गांधी की नजर में नेहरू और नेहरू की नजर में गांधी

आधुनिक भारत को जिन दो महान व्यक्तियों ने सर्वाधिक प्रभावित किया वे हैं महात्मा गांधी और
जवाहरलाल नेहरू। जहां गांधी ने भारत को आजाद कराने म महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी
वही जवाहरलाल नेहरू ने आजाद भारत के चहुंमुखी विकास म उतनी ही महत्वपूर्ण भूमिका अदा
की। गांधी और नेहरू की आयु म पूरे 20 वर्ष का अंतर था। गांधी का जन्म सन् 1869 म हुआ था
वहीं नेहरू का 1889 में। यह अंतर लगभग एक पिता और पुत्र की आयु के अंतर के बराबर
था। इसलिए गांधी ने नेहरू को अपना पुत्र ही माना। इस संबंध के अतिरिक्त दोनों के बीच प्रगाढ़
वैचारिक संबंध था। परंतु दोनों के विचारों म कई विरोधाभास भी थे। इन विरोधाभासों के
बावजूद दोनों के संबंधों म कभी खटास नहीं आई। विरोधाभास के बावजूद नेहरू ने आजादी के
आंदोलन म गांधी का नेतृत्व स्वीकार किया। गांधी की मान्यता थी कि साध्य के साथ-साथ उसे हासिल
करने के साधनों की पवित्रता भी आवश्यक है। गांधी की मान्यता थी कि आजादी का आंदोलन
अहिंसा के रास्ते ही लड़ा जा सकता है। गांधी की यह मान्यता पूर्णतरू आध्यात्मिक आधार
पर थी। साधारणतरू नेहरू इस सिद्धांत से पूरी तरह सहमत नहीं होते परंतु मैदानी स्थिति को देखते


हुए नेहरू ने इस सिद्धांत को पूरी तरह स्वीकारा। नेहरू की मान्यता थी कि गांधी बुनियादी
रूप से एक जन्मतरू विद्रोही थे। नेहरू स्वयं भी आदतन विद्रोही थे। दोनों के इस वैचारिक स्वरूप ने
दोनों के बीच अत्यधिक प्रगाढ़ संबंध स्थापित कर दिए थे। गांधी के नेतृत्व संभालने के पूर्व कांग्रेस
एक क्लब की तरह अपनी गतिविधियां संचालित करती थी। गांधी ने उसका स्वरूप ही बदल डाला। गांधी
ने कांग्रेसजनों के मन म साहस और बहादुरी का संचार कर दिया था। अंग्रेजों के राज के
दौरान देश की जनता डरी हुई थी। अंग्रेजों के भय से भरपूर शासन के सामने समस्त
भारतवासी नतमस्तक थे। किसी म भी उनके विरूद्ध आवाज उठाने की हिम्मत नही थी। गांधी ने लोगों म
यह हिम्मत जगाई वह भी अहिंसा के रास्ते से। नेहरू ने इस रास्ते को इसलिए भी स्वीकार किया
क्योंकि वे जानते थे कि देश की जनता म हिंसा के माध्यम से ब्रिटिश साम्राज्य का मुकाबला
करने की ताकत नहीं है। ब्रिटिश शासन भारत पर अपनी सैन्य शक्ति के आधार पर
नियंत्रण रखे हुए था। सन् 1857 की क्रांति की असफ लता का यही सबक था कि हिंसक विरोध से
अंग्रेेजों के खूंखार शासन के पैर उखाडऩा संभव नहीं है। रोलेट एक्ट का जिस तरह
पूरे देश म शांतिपूर्ण विरोध किया गया उससे गांधी की रणनीति म नेहरू की आस्था और
गहरी हो गई। उसके बाद जलियांवाला बाग का लोमहर्षक कांड हुआ। इस घटना के बाद
गांधीजी पंजाब गए। पंजाब के भ्रमण के दौरान नेहरू ने गांधी के सेक्रेटरी की तरह
कार्य किया। इस दरम्यान नेहरू ने गांधी को नजदीक से देखा और गांधी के वैचारिक आधार
को परखा। यद्यपि नेहरू वैचारिक दृष्टि से गांधी के नजदीक आते गए पंरतु उन्होंने समाजवादी
विचारधारा से नाता नहीं तोड़ा। सच पूछा जाए तो समाजवादी विचारधारा के बीज उनके
मस्तिष्क म उस समय अंकुरित हो गए थे जब वे ब्रिटेन के कैब्रिज विश्वविद्यालय के छात्र थे। इसी
दरम्यान वे फेबियन वाद (जो समाजवाद की एक शाखा थी) के संपर्क म आए। इसी दौरान रूस म
बोल्शेविक क्रांति हो चुकी थी और लेनिन के नेतृत्व म वहां नई शासन व्यवस्था स्थापित हो चुकी
थी। यह एक ऐसा खूबसूरत संयोग था कि समाजवाद और साम्यवाद से प्रभावित होने के बावजूद
गांधीजी और उनके सिद्धांतों म नेहरू की आस्था नहीं डगमगाई। एक स्थान पर उन्होंने लिखा है
शनै: शनै: समाजवाद और कम्युनिस्ट विचारधारा से मैं प्रभावित होता रहा। परंतु
मेरी आस्था दोनों सिद्धांतों के सैद्धांतिक पक्ष पर रही और उनके आधार पर समाज व्यवस्था
बनाने के बारे म मैंने कभी नहीं सोचा। मेरा विश्वास था कि नई व्यवस्था का निर्माण
शांतिपूर्ण तरीकों से होना चाहिए। उनके इस विचार से स्पष्ट होता है कि नेहरू, गांधी के
समान साध्य व साधन दोनों के शांतिपूर्ण होने म विश्वास रखते थे। नेहरू ने आजादी की लड़ाई
के शांतिपूर्ण और अहिंसक होने के गांधीजी के सिद्धांत को पूर्ण रूप से स्वीकार किया
था। नेहरू मानते थे कि हिंसक तरीकों से, अंग्रेज अधिकारियों की हत्या से, आजादी हासिल नहीं
की जा सकती। यह आजादी की लड़ाई का दिवालियापन होगा। वे जानते थे कि इस तरह की बचकानी
गतिविधियों से ब्रिटिश साम्राज्य की नींव को नहीं हिलाया जा सकता। नेहरू ने इसी तरह के
विचार सन् 1936 म लखनऊ कांग्रेस की अध्यक्षता करते हुए व्यक्त किए थे। यही कारण है कि
नेहरू ने गांधी के असहयोग आंदोलन के कार्यक्रम का तहेदिल से स्वागत किया था। अपनी इस आस्था
के बावजूद नेहरू के जीवन म कभी-कभी ऐसे क्षण जरूर आए जब उनके मन म गांधी की अहिंसक
रणनीति के प्रति शंका पैदा हुई। एक बार ऐसा क्षण तब आया जब गांधी ने फ रवरी 1922
म असहयोग आंदोलन वापिस ले लिया। हुआ यह कि असहयोग आंदोलन के दौरान एक आक्रोशित भीड़
ने चौरी चौरा म स्थित एक पुलिस स्टेशन म आग लगा दी जिससे 22 पुलिसकर्मी जलकर मर गए। इस
घटना के तुरंत बाद गांधी ने असहयोग आंदोलन वापिस ले लिया। नेहरू को गांधी का यह
निर्णय पसंद नहीं आया। नेहरू की मान्यता थी कि सिर्फ एक घटना के कारण पूरे आंदोलन
को वापिस लेना उचित नहीं है। आखिर करोड़ों लोगों को एक साथ अहिंसक तौर-तरीकों का


प्रशिक्षण नहीं दिया जा सकता। इस घटना को लेकर नेहरू के मन म उथल-पुथल तो मची परंतु
उसके बावजूद गांधीजी के नेतृत्व म उनकी आस्था कायम रही।
नेहरू ने अपने बाद के भाषणों और अपनी आत्मकथा म लगभग यह स्पष्ट किया था कि श्मेरी
अहिंसक रणनीति म आस्था इसलिए है क्योंकि व्याप्त परिस्थितियों के कारण वह भारत म प्रभावी
रहती है। अर्थात, यदि आजादी का अहिंसक आंदोलन प्रभावशाली नही होता तो शायद नेहरू उसे
नहीं स्वीकारते। काफी गहन चिंतन के बाद नेहरू इस नतीजे पर पहुंचे कि आजादी का आंदोलन
तभी सफल होगा जब उसका स्वरूप अहिंसक होगा। सन् 1929 म लाहौर कांग्रेस की अध्यक्षता करते
हुए नेहरू ने कहा था, श्यदि हम हिंसक रास्ता अपनाते हैं तो इस बात की पूरी संभावना रहेगी कि
वह बीच म भटक जाए। हम भारतीयों के पास अहिंसक आंदोलन के लिए साधन उपलब्ध हैं और उसे
संचालित करने के लिए हम प्रशिक्षित हैं। इस स्थिति म यह उचित होगा कि आजादी के आंदोलन के
संचालन के लिए हम अहिंसक रास्ता अपनाएं। अपनी पुस्तक विश्व इतिहास की झलक म नेहरूजी लिखते हैं
हम भारतीयों को हथियारों का उपयोग नहीं आता है। इसलिए सशस्त्र क्रांति पूरी तरह से
असंभव है। इसके बावजूद भी यदि हम हथियारों के माध्यम से आजादी का आंदोलन संचालित करते
हैं तो चन्द घंटों म ही अंग्रेज सरकार उसे छिन्न-भिन्न कर देगी। इन्हीं तर्कों के चलते नेहरू ने
गांधी के रास्ते को सैद्धांतिक व व्यवहारिक रूप से अपना लिया। आजादी मिलने के बाद नेहरू
के नजरिए में परिवर्तन आना स्वाभाविक था। यह परिवर्तन उस समय स्पष्ट रूप से सामने आया
जब गोवा के प्रश्न पर संसद म बहस चल रही थी। गोवा, पुर्तगाल के कब्जे म था। पुर्तगाल किसी हालत
म गोवा को मुक्त करने को तैयार नहीं था। ऐसी स्थिति म गोवा को मुक्त कराने के लिए
हथियारों का उपयोग आवश्यक था। इस मुद्दे को लोकसभा म उठाते हुए आचार्य कृपलानी ने
जानना चाहा कि क्या गोवा को मुक्त कराने के लिए सरकार हथियारों का उपयोग
करेगी। प्रधानमंत्री की हैसियत से नेहरू ने उत्तर दिया-श्हांश्। नेहरू ने आगे कहा कि
कोई भी सरकार पूरी तरह से अहिंसा के रास्ते को नहीं अपना सकती। सरकार को
थलसेना, वायुसेना और नौसेना रखना पड़ेगी। उसे पुलिस भी रखनी पड़ेगी। यह सारा अमला
अपनी रक्षा के लिए रखना होगा। नेहरू ने संसद को सूचित किया कि अहिंसा के प्रतीक गांधी ने
कश्मीर म फौज भेजने के हमारे निर्णय का पूरी तरह से समर्थन किया था। न सिर्फ समर्थन
किया था वरन् उसे आशीर्वाद भी दिया था। गांधीजी ने ऐसा इसलिए किया था क्योंकि वे
कश्मीर और वहां की जनता को पाकिस्तान द्वारा भेजे गए खूंखार लोगों से बचाना चाहते थे।
नेहरू गांधी को कितना चाहते थे यह उनके उन उद्गारों से ज्ञात होता है जो उन्होंने गांधी की
हत्या के बाद कहे थे। उन्होंने कहा था हमारे जीवन से रोशनी चली गई है और चारों ओर
अंधकार है। मैं नहीं जानता कि आपसे क्या कहूं और कैसे कहूं। हमारे प्रिय नेता, जिन्ह हम
बापू कहते थे, हमारे राष्ट्रपिता, नहीं रहे। मैंने कहा रोशनी चली गई है। लेकिन शायद
मैं गलत कह रहा हूं क्योंकि यह रोशनी कोई मामूली रोशनी नहीं थी। जिस रोशनी ने इस
देश को कई वर्षों तक प्रकाशित किया वही आनी वाली कई सदियों तक रहेगी और उसे सारी
दुुनिया देखेगी। यह रोशनी असंख्य लोगों को ढाढस बंधाएगी। क्योंकि यह रोशनी मात्र हमारे
हाल के अतीत का प्रतिनिधित्व नहीं करती। यह सनातन सत्य को दिखाती है। यह हम सही राह दिखाती है, हम
गलतियां करने से बचाती है और इसी रोशनी ने हमारे देश को आजादी दिलाई