बहुराष्ट्रीय मंच पर राष्ट्रहित की रक्षा

रीजनल कॉम्प्रेहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप  (आरसीइपी) बुनियादी तौर पर दक्षिण-ंपूर्व एशियाई देशो  का संगठन है,
जिसका सबसे प्रभावशाली सदस्य चीन है. इसके मद्देनजर यह सु-हजयाना नादानी है कि यह एक ऐसा मंच है, जिस पर अपनी मौजूदगी दर्ज कराना भारत की राजनयिक मजबूरी है.जो लोग वर्तमान सरकार की आलोचना कर रहे हैं कि आरसीइपी से बाहर रहना भारत को नुकसान ही पहुंचा सकता है, वे नजरंदाज कर रहे हैं कि इस संगठन में रहकर भारत की अर्थव्यवस्था निरंतर चीन से होनेवाले अबाध निर्यात के कारण भारी दबाव में रहती. नीति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष पनगड़िया का बयान
कुछ मायने नहीं रखता. जब वह स्वयं भारत सरकार के फैसलों को प्रभावित करने की स्थिति में थे, तब उन्होंने इस
वि-ुनवजयाय में मुखर होने की जरूरत नहीं सम-हजयी और निरंतर 'सबसे पहले भारत' वाली रणनीति की हिमायत करते रहे थे. कांग्रेस का यह दावा भी हास्यास्पद है कि उसी के कड़े प्रतिरोध के कारण मोदी सरकार ने यह फैसला लिया है. इस
बहुरा-ुनवजयट्रीय जमावड़े में जुड़ने की पे-रु39याक-रु39या बहुत उत्साह से यूपीए के कार्यकाल में ही की गयी. उस समय फ्री ट्रेड सम-हजयौते को इस संगठन के क्षेत्र में लागू करने का लाभ चीन को ही हुआ है, जिसने हमारे उद्यमियों और नवजात
औद्योगिक क्षमता को ध्वस्त करने के लिए डंपिंग अर्थात् लागत से कम कीमत पर माल विदे-रु39याी बाजार में उतारने की
कपटनीति अपनायी और 2004 से 2014 के बीच के व-ुनवजर्याों में असंतुलन बेलगाम होता चला गया.
       हां, मौजूदा सरकार को इसका जवाब अव-रु39यय देना चाहिए कि आखिरी क्षण तक क्यों वह इस प्रयास में लगी रही कि भारत पूरी तरह आरसीइपी से जुड़ सके? बताया यह जा रहा है कि हमारी सरकार का प्रयास भारत के हित में रियायतें हासिल करने का था. हमारी सम-हजय में चीन से यह आ-रु39याा करना व्यर्थ है. चीन की अतिमहत्वाकांक्षी रे-रु39याम राज्य परियोजना से अलग रहने का फैसला कर भारत ने चीनी घेराबंदी को नाकाम करने में कमोबे-रु39या सफलता हासिल की है और चीन की अर्थव्यस्था पर बो-हजय ब-सजय़ा है. चीन के लिए यह नाकाबिले-ंउचयबर्दा-रु39यत है कि आकार और आबादी में ही नहीं, सैनिक -रु39याक्ति तथा आर्थिक क्षमता में उससे छोटा भारत उसकी राह में जब चाहे अड़ंगे डाल सकता है. हमारा राजनय कितना ही कु-रु39याल क्यों न हो, चीन के प्रभुत्व वाले किसी संगठन में अपने रा-ुनवजयट्रहित के अनुकूल रियायतें हासिल करने की उससे आ-रु39याा हम नहीं कर सकते.यहां कुछ महत्वपूर्ण बातों की याद दिलाना जरूरी है. प्रधानमंत्री मोदी ने हाल के दिनों में 'पूरब की ओर सक्रिय होने' के संकेत ओजस्वी आह्वान में दिये थे. यह पूछना तर्कसंगत है कि क्या बदली परिस्थिति में यह राजनयिक प्राथमिकता बदल जायेगी? मोदी अपनी आत्मवि-रु39यवासी मुद्रा में ब्राजील में आयोजित ब्रिक्स सम्मेलन में भाग लेने रवाना हो गये यह द-रु39र्यााते हुए कि हमारे पास आरसीइपी के अलावा अन्य विकल्प भी हैं.पर यह बात भुलायी नहीं जानी चाहिए कि इस संगठन में भी चीन -रु39याामिल है. जिस समय ब्रिक्स का गठन किया गया, इस संगठन का महिमामंडन यह कह कर किया गया कि यह तीन महाद्वीपों के अभूतपूर्व आर्थिक और सामरिक सहयोग की जमीन तैयार कर रहा है तथा अंतररा-ुनवजयट्रीय संबंधों में अमोरिकी प्रभुता को संतुलित कर सकता है. चूंकि ब्रिक्स में रूस भी मौजूद है, तो यह सोचा जा रहा था कि चीन की मनमानी निरंकु-रु39या नहीं रहेगी. कुल मिलाकर यह संगठन संयुक्त राज्य अमेरिका के दबाव से मुक्त होने का प्रयास लग रहा था.क्या आज भारत ब्रिक्स के जरिये आरसीइपी में अपनी -रु39यार्तों पर पुनरू प्रवे-रु39या का मार्ग सुगम बना सकता है?
              हमारी सम-हजय में इसकी संभावना बहुत कम है. चीन की सक्रियता आरसीइपी में ब-सजय़ने के साथ यह त्रिमहाद्वीपीय संगठन नेपथ्य में चला जायेगा. पुतिन के रूस की दिलचस्पी मध्य-ंउचयपूर्व और पूर्वी यूरोप में दक्षिणी अमेरिका, अफ्रीका और दक्षिण-ंउचयपूर्व ए-िरु39याया की तुलना में कहीं अधिक है. रूस से यह आ-रु39याा नहीं की जा सकती कि वह भारत को चीन के मुकाबले समर्थन देने के लिए आगे ब-सजय़ेगा. इस घड़ी ब्रिक्स की अहमियत राजनयिक पैंतरेबाजी से अधिक नहीं सम-हजयी जानी चाहिए. दक्षिणी अमेरिका इन दिनों उथल-ंउचयपुथल के दौर से गुजर रहा है. वेनेजुएला ही नहीं, बोलीविया, अर्जेंटिना और मैक्सिको तथा चिली भी अस्थिर हैं. ब्राजील के लिए इस घटनाक्रम से अछूता रहना असंभव है. इसके अलावा दक्षिण अमेरिकी गोलार्ध का कोई दे-रु39या अंततरू संयुक्त राज्य अमेरिका की इच्छा के विरुद्ध आचरण का दुस्साहस नहीं कर सकता.सार संक्षेप यह है ब्रिक्स की कल्पना आरसीइपी के विकल्प के रूप में नहीं की जा सकती. अब बचा रहता है यूरोपीय समुदाय. इस समय यह संगठन ब्रेक्जिट की जटिल चुनौती से जू-हजय रहा है. फ्रांस के रा-ुनवजयट्रपति मैक्रां यह बात बेहिचक स्वीकार करते हैं कि अमेरिका द्वारा अटलांटिक भाईचारा तोड़ने के बाद यूरोप को अकेले ही अपनी हिफाजत करनी है और अपनी खु-रु39याहाली की चिंता भी. हमें यह स्वीकार करना होगा कि जो विकल्प यूरोप तला-रु39या कर रहा है, उसमें फिलहाल भारत सर्वोपरि नहीं.यह बात नकारी नहीं जा सकती कि पिछले पांच साल में मोदी सरकार ने कई विकल्प तला-रु39यो हैं, परंतु अपेक्षित आर्थिक विकास और 'बड़े सुधारों' के अभाव में भारत प्रत्या-िरु39यात -रु39याक्ति बनकर नहीं उभर सका है. चीन निरंतर पाकिस्तान का इस्तेमाल हमें पंगु बनाने के लिए करता रहा है. दुर्भाग्य से चीन के प्रभाव में नेपाल की सरकार के तेवर भी भारत-ंउचयविरोधी रहे हैं. श्रीलंका को भारत से दूर करने में भी चीन को कुछ कामयाबी मिलती नजर आती है.अर्थात चीन का राजनय भारत को दक्षिण ए-िरु39याया में उल-हजयाये रखने की को-िरु39या-रु39या करता रहा है. भारत यह आ-रु39याा भी नहीं कर सकता कि अमेरिका उसकी खास मदद कर सकता है. महाभियोग के -िरु39याकंजे में फंसे पुनर्निर्वाचन के व-ुनवजर्या में ट्रंप के लिए चीन के साथ वाणिज्य युद्ध को समाप्त करना प्राथमिकता बनती जा रही है. रूस के साथ मुठभेड़ के विस्फोटक बनने का जोखिम भी कम नहीं हो रहा है. अफगानिस्तान और सीरिया में अमेरिकी नीतियों की विफलता जगजाहिर है.
         भारत के लिए इस वक्त आर्थिक विकास की दर ब-सजय़ाने की जरूरत सबसे बड़ी है. आंतरिक राजनीति की सुस्थिरता भी इतनी ही जरूरी है. सामाजिक सद्भाव को निरापद रखकर ही यह उपलब्धियां संभव हैं. तभी हमारा राजनय किसी भी बहुरा-ुनवजयट्रीयमंच पर प्रभाव-रु39यााली और रा-ुनवजयट्रहित की रक्षा करने में समर्थ होगा.