हमेशा केंद्र और राज्य के चुनावों में मुद्दे अलग होते हैं. केंद्र के मुद्दे में पाकिस्तान या
कश्मीर का मसला हो सकता है, लेकिन हरियाणा जैसे राज्य के लिए ये दोनों बड़े मुद्दे नहीं
हैं. महाराष्ट्र में भी स्थिति कुछ ऐसी ही है. इस वक्त जिस तरह से देशभर में बेरोजगारी है,
किसानों के विभिन्न मुद्दे हैं, महंगाई है और आर्थिक मंदी जैसे हालात हैं, ऐसे में विधानसभा
के चुनाव में पाकिस्तान और कश्मीर को लेकर बताये जानेवाले राष्ट्रवाद को बड़ा मुद्दा
नहीं माना जा सकता. इन सारे मुद्दों ने ही महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनावों में
राष्ट्रवाद को गौण कर दिया और भाजपा को कम सीटों से ही संतोष करना पड़ा. लोगों ने
अपना वोट इन्हीं सब आधारों पर दिया है. अब भी दोनों राज्यों में भाजपा बड़ी पार्टी बनी
है, लेकिन भाजपा को जो उम्मीद थी, चुनाव परिणाम उसके अनुकूल नहीं हैं.
हालांकि, विपक्ष की स्थिति इतनी अच्छी नहीं रही है, और उसने इन दो राज्यों में इस तरह से चुनाव
लड़ा है, जैसे उसे पहले से पता हो कि वह नहीं जीतेगा. यानी विपक्ष एक हताश मन लेकर मैदान
में उतरा था, मानो वह हारने के लिए लड़ रहा हो. हालांकि, चुनाव प्रचार के आखिर में
जहां महाराष्ट्र में शरद पवार ने कमर कस ली, तो वहीं तीन-चार सप्ताह पहले हरियाणा में
भूपेंद्र सिंह हुडा को लाया गया, लेकिन फिर भी इन दोनों को जिस तरह से लडऩा चाहिए था, वे
नहीं लड़े. अगर ये लोग एक प्लान बनाकर सुनियोजित तरीके से लड़ाई लड़े होते और इनका
नेतृत्व स्पष्ट होता, तो संभव था कि यह चुनाव परिणाम कुछ और ही होता. ऐसा इसलिए, क्योंकि
विपक्ष के पास तमाम मुद्दों पर भाजपा को ललकारने की जमीन बनी हुई थी. दूसरी बात यह है कि
दोनों राज्यों में कुछ खास जातियों और समुदायों ने भाजपा के खिलाफ जाकर मतदान किया है.
और वे बहुत मजबूत जातियां हैं. महाराष्ट्र में जहां-जहां भी राकांपा का प्रदर्शन अच्छा
रहा है, वे मराठा क्षेत्र हैं और वहीं हरियाणा में हुडा की मेहनत जहां-जहां रंग
लायी है, वे जाट क्षेत्र हैं. महाराष्ट्र में मराठा राजनीतिक रूप से प्रभावी हैं, तो वहीं
हरियाणा में जाट. पिछली बार के चुनाव में ऐसा नहीं हुआ था. महाराष्ट्र के देवेंद्र
फडणवीस ब्राह्मण हैं और हरियाणा के मनोहर खट्टर पंजाबी हैं, इसलिए ऐसा लगता है कि
मराठा और जाटों को यह अच्छा नहीं लगा. इसकी एक वजह और भी है. पिछली बार के चुनाव
में नरेंद्र मोदी की लहर थी जिसमें सभी जाति-समुदाय बहते चले गये थे.लेकिन, इन समुदायों को लगा
कि राजनीतिक रूप से इनके प्रभावी होने के बावजूद भाजपा ने उन्हें नजरअंदाज किया,
जबकि पांच-दास साल पहले कोई पार्टी इन्हें नजरअंदाज करने की हिम्मत नहीं दिखाती थी. इसलिए इस
बार इन्होंने विपक्ष को खास तौर पर अपने समुदायों का समर्थन किया. एक बात और महत्वपूर्ण
है, वह यह कि भाजपा में कहीं न कहीं हेकड़ी भी नजर आयी है, और इन समुदाय के नेताओं के
पीछे बार-बार सीबीआई या ईडी को लगा दिया गया, जिससे इनके समर्थकों में भाजपा को
लेकर नाराजगी पलने लगी थी. वही नाराजगी चुनाव परिणाम में बदल गयी और शरद
पवार को जबरदस्त बढ़त मिली. हालांकि, ऐसा नहीं है कि उन क्षेत्रों में भाजपा का सूपड़ा साफ
हो गया है, लेकिन जनाधार तो कम हुआ ही है.
भाजपा को उम्मीद थी कि महाराष्ट्र में वह 220 सीटों पर जीत हासिल करेगी और हरियाणा
में तो नारा ही था- अबकी बार पचहत्तर पार, लेकिन इन दोनों उम्मीदों पर पानी फिर गया.
महाराष्ट्र में फडणवीस ने तो फिर भी कुछ ठीक मैनेज किया है, लेकिन हरियाणा में तो खट्टर
के मंत्री तक हार गये. मराठालैंड और जाटलैंड में विपक्ष की सीटों का बढऩा निश्चित
रूप से वहां भाजपा के जनाधार का कम होना दर्शाता है.महाराष्ट्र और हरियाणा का
चुनाव कांग्रेस को कुछ ताकत दे गया है. हालांकि, उसने अपनी पूरी ताकत से लड़ाई नहीं लड़ी.
उसे ताकत इस रूप में मिली है कि भाजपा या दूसरी पार्टियों के प्रति जब भी लोगों में गुस्सा
या नाराजगी दिखी है, तो उनमें से अधिकतर लोग चुनावों में कांग्रेस की ओर ही देखते हैं.यानी,
मुख्य विपक्षी पार्टी के रूप में कांग्रेस आज भी है, इसमें कोई शक नहीं है. इन चुनावों में
एक बात और कांग्रेस की ताकत बढ़ाती दिखी है, वह यह कि कुछ जगहों पर लोगों ने कांग्रेस के
प्रतीक चिह्न पर भी वोट दिया है, मसलन कांग्रेस के अशोक चव्हाण का जीतना. कांग्रेस को ताकत
मिलने के बावजूद अगर आज भाजपा सरकार बनाने की स्थिति में है, तो जाहिर है कांग्रेस को
अभी और ज्यादा मेहनत करने की जरूरत है. मुख्य विपक्षी पार्टी होने का खिताब बरकरार
रखने से काम नहीं चलनेवाला है, चुनावों में बड़ी जीत हासिल करना और सरकार बनाने
की ताकत हासिल करना ही असली राजनीतिक ताकत है. अब आगामी समय में दिल्ली समेत कई दूसरे
राज्यों में भी चुनाव होने हैं. जाहिर है, इन दो राज्यों के चुनाव परिणामों के असर के
नजरिये से आगामी विधानसभा के चुनावों को देखा जायेगा. हालांकि, हर राज्य के चुनावी
समीकरण अलग-अलग होते हैं. लेकिन फिर भी यह कहना गलत नहीं होगा कि इस वक्त विपक्ष को अपनी
आवाज वापस मिल गयी है. जिस तरह से इन चुनावों में विपक्ष ने हथियार डालकर चुनाव लड़ा
है, अब उम्मीद है वह ऐसा नहीं करेगा. क्योंकि अब भी अगर वह ऐसा करेगा, तो इसका नतीजा
उसके लिए बहुत बुरा होगा. जहां तक कांग्रेस की बात है, हरियाणा में कांग्रेस ने जो
रणनीति अपनायी है, उसे इसी तरह की रणनीति की जरूरत आगे के चुनावों में होगी, तभी
संभव है कि वह अपनी ताकत बढ़ाने में कामयाब हो पायेगी. जिस तरह से सोनिया गांधी ने सतर्कता
के साथ नेतृत्व संभाला है, उसी तरह से राज्यों के पार्टी नेतृत्व में कम हस्तक्षेप रखते हुए
राजनीति के विकेंद्रीकरण मॉडल को अपनाना होगा. कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व का
कंट्रोल राज्यों के नेतृत्व में कम होगा, उतना ही कांग्रेस को फायदा मिलेगा. हालांकि, यह
भाजपा से बिल्कुल विपरीत मॉडल है, लेकिन कांग्रेस के लिए यही रणनीतिक ताकत भी है. दोनों
राज्यों में सरकार जो भी बनाये, लोकतंत्र के लिए जरूरी है कि विपक्ष मजबूत हो. मजबूत
विपक्ष सरकार के लिए भी जरूरी है, क्योंकि इससे सरकार तानाशाही से बच जाती है
और विपक्ष द्वारा उठाये मुद्दों पर ध्यान देकर जनता के हित के लिए काम करती है.