असर कोलेजियम के कामकाज को भी पारदर्शी बनाएगा। आखिर
जब खुद उच्चतम न्यायालय यह मान चुका हो कि कोलेजियम व्यवस्था को दुरुस्त करने की जरूरत है तब
फिर उसके कामकाज को पारदर्शी बनाने की दिशा में आगे बढ़ा ही जाना चाहिए। उच्चतम
न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के कार्यालय को सूचना अधिकार कानून के तहत लाने वाला
फैसला यह एक जरूरी संदेश दे रहा है कि लोकतंत्र में कोई भी और यहां तक कि शीर्ष अदालत
के न्यायाधीश भी कानून से परे नहीं हो सकते। बेहतर हो कि इस संदेश को वे राजनीतिक दल
भी ग्रहण करें जो इस पर जोर दे रहे हैं कि उन्हें सूचना अधिकार कानून के दायरे में
लाना ठीक नहीं। यह व्यर्थ की दलील है। इसका कोई औचित्य नहीं कि राजनीतिक दल सूचना
अधिकार कानून से बाहर रहें। राजनीतिक दलों का यह रवैया लोकतंत्र के बुनियादी
सिद्धांतों के विरुद्ध है। प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोईं की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान
पीठ ने दिल्ली उच्च न्यायालय के 2010 के निर्णय को सही ठहराते हुये इसके खिलाफ उच्चतम
न्यायालय के सेोटरी जनरल और शीर्ष अदालत के केन्द्रीय सार्वजनिक सूचना अधिकारी की
अपील खारिज कर दी। यह व्यवस्था देते हुये संविधान पीठ ने आगाह किया कि सूचना के अधिकार
कानून का इस्तेमाल निगरानी रखने के हथियार के रूप में नहीं किया जा सकता है और
पारदर्शिता के मुद्दे पर विचार करते समय न्यायपालिका की स्वतंत्रता को ध्यान में रखना
चाहिए। यह निर्णय सुनाने वाली संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति एन वी रमण,
न्यायमूर्ति धनन्जय वाईं चन्द्रचूड़, न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूति संजीव खन्ना शामिल थे।
संविधान पीठ ने कहा कि कॉलेजियम द्वारा न्यायाधीश पद पर नियुक्ति के लिये की गयी
सिफारिश में सिर्फ न्यायाधीशों के नामों की जानकारी दी जा सकती है लेकिन इसके
कारणों की नहीं। हालाकि प्रधान न्यायाधीश, न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति संजीव
खन्ना ने एक फैसला लिखा जबकि न्यायमूर्ति एन वी रमण और न्यायमूर्ति धनन्जय वाईं चन्द्रचूड़ ने
अलग निर्णय लिखे।न्यायालय ने कहा कि निजता का अधिकार एक महत्वपूर्ण पहलू है और प्रधान
न्यायाधीश के कार्यांलय से जानकारी देने के बारे में निर्णय लेते समय इसमें और
पारदर्शिता के बीच संतुलन कायम करना होगा। जबकि न्यायमूर्ति खन्ना ने कहा कि न्यायिक
स्वतंत्रता और पारदर्शिता को साथ-साथ चलना है।न्यायमूर्ति रमण ने न्यायमूर्ति खन्ना से
सहमति व्यक्त करते हुये कहा कि निजता के अधिकार और पारदर्शिता के अधिकार तथा
न्यायपालिका की स्वतंत्रता के बीच संतुलन के फार्मूले को उल्लंघन से संरक्षण प्रदान करना
चाहिए। उच्च न्यायालय ने 10 जनवरी, 2010 को कहा था कि प्रधान न्यायाधीश का कार्यांलय
सूचना के अधिकार कानून के दायरे में आता है और न्यायिक स्वतंत्रता किसी न्यायाधीश
का विशेषाधिकार नहीं है बल्कि उन्हें इसकी जिम्मेदारी सौंपी गयी है। 88 पेज के इस फैसले को
तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश के जी बालाकृष्ण के लिये व्यक्तिगत रूप से एक झटका है
क्योंकि वह सूचना के अधिकार कानून के तहत न्यायाधीशों से संबंधित सूचना की जानकारी
देने के पक्ष में नहीं थे। इस पूरे मामले की शुरुआत तब हुई जब आरटीआई कार्यकर्ता
सुभाष चंद्र अग्रवाल ने चीफ जस्टिस के कार्यालय को आरटीआई के दायरे में लाने के
लिए याचिका दायर की थी। फैसले का स्वागत करते हुए सुभाष चंद्र अगवाल ने कहा, न्यायिक
व्यवस्था के दो हिस्से हैं, एक न्यायपालिका और दूसरा प्रशासन. न्यायपालिका पहले भी
आरटीआई में नहीं था और न अब होगा. यह प्रशासनिक अमले में लागू होगा. आज ये बात
साफ हो गई कि सीजेआई का कार्यालय भी प्रशासनिक मकसद से आरटीआई के अधीन
है।सुभाष चंद्र अग्रवाल का पक्ष रखने वाले वकील प्रशांत भूषण ने कहा था कि अदालत में सही
लोगों की नियुक्ति के लिए जानकारियां सार्वजनिक करना सबसे अच्छा तरीका है।शांत
भूषण ने कहा, ष्सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति और ट्रांसफर की प्रक्रिया रहस्यमय होती है।
इसके बारे सिर्फ मु_ी भर लोगों को ही पता होता है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई फैसलों में
पारदर्शिता की जरूरत पर जोर दिया है लेकिन जब अपने यहां पारदर्शिता की बात आती है
तो अदालत का रवैया बहुत सकारात्मक नहीं रहता। प्रशांत भूषण ने कहा था कि सुप्रीम
कोर्ट में जजों की नियुक्ति से लेकर तबादले जैसे कई ऐसे मुद्दे हैं जिनमें पारदर्शिता की
सख््त जरूरत है और इसके लिए सीजेआई कार्यालय को आरटीआई एक्ट के दायरे में
आना होगा। इसी तरह आरटीआई कार्यकर्ता, मजदूर किसान शक्ति संगठन राजस्थान के
संस्थापक सदस्य और आम लोगों की अधिकारों की लड़ाई लडऩे वाली संस्था सूचना के जन
अधिकार आंदोलन (एनसीपीआरआई) के सह-संयोजक निखिल डे पे बताया कि उन्होंने
आरटीआई के तहत यह पूछा गया था कि सुप्रीम कोर्ट के जजों ने अपनी संपत्ति की
जानकारी सुप्रीम कोर्ट को दी थी या नहीं।वो बताते हैं, ष्सुप्रीम कोर्ट रजिस्ट्री ने यह
जानकारी देने से मना कर दिया था. सूचना आयोग ने यह कहते हुए कि यह पब्लिक ऑफिस है
लिहाजा आपको सूचना देनी ही होगी. अपील में यह मामला हाई कोर्ट में गया. विडंबना यह है कि
सुप्रीम कोर्ट अपने अपील में हाई कोर्ट में गया। पहले हाई कोर्ट की एक बेंच ने कहा फिर
फुल बेंच ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस का ऑफिस सूचना के अधिकार के तहत आएगा
और ये सूचनाएं देनी पड़ेंगी और संपत्ति की घोषणा भी करनी पड़ेगी। इसके बाद सुप्रीम
कोर्ट फिर अपने पास ही अपील में गई. जहां हाई कोर्ट के फैसले पर रोक लगाते हुए
मामले की सुनवाई हुई और अब ये फैसला आ रहा है।निखिल डे बताते है कि'' सुप्रीम
कोर्ट पारदर्शिता और सूचना का अधिकार खुद से शुरू करना चाहेगा। कोर्ट
आरटीआई से पूरी तरह नहीं बच सकता. जजों की नियुक्ति का सवाल है. यहां कॉलेजियम
बैठता है. चर्चा कर फैसले को सरकार के पास भेजा जाता है. इसमें भी पारदर्शिता की
बात उठती रही है. चीफ जस्टिस के दफ्तर का सवाल है। अब इतना तय है कि यह जो फैसला महापीठ ने
लिया है यह सूचना के अधिकार मारक क्षमता में वृद्धिकारक ही नही इस बॉत का संकेत है कि
आने वाले समय में अगर जरूरत पड़ी तो इसे और अधिक शक्ति से परिपूर्ण किया जा सकता
है।