भारत में बौद्ध भिक्षुओं की संख्या नगण्य है। गया, सांची में, पूर्वोत्तर में सिक्किम, दार्जीलिंग,
कलिमपोंग में दिख जाएंगे और पुनीतात्मा दलाई लामा की धर्मशाला में भी। लेकिन
साधारणतरू वैसे नहीं। पर जब और जहां भी दिखेंगे, भिक्षु आदर पाएंगे, सत्कार भी।
और... औपचारिक भिक्षा तो अवश्य ही। किसी दुकान के सामने भिक्षु खड़ा हो, तो उसको कुछ न
कुछ दिए बिना दुकानदार नहीं रहेगा।
किंतु भिखारी की बात कुछ और होती है। भिखारी जब हाथ में टूटे टिन का डिब्बा लिए दो-
चार सिक्कों को ठनठनाता सामने आता है तो वह घृणा से देखा जाता है। मत आ पास, दूर रह।
भिखारी से हम दूर रहना चाहेंगे। अगर हम साइकिल, मोटरसाइकिल या फिर मोटर गाड़ी
में सवार हैं और सड़क की लाल बत्ती पर रुके हुए हैं तो दो ख्याल आए बिना नहीं रहते। एक-
श्कब बत्ती लाल से हरी होगी? और दो-वो सामने भिखारी जो है, वह आगे वाली गाडिय़ों से
चिपके हुए ही रहे। मुझ तक न पहुंचे..। और जब वो आ जाता है बिलकुल करीब, बिल्कुल
सामने और कहता है- श्रहम कर साहिब, बच्चे भूखे हैं...तेरे बच्चे फलें-फूलें...। तो उफ्फ!! कुछ
देना ही पड़ता है और फिर इस बात का ख्याल रखते हुए कि सिक्का टिन में डालते-डालते उंगली
उसकी उंगलियों को न लगे।
यहां इतना कहना जरूरी है कि हम में कई ऐसे भी हैं, जो खुले दिल से बटुआ खोलकर सिक्के
क्या, नोट तक डाल देते हैं भिखारी के हाथ में। और ऐसी बात नहीं कि ऐसे लोग धनवान होते
हैं। नहीं, वे दानी होते हैं। दरिया-दिल! बल्कि धनवान लोग जो कि एयर कंडीशंड गाडिय़ों में
बैठे होते हैं, वे भिखारी को आते देखकर बाज दफे खिड़की खोलते नहीं हैं। वे अपने मोबाइल फोन
पर और भी गंभीरता से बात पर लग जाते हैं। इसकी एक वजह तो यह होती है कि ऐसे साहिबों की
जेबों में डेबिटध्क्रेडिट कार्ड होते हैं, रुपए या सिक्के नहीं। पर असली वजह तो यही होती है कि
श्कौन जेब से बटुआ निकालकर नोट देने की जहमत उठाए! और यह वर्ग ये तर्क भी रखे हुए है
कि भिखारी लोग तकदीर के मारे नहीं, आदत के मारे हैं, काम नहीं करना चाहते। और
फिर वे आजाद नहीं... कोई दबंग, लठियल, कोई गुंडा या माफिया उनको इस काम पर लगाए हुए
है। इनकी कमाई को वह उठा लेता है। इस ख्याल में सत्य भी है। लेकिन इस सत्य से जियादह आलस
है। श्कौन जेब से... वाली बात। मैंने यह भी देखा है कि साहिब भिखारी से आंख नहीं मिला रहे
हैं और उनका ड्राइवर रहम करते हुए भिखारी को कुछ कम-ज्यादा दे देता है। गरीबी की
अपनी रस्में होती हैं, अपना रसायन। अमीरी की अपनी रस्में, अपना रसायन! मैं अपनी खुद की
बात पर आता हूं। मेरी गिनती गाड़ी-नुमा, ड्राइवर-नुमा लोगों में है। कुछ सालों पहले की,
दिल्ली की बात है। जनवरी का महीना था। सूरज ढल चुका था। मैं दफ्तर से घर जाते हुए गाड़ी में
सवार था। घर पहुंचने ही वाला था कि अंधेरे में एक लड़का दिखा। आठ-नौ साल का। जिस्म
पर कमीज नहीं। कड़कड़ाती ठंड में ठिठुर रहा था। मैंने ड्राइवर से रुकने को कहा।
खिड़की उठाकर पूछा- श्बच्चा, इस सर्दी में, रात को... यूं? वह कुछ बोला नहीं, दांतों को पीसता
हुआ ठिठुरता रहा। उसको पैसे देने में मतलब नहीं था। मेरे पहने हुए गरम कपड़े उसको
कहां फिट होने को थे? उसके लिए बहुत बड़े थे। खुश इत्तेफाकी से एक शॉल थी मेरे पास।
मैंने उसको वह दे दी। उसने फौरन ओढ़ी। पर कुछ ना बोला, खड़ा रहा। कांपता रहा।
मेरा घर बिल्कुल करीब था, तो मैंने सोचा घर जाकर इसके लिए मेरे बच्चों के गरम
कपड़ों में से दो-चार लाकर इसे दिए देता हूं। पत्नी और बच्चों की इजाजत से जब मैं वैसे कपड़ों
को लेते हुए लौटा तो देखता हूं कि वही लड़का फिर वस्त्र-हीन, वैसे का वैसा वहीं खड़ा है। मेरी
दी हुई शॉल गायब। मुझे देखते ही भागा...गायब। मेरे ड्राइवर ने कहा- सर, आप बहक
गए। इसके उस्ताद ने शॉल उड़ा ली है। बेईमान होते हैं...। टंगे हुए लंबे चेहरे और हाथ
में टंगे हुए उन्हीं कपड़ों को लिए लौटा। घरवाली बोली- अफसोस ना कीजिए... इरादा नेक था।
कहीं न कहीं उस भिखारी बच्चे को आपका इरादा मदद करेगा। मन बहलाव था वह। पर मन शांत
जरूर हुआ। फिर संसार ने उस किस्से को भुला दिया। वर्षों बीत गए। फिर दूसरा अनुभव
हुआ, भीख का। हम अन्य शहर में थे अब। जाड़ा नहीं वहां। गर्मी, उमस। लेकिन वही अंधेरा। मैं
कुछ खरीदारी किए घर लौट रहा था। पैदल, पसीने से तर। अचानक एक जवान आदमी मेरे
सामने आ रुका। मैं भी रुका। वह अंग्रेजी में बहुत शालीनता से बोला- श्सर, आय एम हंग्री..
टू इडली। मैं जल्दी में था। उमस से तंग, पसीने से तर। इस तरह रोका जाना भाया नहीं। सिर
हिलाते हुए चलते गया। पीछे से फिर आवाज आई- श्सर... टू इडली। मैंने अनसुना कर दिया।
एक क्षण उसको फिर देखा। उसका चेहरा, उसका अंदाज... मुझे तीर जैसी आंखों से देख रहा
था। घर पहुंचने पर जो अपने पर गुस्सा आया, उसका क्या बयान करूं? थे मेरी जेब में दस
रुपए के दो-चार नोट। क्यों न दिया मैंने उनमें से उसको एक? क्यों? कोई वजह नहीं। बस नहीं
दिया। शायद उमस। सिर्फ उमस। खाना खाया न गया ठीक से। क्या हुआ? पत्नी ने पूछा। मैंने
बताया। उसने खामोशी से सुना। नारी की खामोशी में वेद भरे होते हैं। उपनिषद। और हां,
जातक की कथाएं। याद आई मुझे वह तस्वीर, वही भित्ति अजंता की, जिसमें बुद्ध स्वयं भिक्षा मांग
रहे हैं अपनी पत्नी यशोधरा से...और अपने पुत्र राहुल से। वे कपिलवस्तु पधारे हैं और
अपने त्याजे राजमहल के सामने खड़े हैं। भिक्षा-पात्र उठाए। कैसी भीख? क्या गुजर रहा
है उनके मन में? यशोधरा और राहुल के मन में? कौन जाने? चूंकि मैथिलीशरण गुप्त की
यशोधरा पढ़ चुका हूं, मैं मानता हूं कि कहीं न कहीं गौतम यशोधरा से कह रहे हैं-तुमको कहे
बिना, रात को, नीरव रात को, छोड़कर मैं जब गया... तब सुबह उठने पर तुमको कितना सदमा,
कितना दुख हुआ, मैं जानता हूं। यशोधरा... मुझे...मुझे..तुम.. और यह कहते हुए कमंडल आगे
बढ़ाते हैं। भीख सिर्फ सिक्कों के लिए नहीं मांगी जाती। वह संवेदना के लिए, क्षमा के लिए भी मांगी
जाती है। हम सब, दरअस्ल कहीं न कहीं भिखारी हैं। क्योंकि हम जाने-अनजाने में गुनहगार हैं।
दुख पहुंचा चुके हैं, किसी न किसी को, सदमा, निराशा। फायदा ले चुके हैं, किसी न किसी से,
उसके लिए शुक्रिया कहे बगैर। हम सब कर्जदार हैं...। बड़ी कंपनियां उधार मांगती हैं,
बैंकों से। एयरलाइंस कर्ज मांगती हैं। भीख नहीं कहलाती हैं ये मांगें। पर क्या बहुत फर्क है
भीख में और कर्ज में? भिखारी वे नहीं, हम सब हैं। जिंदगी की चौड़ी सड़क पर, तकदीर की लाल
बत्ती पर रुके हुए, हम सब हाथ फैलाए हुए हैं। और भिक्षा कभी मिलती है, कभी नहीं।
भिखारी-भिखारन को जब भी देखें, जहां भी देखें, तब उनको कुछ दें या न दें (संदर्भ नाम का भी कुछ
होता है, विवेक करके भी कोई चीज होती है) लेकिन उनमें, उन भिखारियों में हम खुद को जरूर
देखें। और खुद में उनको।
(लेखक पूर्व राजनयिक-राज्यपाल हैं और वर्तमान में अध्यापक हैं)