गांधी जी के आत्मनिर्भरता के संदेश की प्रासंगिकता

हाल के समय में विश्व के अनेक देशों में जैसे-जैसे ग्रामीण आजीविकाओं को प्रतिकूल दौर से
गुजरना पड़ा है, वैसे-वैसे गांधीजी के गांवों की आत्मनिर्भरता बढ़ाने के संदेश का महत्व
और स्पष्ट हुआ है। गांधीजी ने अर्थव्यवस्था व आजीविकाओं की मजबूती के लिए गांवों की
आत्मनिर्भरता को बहुत महत्व दिया था। कुछ समय के लिए लोगों को लगा कि आधुनिक दुनिया में
ऐसी आत्मनिर्भरता का महत्व कम हो गया है, पर कई झटके लगने के बाद अब इस
आत्मनिर्भरता के महत्व को नए सिरे से समझा जा रहा है और इसके साथ ही गांधीजी के
संदेश की प्रासंगिकता और स्पष्ट हो गई है।


गांवों की आत्मनिर्भरता को बढ़ाने वाले प्रयास सराहनीय ही नहीं जरूरी भी है। जैसे-
जैसे खेत छोटे हो रहे हैं, विविधतापूर्ण ग्रामीण अर्थव्यवस्था की जरूरत अधिक महसूस की जा
रही है। अतरू आस-पास दैनिक जरूरत की जितनी चीजों का उत्पादन गांव में या उसके आसपास
हो सके, उतना ही गांव में रोजगार अपने आप बढ़ेंगे व गांववासियों की छिपी हुई
रचनात्मकता और प्रतिभा को आगे आने का अवसर मिलेगा। जैसे-जैसे हानिकारक
रसायनों का उपयोग बढऩे से मिट्टी का प्राकृतिक उपजाऊपन कम होने की समस्या बढ़ रही है,
वैसे-वैसे इन रसायनों पर निर्भरता कम करने की आवश्यकता भी महसूस हो रही है। जैसे-
जैसे बीज के पेटेंट का विवाद बढ़ रहा है, वैसे-वैसे किसानों द्वारा अपने परंपरागत
बीज बचाने की जरूरत भी स्पष्ट हो रही है। अतरू कई तरह से, कई स्तरों पर गांवों की आत्म-
निर्भरता की जरूरत बढ़ रही है। जो भी संगठन गांव की आत्मनिर्भरता बढ़ाने की बात करें
वह इस बारे में समग्रता से, बहुपक्षीय स्तर पर प्रयास आरंभ कर सकते हैं या फिर अपने
संसाधनों व प्रयास की सीमा को देखते हुए मात्र किसी एक या दो पहलू पर काम कर सकते हैं किन्तु
उनकी सोच का समग्र होना जरूरी है। चाहे संस्था एक ही पहलू पर काम करे, पर
आत्मनिर्भरता की समग्र सोच उसके पास होनी चाहिए। उस सोच को उसे निरंतर विकसित करना
चाहिए व सब गांववासियों के साथ इस विषय पर निरंतर बातचीत होनी चाहिए। यदि यह समग्र सोच गांव
में विकसित होती रही तो चाहे एक छोटी शुरूआत से यह कार्य आरंभ हुआ हो, धीरे-धीरे अन्य
दरवाजे अपने आप खुलते जाएंगे व तरह-तरह के सार्थक, रचनात्मक प्रयास जुड़ते चले जाएंगे।
सभी गांववासियों को या अधिक से अधिक गांववासियों को साथ लेकर चलने की जरूरत है। कुछ
शोषक, सामंती लोग तो शायद ऐसे प्रयास से जुड़ेंगे ही नहीं पर सभी जनसाधारण को किसी भी
भेदभाव के बिना इस प्रयास से, इस सोच से जोडऩा चाहिए। हमारे ग्रामीण समाज के विभिन्न
समुदायों के पास तरह-तरह की समझ है, अपनी विशिष्ट कुशलताएं हैं जिनका भरपूर लाभ
उठाना चाहिए।
महिलाओं को इस प्रयास में जोडऩा बहुत जरूरी है। कृषि, पोषण, दस्तकारी, वन उपज, शिक्षा,
स्वास्थ्य सभी में उनकी भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। यदि महिलाओं की बात पर आरंभ से ध्यान
दिया जाता तो गांवों की बाहरी निर्भरता इतनी कभी न बढ़ती। खैर, जो पिछली गलतियां हुईं सो
तो हो गईं। अब भविष्य में गांवों की आत्मनिर्भरता को प्राप्त करने में महिलाओं की पूरी
भागीदारी चाहिए।
बुजुर्गों की बात पर ध्यान देना बहुत जरूरी है। जब वर्तमान की गलतियों से कुछ सीखकर हम
पुराने विकल्पों की तलाश करेंगे तो हमारी सबसे अधिक मदद बुजुर्ग ही कर सकेंगे। बुजुर्ग
पुरुषों व महिलाओं दोनों कीे सहायता लेनी चाहिए। अनेक बुजुर्गों के पास जल संरक्षण,
तालाब, खेती, वनस्पति, जैव-विविधता के ज्ञान का भंडार है। पर पिछले कुछ वर्षों से इस
परंपरागत ज्ञान की उपेक्षा होने के कारण उन्हें लगता है कि इसकी कोई कद्र ही नहीं रह
गई है। न कोई उनसे इस बारे में पूछता है, न वे कुछ कहते है बस उदास से, उपेक्षित से अपने दिन
काट रहे है। जब हम उनके पास उनकी जानकारी को पूरा महत्व देते हुए उनकी पूरी बात
सुनने जायेंगे तो निश्चय ही उन्हें अच्छा लगेगा और वे विस्तार में, प्यार से पूरी बात
समझाऐंगे। हो सकता है वे अपने ज्ञान के साथ कुछ पुरानी दकियानूसी बातों या अंधविश्वासों
की बात भी कर बैठें। यह भी हो सकता है कि वे ऐसी कई बातें बताने बैठ जायें जिनमें
हमारी विशेष रुचि नहीं है। उस ंिस्थति में हमें धैर्य रखना होगा व धीरे-धीरे छांटकर
सार्थक व महत्वपूर्ण ज्ञान उनसे प्राप्त करना होगा। एक बार यह ज्ञान प्राप्त करने के बाद
हम उन्हें भूल न जाएं। इसके आधार पर हम जो भी प्रयोग करें या कार्य को आगे बढ़ाएं तो


इसकी जानकारी उनको निरन्तर देते रहें। इससे उन्हें भी अच्छा लगेगा और हमें उनकी
बहुमूल्य सलाह भी मिलती रहेगी। समग्र रूप में कार्य करें तो जल संरक्षण, जंगल बचाना और
गांववासियों की जरूरतों को देखते हुए नये पेड़ लगाना, स्थानीय बीजों का संग्रहण, कम्पोस्ट
तैयार करना, जरूरत के अनुसार स्थानीय वनस्पति आधरित कीड़ों से बचाव तैयार करना,
तरह-तरह के कुटीर उद्योगों का प्रसार करना-ये सभी काम गांवों को आत्मनिर्भरता की
दिशा में ले जाने वाले है, सभी जरूरी हैं। मूल सिद्धांत यह है कि जो काम हम स्वयं कर सकते हैं
उसे हम स्वयं करें, जिस चीज का उत्पादन स्थानीय स्तर पर हो सकता है उस बारे में बाहरी
निर्भरता न रहे। अपना काम स्वयं, अपने यहां करने का अर्थ है अपने व पड़ोसी गांव या कस्बे
में, गांव की आत्मनिर्भरता का अर्थ भी यही है-अपने व पड़ोसी गांव की आत्मनिर्भरता। किसी भी
गांव में आत्मनिर्भरता का प्रयास आरंभ हो तो जितना हो सके पड़ोसी गांवों व कस्बे को इस
प्रयास में जरूर जोडऩा चाहिए। निकट के कस्बे शहर में भी संबंध बनाने चाहिए। इससें
ग्राम-उत्पाद विशेषकर बिना रसायनों के उगाए कृषि उत्पाद की सीधे ग्राहक को अच्छी कीमत
पर बिक्री करने में भी मदद मिलेगी। ऐसे किसी भी बड़े आदर्श को लेकर चलने वाले कार्य में
सबसे महत्वपूर्ण भूमिका तो युवा वर्ग की है। यहां युवक वर्ग से तात्पर्य युवकों और युवतियों,
छात्रों और छात्राओं दोनों से है। यह अलग से इस कारण कहना पड़ रहा है कि कई बार
युवा वर्ग को एकत्र करने के नाम पर मात्र युवकों को ही ध्यान में रखा जाता है। यह सच है
कि आज युवा वर्ग जिस माहौल में बड़ा हो रहा है उससे तो वह गांव की आत्मनिर्भरता जैसी बातों
से पूरी तरह कट रहा है। उसका स्वाभाविक आकर्षण शहर, शहरी जीवन-शैली की
ओर है। गांव वैसा ही पिछड़ा नजर आता है, फिर परंपरागत तकनीक आदि से कुछ सीखने की
बात तो और भी पिछड़ी व बेकार की बात उसे लगती है। जो अध्ययनशील, गंभीर किस्म के युवा
हैं, उनका भी अधिक सुझाव कैरियर की दृष्टि से पढ़ाई में आगे रहने में है। अतरू पहली
नजर में तो इस बात की संभावना कम ही नजर आती है कि गांवों व कस्बों के अधिकांश युवा
गांवों की आत्मनिर्भरता या गांधीजी की सोच की अर्थव्यवस्था संबंधी जैसी बातों से आज की
परिस्थितियों में प्रभावित हो सकते हैं। किन्तु दूसरी ओर यह भी सच है कि एक बार किसी आदर्श
को तर्कसंगत ढंग से स्वीकार कर लेने के बाद फिर जिस उत्साह व लगन से युवा वर्ग उसकी सफलता
के लिए कार्य करता है, वह ऊर्जा अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। अतरू असली चुनौती तो तर्कसंगत ढंग से ऐसे
संदेश युवा वर्ग तक ले जाने की है। यह भी ध्यान में रखने वाली बात है कि आधुनिक,शहरी
जीवन-शैली की चमक-दमक युवा को आकर्षित करती है, पर उससे कुछ सम्पर्क के बाद वह यह कड़वा
सबक भी सीख लेता है कि अधिकांश युवाओं को यहां केवल बेरोजगारी मिल रही है या ऐसे
कार्य मिल रहे हैं जिसमें कोई मान-सम्मान या रचनात्मकता नहीं है। इस तरह के अनुभवों से दो-
चार होने के बाद युवा भी ऐसे किसी विकल्प के बारे में सोचते जरूर हैं जिससे उन्हें
सम्मानजनक आजीविका मिल सके। अतरू यदि प्रयास किया जाए तो युवा ग्रामीण आत्मनिर्भरता के
अभियान की ओर पूरे उत्साह से आकर्षित हो सकते हैं। इस पूरे संघर्ष में आत्मसम्मान का
बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। आज लोग बड़े शहर के और विदेश के सामान की ओर बहुत जल्दी
आकर्षित होते हैं जिसके लुभावने विज्ञापन वे प्राय: टीवी पर देखते हैं। इसके मुकाबले
गांव या कस्बे की बनी कोई चीज, चाहे वह मजबूती या पौष्टिक तत्व जैसे गुणों में बेहतर हो,
नीरस नजर आती है। एक मुख्य कारण है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों का बाजार तेजी से बढ़
रहा है व कुटीर उद्योग सिमट रहे हैं। इन विज्ञापनों की चमक-दमक से टक्कर लेने का एक
ही उपाय है कि अपने गांव के उत्पाद के बारे में गांव (व आसपास) के लोगों में आत्मसम्मान
उत्पन्न करो। यह हमारा कपड़ा है, हमारे गांव की खादी है। कपास बोने से लेकर सूत
कातने, कपड़ा बुनने व कुरता सिलने का काम हमारे गांव के लोगों ने परस्पर सहयोग से


किया है। अत: हमारे लिए तो यह दुनिया का सबसे बहुमूल्य कपड़ा है-जिस दिन हम यह भावना
उत्पन्न कर सकेंगे उस दिन ग्रामीण उद्योगों की प्रगति को कोई नहीं रोक सकेगा।
इसका यह अर्थ कतई नहीं लगाना चाहिए कि केवल आत्म-सम्मान से कार्य चल जाएगा व हमें ग्रामीण
उद्योगों के उत्पादों की गुणवत्ता सुधारने के या कीमत कम रखने के प्रयास नहीं करने
चाहिए। यह प्रयास तो पूरे करने चाहिए। उत्पाद घटिया होगा या मुस्तैदी से काम न होने के
कारण लागत बढ़ेगी तो केवल भावनाओं के आधार पर बात नहीं बन पाएगी। अतरू काम तो
बढिय़ा टिकाऊ होना ही चाहिए, तभी उसके साथ गांव के आत्मसम्मान की बात जुड़ भी पाएगी।
आत्मसम्मान का स्रोत ही यह होगा कि यह हमारा पूरी तरह से मेहनत और ईमानदारी का काम
है।
क्या इस तरह की पहल आज के समय में व्यवहारिक है? कठिनाईयां तो बहुत हैं पर यदि ऐसे
अनेक प्रयास परस्पर सहयोग व निष्ठा से किए जाएं तो कठिन स्थितियों के बावजूद ऐसे प्रयास
अर्थव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण स्थान बना सकते हैं। ऐसे प्रयासों में रचनात्मकता बहुत है व इस
कारण एक प्रयास से प्रोत्साहित होकर दूसरा प्रयास आगे आता है और एक कड़ी बनती चली
जाती है।