इन दिनों उत्तर भारत के अनेक शहर धुंध की चपेट में हैं। चाहे दिल्ली-एनसीआर हो,
हरियाणा का सिरसा, पंजाब का जालंधर या उत्तर प्रदेश का लखनऊ, इनमें रहने वाले
लोगों का दम घुट रहा है। उत्तर भारत के ग्रामीण इलाकों में किसानों द्वारा रबी
सीजन की बुआई से पूर्व अपने खेतों की सफाई के लिए पराली जलाने से उठे धुएं ने इन
शहरों को कंबल की तरह ढंक लिया है। इस त्रासद स्थिति में शहरवासियों को समझ में आ
रहा है कि भारतीय कृषि में कितनी गंभीर समस्याएं हैं। वास्तव में यह समस्या सिर्फ भारत की
नहीं है। बल्कि कहें कि 2019 में दुनिया को प्रभावित करने वाली बड़ी आगजनी की घटनाओं
और उनसे उपजे धुएं के बादलों की जड़ में कहीं न कहीं कृषि का जुड़ाव रहा है। इस साल
भारत, दक्षिण अमेरिका और दक्षिण-पूर्व एशिया में जो बड़ी आग लगीं, उनसे उठते धुएं को
अंतरिक्ष में मौजूद उपग्रहों से भी देखा जा सकता है। इस साल की शुरुआत में आर्कटिक क्षेत्र
के ग्रीनलैंड, साइबेरिया और अलास्का में घटित आगजनी की घटनाएं तो प्राकृतिक वजहों
से हुईं। लेकिन कई बार जंगलों में इसलिए भी आग लगा दी जाती है, ताकि पेड़ों का सफाया
कर वहां की जमीन को इंसानी जरूरतों के अनुरूप बनाया जा सके। खेती के लिए जगह बनाने
हेतु ठंूठ या खरपतवार को जलाना कोई नई बात नहीं है। सदियों से दुनिया भर में किसानों
द्वारा ऐसा किया जाता रहा है। अतीत में, जब आबादी कम थी, जमीन की आसान उपलब्धता थी और
प्रदूषण भी कम था, तब इस तरह की कृषि तकनीक से समस्याएं नहीं होती थीं। आज जब जमीनें घट गई
हैं, आबादी की अधिकता है और कृषि औद्योगीकृत हो गई है, तब ये प्रक्रियाएं वहनीय नहीं रहीं।
लेकिन दुखद रूप से, इंसानी स्वास्थ्य और पर्यावरण की फिक्र किए बगैर किसान अब भी
पराली और जंगल जला रहे हैं। इसी का नतीजा है दुनिया के अनेक हिस्सों में आकाश में
छाई धुंध। जून-जुलाई 2019 में आर्कटिक क्षेत्र में दक्षिण अमेरिका के अमेजन बेसिन में
आग भड़की, जिसे काफी मशक्कत के बाद बुझाया जा सका। ब्राजील में तो सितंबर तक आग की
लपटें उठती रहीं। इंडोनेशिया का आकाश भी आग की लपटों से लाल हुआ। अक्टूबर
में भारत की बारी आई। अमेजन, इंडोनेशिया और भारत में उठी आग की लपटों में एक
बात कॉमन है। इनकी शुरुआत किसानों की वजह से हुई। ब्राजील में (जहां कि अमेजन वर्षा
वनों का 60 फीसदी हिस्सा है) किसान सोयाबीन की उपज के लिए जमीन चाह रहे थे। इंडोनेशिया
में मुख्यतरू ऑयल पाम ट्री की पैदावार की खातिर ऐसा किया गया। भारत में धान की
पराली को जलाया गया, ताकि खेतों में रबी सीजन की प्रमुख फसल गेहूं की जल्द बुआई की जा
सके। अफसोस की बात है कि जंगल की आग या पराली दहन के प्रति जनता का रिस्पॉन्स भी अस्थिर
है। दिल्ली में लोगों ने वायु प्रदूषण के खिलाफ तब सड़कों पर प्रदर्शन किया, जब लगातार कई
दिनों तक हवा की गुणवत्ता सुरक्षित स्तर से चार गुना तक ज्यादा खराब पाई गई। लेकिन
जैसे ही थोड़ी-बहुत बारिश हो जाए और हवा की गुणवत्ता में सुधार हो कि लोग इसे अगले
सीजन तक के लिए भूल जाते हैं। अगस्त में जब अमेजन के जंगलों में आग लगी थी, तो दुनिया के बाकी
हिस्से के ज्यादातर लोगों ने इसे दक्षिण अमेरिका की समस्या के तौर पर ही देखा था। जबकि
वास्तव में इससे पूरा विश्व प्रभावित हो रहा था, चूंकि अमेजन हमारी इस धरती का सबसे बड़ा
श्कार्बन शोषक है। इसके बगैर, जिस हवा में हम सांस लेते हैं, उसमें कार्बन डायऑक्साइड
का स्तर कहीं अधिक होता। इस मामले में सरकारों का रिस्पॉन्स तो और भी असंतोषजनक है।
ब्राजील के राष्ट्रपति जेर बोल्सानारो ने अमेजन की आग को ठूंठ जलाने का नतीजा
बताया। हालांकि विशेषज्ञों का यही कहना था कि ये आग सिर्फ फसलों के अवशेष जलाने की
वजह से नहीं लगी, बल्कि जंगलों को इसलिए भी आग लगाई गई, ताकि खेती के लिए और जमीन मिल सके।
ब्राजील के अलावा सात अन्य देशों को कवर करने वाले समूचे वर्षावन क्षेत्र में 80,000 से
ज्यादा जगहों पर आग लग चुकी है।
इसी तरह सुमात्रा द्वीप पर करीब 2000 जगहों पर लगी आग से उठे धुएं के गुबार से
इंडोनेशिया का दम घुट गया। यह आग इतनी भयावह थी कि सिंगापुर के आसमान तक इसका
गुबार छा गया और स्वास्थ्य व पर्यावरण के लिहाज से आपातस्थिति पैदा हो गई। कहा यही
जाता है कि वहां ऐसी आगजनियों के जरिए ऑयल पाम ट्री के प्लांटेशन हेतु जंगल साफ किए
जा रहे हैं। इंडोनेशियाई द्वीपों पर 2001 से लेकर अब तक करीब 2 करोड़ 60 लाख
हेक्टेयर जंगलों को तबाह किया जा चुका है। भारत की बात करें तो उत्तर भारत में
छाई धुंध के लिए मुख्यतरू पंजाब, हरियाणा और यूपी में किसानों द्वारा पराली जलाने
को जिम्मेदार माना जा रहा है। हालांकि पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने तो
इसका दोष केंद्र के सिर मढ़ दिया और राज्य के किसानों को प्रोत्साहन राशि देने के लिए
1700 करोड़ रुपए की मांग रख दी, ताकि उन्हें फसलों के अवशेष जलाने के बजाय हाथ या मशीन
से हटाने के लिए प्रेरित किया जा सके। फसल अवशेषों को यंत्रों के जरिए हटाने और
नई फसल की बुआई के लिए सरकार को बेलर, मल्चर और हैप्पी सीडर्स जैसे यंत्र उपलब्ध
कराने चाहिए। हालांकि इस समस्या से निपटने हेतु सबिसिडी और तकनीकों पर आधारित
समाधान सफल नहीं होंगे। देखा जाए तो यह समस्या मुख्यतरू तकनीक की वजह से ही उपजी है। कम्बाइंड
हार्वेस्टर के इस्तेमाल की वजह से फसलों के कई इंच लंबे अवशेष खेत में छूट जाते हैं। इन्हें
हाथ से हटाने, उखाडऩे में श्रम व समय दोनों लगता है। लिहाजा किसान इसे जलाना ही ठीक
समझते हैं। जहां-जहां कम्बाइंड हार्वेस्टर पहुंच रहे हैं, वहां-वहां यह (पराली दहन की)
बीमारी भी पहुंचती जा रही है। बहरहाल, खासकर पंजाब जैसे राज्य में धान की बुआई व
कटाई का समय दो माह तक आगे खिसक जाने को भी प्रदूषण की एक वजह बताया जा रहा है। यदि
बुआई व कटाई पहले हो जाती, तो हवा की दिशा कुछ इस तरह की होती, जिससे पराली का धुआं
दिल्ली-एनसीआर को प्रभावित नहीं करता। ऐसी चर्चाएं हैं कि देरी से बुआई का फैसला
बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियों के दबाव में लिया गया, जो चाहती थीं कि किसान देर से पकने वाली
उनकी किस्मों का इस्तेमाल करें। यदि बुआई पहले की तरह अप्रैल-मई में ही हो जाए, तो प्रदूषण
की वैसी समस्या नहीं होगी। हालांकि यह समस्या का अधूरा समाधान है, चूंकि इससे पराली दहन तो
नहीं रुकेगा। लोगों की सोच में बदलाव और इस समस्या के प्रति व्यापक जागरूकता के बगैर
स्थायी समाधान मिलना मुश्किल है। आज जमीन एक कमोडिटी बन गई है, जिसे खरीदा-बेचा जाता
है। किसानों का अपनी जमीन और समुदाय से पहले जैसा जुड़ाव नहीं रहा। अब वह संकीर्ण
स्वार्थ के लिहाज से सोचता है और उसका यह नजरिया हमारी सरकारों की वजह से ही बना,
जो कृषि में पूंजीवादी सिद्धांतों को बढ़ावा देती हैं। आर्थिक व राजनीतिक हितों की खातिर ऐसी
नीतियां बनाई जाती हैं, जिनसे पर्यावरण को नुकसान पहुंचता है। नतीजा यह है कि विभिन्न्
देश व उनके किसान हमारी इस धरा के रखवाले होने के बजाय इसके शोषक की बर्ताव
करने लगे हैं।
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार व स्तंभकार हैं)