भारतीयों की जातीय स्मृतियों के अनगिन कैलेंडरों में दर्ज, अनादि काल से हर वर्ष मनाया
जाने वाला और इस साल अभी-अभी संपन्न हुआ दीपावली का पर्व धार्मिक व सांस्कृतिक
परम्पराओं से निर्मित तो है ही, उसकी स्वीकार्यता व लोकप्रियता के अन्य कारणों में उसका
नैतिक बल, औत्सविकता की देसज अभिव्यक्ति, रचनात्मक विस्तार, प्रतीकात्मकता और सौंदर्यबोध भी
है। उसके आगमन पर होने वाली साफ-सफाई, नए सिरे से रंग-रोगन और धन-धान्य की
आगवानी, स्वयं व समाज को खुशहाल बनाने लायक संपन्नता का आग्रह, लंबे व स्वस्थ जीवन के लिए
साक्षात यमदेव की कृपादृष्टि का जुगाड़, पशुधन के समक्ष ऋणी के रूप में खुद की प्रस्तुति, उसके
पीछे-पीछे पहुंचता भाई दूज..., सोचते जाइये तो इस उत्सव के इतने आयाम हैं कि हर साल उसे
मनाने के दौरान वह नए अर्थ लेकर हम तलक पहुंचता है। इतनी सारी प्रतीकात्मकताओं,
बिंबविधानों और प्रत्यक्ष व प्रकाशित अर्थों का संप्रेषण शायद हमारी शिष्ट भाषा या
शास्त्रीय साहित्य के लिए असंभव बन चुका होगा, इसलिए संभवतरू हमारी लोकवाणी ने दिवाली
के इन असंख्य पहलुओं व तत्वों को सार संक्षेप में अभिव्यक्त करने के लिए आकाशदीप रच दिया
होगा। भदेस परंपराओं की देन होने के कारण ही शायद घरों पर आकाशकंदील
लगाने के रिवाज का न तो निश्चित कारण मिलता है और न ही उसके इतिहास का स्पष्ट उल्लेख है।
कहीं यह कह दिया जाता है कि जिस कारण से दीपावली का त्यौहार मनाया जाता है, यानी
लंका फतहकर लौटे राम के स्वागत में अजुध्यावासियों ने चिराग रौशन किए थे, उसी के
साथ नागरिकों द्वारा अपनी देहरियों, मुंडेरों, खिड़कियों, दरवाडा व छतों पर
आकाशकंदील भी प्रकाशमान किए गये थे। जीत का उल्लास, राम के प्रति श्रद्धा व समर्पण का
भाव, नागरिक के तौर पर राम को अधिपति स्वीकारने की उमंग और 14 वर्षों से छाए
अंधकार को हकाल बाहर कर जीवन में नूतन प्रकाश के आगमन की आश्वस्ति- यह सब कुछ एक नन्हें
से दीप को अपने अंक में सहेजे होते हैं काले-स्याह नभ में लहराते आकाशदीये! हमारे
ग्रामीण कलाकारों ने बांस की कुछ खपच्चियों व लकडिय़ों को रस्सी से बांधकर उस फ्रेम को
हाथ-डेढ़ हाथ लंबे कपड़े से घेर दिया और उसके बीच टिमटिमाता दीपक रखकर वह सारा
कुछ कह दिया जो दुनिया कहना चाहती थी, आज भी कहना चाहती है। घर के सामान्य दीये को
आकाशदीप का रूप मिलना एक ज्योति की, लौ की एक प्रकार से व्यष्टि से समष्टि की यात्रा है। यह
अंतर्मन का विस्तारीकरण है, एकाकी मानव को सामाजिक बनाने की लोकप्रणाली है और
लडऩे के लिए सिर्फ छत नहीं बल्कि पूरे आकाश के अंधेरों को आमंत्रित करने की चुनौती
देने का दमदार आह्वान भी है। विष्णु को दीप प्रदान करते हुए जो श्लोक या मंत्र उच्चारित
किया जाता है, वह है- दामोदराय विश्वाय विश्वरूपधराय च! नमस्कृत्वा प्रदास्यामि व्योमदीपमं
हरिप्रियम्!! (मैं सर्वरूप एवं विश्वरूपधारी भगवान दामोदर को प्रणाम करके यह आकाशदीप
प्रदान करता या करती हूं।) नियमों के अनुसार धनतेरस के एक दिन पहले यानी द्वादश के दिन
आकाशदीप टांगे जाते हैं व कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा को उतारे जाते हैं। चलन में कमती
हो जाने के बाद भी आकाशदीये की परंपरा हमारे लोकजीवन व लोकसंस्कृति का हिस्सा बनी
हुई है। कार्तिक माह को काफी शुद्ध माना जाता है। इसका एक-एक पल कार्तिकेय व विष्णु-लक्ष्मी
को समर्पित करना होता है। यह भी कहते हैं कि विष्णु निद्रा त्यागने के बाद अपनी सृष्टि की
व्यवस्था को निहारते हैं। एकादशी से पूर्णिमा तक के दौरान पडऩे वाली कालावधि में
विष्णु को प्रसन्न करने के लिए आकाशदीप जलाए जाते हैं। लोकमान्यता है कि दीपावली के
कालखंड में अधोगामी तरंगें ऊध्र्व दिशा में प्रवाहित होती हैं। इससे वातावरण में जड़ता पैदा
होती है जिसके फलस्वरूप समूची वास्तु ही प्रदूषित हो जाती है। इस प्रदूषण व जड़ता से बचने के लिए
आकाशकंदील लगाए जाते हैं। उसके तेज व पवित्रता से रज व तम गुण नष्ट होकर मनुष्य के सत
गुण का विकास होता है। वैज्ञानिकता में गये बगैर अगर हम इस मान्यता के लोकदर्शन का
विचार करें तो यह मानवीय चेतना के विकास व उसके परिष्कार पर बल देने वाली इच्छा-
भावना के महत्व का ही प्रतिपादन है। महान साहित्यकार जयशंकर प्रसाद की एक बहुत ही
खूबसूरत कहानी है- श्आकाशदीपश् । चम्पा इसकी नायिका है, जिसे जलजहाज से अनेक समुद्री
दस्युओं के साथ बंदी बनाकर ले जाया जा रहा है। अन्य कुछ बंदियों के साथ वह अपने बंधन
काटकर मुक्त होती है। बाली द्वीप के आसपास एक निर्जन द्वीप में वह सहयोगी बंदियों व पिता के
साथ रहने लगती है। जिसके सहयोग से वह तथा अन्य कैदी बंधनमुक्त हुए उन्हीं में से एक है बुधगुप्त।
उसके साथ चम्पा के अनुराग के तत्व व लक्षण इस कहानी में उपलब्ध हैं। बाद में उसके पिता की
मृत्यु हो जाती है और मौका मिलने पर बुधगुप्त व अन्य बंदी भी वहां से चल देते हैं। चम्पा वह द्वीप
छोड़कर नहीं जाती। वह बताती है कि कैसे बचपन में उसकी मां अपने नाविक पिता के पथ प्रदर्शन
के लिए समुद्र किनारे बनी अपनी झोपड़ी के बाहर एक दीप जलाया करती थी ताकि उसके पिता
को किनारे पहुंचने में मदद मिले। उसी से प्रेरित चम्पा उस निर्जन द्वीप में रोज रात को बांस
पर एक आकाशदीप बनाकर टांग देती है जिससे कि समुद्र में तैर रही नौकाओं व जहाजों को
किनारे बने शैलों व हिमखंडों से सावधान किया जा सके ताकि उनकी नावें व जहाज
टकराकर टूट न जाएं। यह एक चौतन्य व समाज की चिंता करने वाले व्यक्ति के आकाशदीप
बनने की कहानी है। दीप आपके अंतर्मन को प्रकाशित करता है तो आकाशकंदील हमारी
सामाजिक चेतना से जुड़ता है। गांधी सभी के जीवन में राह दिखाने वाले आकाशदीप हैं। गौतम
बुद्ध ने श्अप्प दीपो भवश् कहा तो वे चाहते थे कि व्यक्ति प्रथमतरू अपने भीतर सत्य, विवेक व ज्ञान
का उजियारा करे। गांधी शायद हर व्यक्ति से दोहरी भूमिका व कर्तव्यों की अपेक्षा रखते
थे। इसलिए वे चाहते थे कि हर कोई दीपक की भांति आत्मप्रकाशित तो हो ही, आकाशदीप बनकर
समाज को राह भी दिखाए। अपने साथ अन्य के जीवन में खुशहाली और प्रकाश लाए। आकाशदीप
की सामाजिक उपयोगिता के साथ-साथ उसमें जीवन की रचनात्मकता और मनुष्यता का सौंदर्यबोध
भी है। काले, स्याह आसमां को आकाशदीया चुनौती देता है। हवाओं के बीच खुद के अस्तित्व को
बचाने के लिए संघर्ष करते हुए अपने भीतरी-बाहरी अंधेरों को ललकारने की उसकी मुद्रा
बेहद आकर्षक है। इस विशाल काले-कलूटे नभ के मुकाबले एक कृशकाय व नन्हा सा
आकाशदीप हौसलों से भरपूर दीख पड़ता है। इसलिए गांधीजी आकाशदीये की भांति
प्रेरणादायी लगते हैं। यह कार्तिक का मास है और मूर्त आकाशकंदील को हम 12 नवंबर को
पड़ी कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा पर उतार चुके हैं। दूसरी तरफ, हमारे भीतर और
आसपास का अंधेरा लगातार बढ़ रहा है। यह कालिमा आपसी नफरत की है, हिंसा व युद्धोन्माद
के चढ़ते ग्राफ के कारण है, बढ़ते सामाजिक तनाव से है, जातीयता व सांप्रदायिकता से उसका
विस्तार हो रहा है। लगातार बढ़ता अविश्वास व घटती सहिष्णुता से अंधेरा और भी गहरा
रहा है। आर्थिक व सामाजिक गैरबराबरी में बढ़ोतरी, पूंजीवाद के वीभत्स असर,
शक्तिशाली होते राज्य, निरंकुश होती सत्ताएं, सत्ता का अहंकार व उत्तरदायित्वहीनता,
भ्रष्टाचार एवं लालफीताशाही, गरीबी-बेरोजगारी का महाविस्फोट, गहराती मंदी, जर्जर
गांव, बढ़ती झोपड़पट्टियां, असंतुलित शहरीकरण, भौंडा विकास, धर्मांधता, अंधविश्वास,
अवैज्ञानिकता, अज्ञानता का महिमा मंडन, तर्कशीलता का निषेध और विलोपित होता विवेक इन
अंधेरों को सतत बढ़ा रहा है। समाज लगातार अमानवीय व मानव असामाजिक बनता जा रहा है।
ये वे विषाक्त किरणें हैं जो इस अंधकार की उपज हैं। ऐसे में हमारे पास गांधी नामक
आकाशदीप है जिससे हमें मानवीय गरिमा की पुनप्र्रतिष्ठा की किरणें दीख पड़ती हैं। इसके
दर्शन में मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के उपाय हैं। जो उनमें विश्वास
करेगा, वही प्रकाश पाएगा। हिंसा, न$फरत, गैरबराबरी, निरंकुशता, विवेकहीनता,
जातीयता-सांप्रदायिकता के बगराये अंधेरों पर जो फिदा हैं, वे इस आकाशदीप को बुझा
देंगे। कार्तिक पूर्णिमा चाहे हो गई हो लेकिन गांधीरूपी आकाशकंदील को अनवरत छत पर
लगाए रखना होगा। जीवन भर!