अमेरिका और ब्रिटेन, इन दो राष्ट्रों की शासनप्रणाली दुनिया के कई देशों के लिए
मिसाल बनी है। और अभी इन दोनों देशों में ऐसी घटनाएं हुई हैं, जो संसदीय लोकतंत्र में
भरोसे को और बढ़ाती हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के खिलाफ महाभियोग की
औपचारिक प्रक्रिया शुरु हो गई है। राष्ट्रपति ट्रंप पर आरोप है कि उन्होंने यूक्रेन के
राष्ट्रपति पर दबाव डाला कि वो जो बाइडेन और उनके बेटे के खिलाफ भ्रष्टाचार के दावों
की जांच करवाएं। जो बाइडेन अगले साल होने वाले चुनाव में डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर
से राष्ट्रपति पद के संभाावित उम्मीदवार हैं। और ट्रंप अमेरिका पर फिर से शासन करना
चाहते हैं। हालांकि ट्रंप ने इन आरोपों से इन्कार किया है। ट्रंप ने ये माना है कि
उन्होंने यूक्रेन के राष्ट्रपति जलेंस्की से अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदी जो बाइडेन के बारे में
चर्चा की थी, यूक्रेन को सैन्य मदद रोकने की धमकी भी दी।लेकिन बाइडेन के खिलाफ भ्रष्टाचार की
जांच के बारे में उनकी कोई बात हुई है, इससे उन्होंने इन्कार किया है। गौरतलब है कि
ट्रंप पर पहले भी महाभियोग लगाने की मांग की जा चुकी है, जो खारिज हो गई थी। अमरीकी
संविधान के मुताबिक राष्ट्रपति को देशद्रोह, रिश्वत और दूसरे संगीन अपराधों में महाभियोग
का सामना करना पड़ता है। महाभियोग की प्रक्रिया हाउस ऑफ रिप्रेजोटेटिव्स से शुरू
होती है, जहां इसे पास करने के लिए साधारण बहुमत की जरूरत पड़ती है। इस पर सीनेट में
एक सुनवाई होती है लेकिन यहां महाभियोग को मंजूरी देने के लिए दो तिहाई बहुमत की जरूरत
पड़ती है। अमरीकी इतिहास में अब तकबिल क्लिंटन और एंड्रयू जानसन इन दो राष्ट्रपतियों पर
महाभियोग चल चुके हैं, लेकिन दोनों में से किसी को भी महाभियोग के जरिए हटाया नहीं जा
सका है।ट्रंप भी रिपब्लिकन का बहुमत होने के कारण बच ही जाएंगे, ऐसी संभावना है।
लेकिन सर्वोच्च पद पर काबिज होने के बावजूद उन पर कार्रवाई होना ही सशक्त लोकतंत्र की
निशानी है। ट्रंप के खिलाफ महाभियोग शुरु करने की घोषणा करते हुए अमरीकी प्रतिनिधि
सभा की स्पीकर नैन्सी पलोसी ने कहा कि राष्ट्रपति की जवाबदेही तय होनी चाहिए, कोई भी कानून
से ऊपर नहीं है। इधर ब्रिटेन में भी पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसा फैसला दिया, जो
प्रधानमंत्री से ज्यादा संसदीय प्रणाली के हित में था। दरअसल ब्रेक्जिट मुद्दे पर घिरे
प्रधानमंत्री बोरिस जानसन ने ब्रिटिश संसद को 10 सितंबर से 14 अक्टूबर तक के लिए स्थगित
करवाया था। उन्होंने महारानी को ऐसा करने की सलाह दी थी, जिसका उनकी पार्टी के
सांसदों ने भी विरोध किया था। अब सुप्रीम कोर्ट ने भी इस स्थगन को गैरकानूनी बताते हुए इसे
रद्द कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट की प्रेसीडेंट लेडी हेल ने कहा कि इसका हमारे लोकतंत्र
के आधारभूत ढांचे पर खासा प्रभाव हुआ। महारानी को संसद निलंबित करने की सलाह देने
का फैसला गैर-$कानूनी था क्योंकि इसका प्रभाव निराशाजनक था। ये किसी तर्कसंगत
औचित्य के बिना संसद को इसके संवैधानिक कामकाज करने से रोक रहा था। सर्वोच्च अदालत के
इस फैसले के बाद हो सकता है ब्रिटिश प्रधानमंत्री की कुर्सी खतरे में पड़ जाए, लेकिन संसदीय
प्रणाली और संवैधानिक अधिकारों की रक्षा इससे हुई है। अमेरिका और ब्रिटेन के
इन प्रकरणों को लोकतंत्र के लिए नजीर की तरह याद रखना चाहिए। जहां शासक को भी
संविधान और कानून के दायरे में ही रहना होता है। वह कितना भी ताकतवर या लोकप्रिय हो,
कितने भी वोटों से उसने जीत हासिल की हो, अगर उसके कृत्य संविधान के खिलाफ होंगे, तो
कार्रवाई के दायरे में वह भी आएगा ही। दरअसल लोकतंत्र तभी बना रहेगा, जब वह किसी की
मन की बात से नहीं, बल्कि संविधान में लिखी बात से चले। पिछली सदी में जब दुनिया के कई देशों से
औपनिवेशिक दासता का अंत हो रहा था, तो नवोदित देशों में अधिकतर ने अपने लिए लोकतंत्र को ही
चुना। भारत भी उनमें से एक था। क्योंकि दुनिया में लोकतंत्र से बेहतर शासन प्रणाली
नहीं हो सकती, यह बात अलग-अलग देशों में विभिन्न किस्मों की शासन प्रणालियां देखकर समझ आ
गई थीं। बेशक लोकतंत्र की स्थापना और उसे कायम रखना कठिन है, लेकिन आम आदमी के
कल्याण और उसके अधिकारों की रक्षा के लिए लोकतांत्रिक शासन ही एकमात्र विकल्प है।
आज जब देश में कई बार, कई घटनाओं के कारण संविधान और लोकतंत्र के खतरे में
होने की आशंका जतलाई जाती है, इन आशंकाओं को मिटाने के लिए ब्रिटेन और
अमेरिका के उदाहरण याद रखना होगा।