अयोध्या समाधान: जबरा मारे, रोने न दे

अचरज की बात नहीं है कि अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर, करीब-करीब सभी
की पहली और सबसे प्रमुख प्रतिक्रिया, एक राहत मिलने की है। एक आफत से गला छूटने पर सभी
राहत महसूस कर रहे हैं, विवाद के दोनों पक्षों के साथ खड़े लोगों से लेकर, इस मामले में
तटस्थ रहे लोगों तक। और इसमें जरा भी अचरज नहीं है कि सभी, शब्दशरू सभी पक्षों की पहली
प्रतिक्रिया, इस संबंध में खबरदार करने की रही कि ऐसा कुछ भी नहीं हो, जिससे भावनाएं
भड़कें और शांति के लिए खतरा पैदा हो जाए। इसी का दूसरा पहलू, इसके आह्वड्ढानों में देखा
जा सकता है कि अदालत का फैसला चाहे जो भी आया हो, कम से कम झगड़े का निपटारा तो हो
गया। रात गई सो बात गई। अब बीती को भुलाकर आगे बढऩे का समय है। अयोध्या से आगे


क्या? बेशक, यह भावना बहुत व्यापक है और इसकी सदाशयता को अनदेखा नहीं किया जा सकता
है। लेकिन, इसे अगर कोरी सदाशयता ही नहीं रहने देना है, तो इस सिलसिले में यह याद रखना
भी इतना ही जरूरी है कि राहत के इस एहसास का, सत्तर साल पुराने विवाद में आए सर्वोच्च
न्यायालय के फैसले के न्यायपूर्ण होने न होने से शायद ही कोई संबंध है। इस एहसास का संबंध
तो मुख्यतरू इसके डर से है कि इस मामले में कुछ बहुत भयावह घट सकता था, जिससे हम बच गए हैं।
जाहिर है कि इस डर और अघट न घटने पर राहत का संबंध, इस कड़वी सच्चाई से है कि यह
फैसला उस विवाद का है जिसने अस्सी के दशक के उत्तराद्र्घ से और विशेष रूप से 1992 के
दिसंबर में साढ़े चार सौ साल पुरानी बाबरी मस्जिद के विशाल भीड़ जुटाकर गिराए
जाने की पृष्ठड्ढभूमि में, भारत में स्वतंत्रता के बाद का सांप्रदायिक हिंसा का सबसे भयानक
ज्वार भड़काया था। इसका एक विशेष रूप से भयानक खून-खराबे भरा अध्याय, बाबरी मस्जिद
के ध्वंस के दस साल बाद तक, 2002 में गुजरात में लिखा ही जा रहा था।
इसके साथ यह जोडऩा भी जरूरी है कि 9 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय पीठ द्वारा
सुनाया गया सर्वसम्मत फैसला, उस विवाद का फैसला है, जिसे अस्सी के दशक के पूर्वाद्र्घ में अपनी
राजनीतिक जमीन खिसकती देख रहे भाजपा-संघ परिवार ने, उछालना शुरू किया था और
सुनियोजित तरीके से सांप्रदायिक उन्माद भड़काने के जरिए आगे बढ़ाया था। यह सिलसिला
बाबरी मस्जिद के ध्वंस में अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंचा था। यह भी याद रहे कि इस मुहिम के
अगुआ रहे लालकृष्ण आडवानी के शब्दों में, इस कथित राम मंदिर आंदोलन ने ही भाजपा-संघ
परिवार को देश की सत्ता तक पहुंचाया थाकृपहली बार 1998 में और दूसरी बार, 2014
में। और इसी का फल है कि वे आज भी सत्ता में हैं, जहां से वे श्मंदिर वहीं बनाएंगे की अपनी
वचनबद्घता को पूरा करने के लिए, न्यायिक निर्णयों को भी प्रभावित कर सकते हैं। इसलिए, यह
याद दिलाना भी जरूरी है कि कल तक श्मंदिर वहीं बनाएंगे की कसमें खाने वाले, जो आज अचानक
न कोई जीता, न कोई हारा के सदुपदेश दे रहे हैं और श्रामभक्ति, रहीमभक्ति और
भारतभक्ति की दुहाइयां दे रहे हैं, वे सिर्फ लोगों की आम सदाशयता का इस्तेमाल खासतौर पर
अल्पसंख्यकों से शिकायत करने का अधिकार भी छीन लेने के लिए ही करना चाहते हैं। इसीलिए,
न सिर्फ यह कहना जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट ने, मालिकाना अधिकार के विवाद का फैसला,
बहुसंख्यक समुदाय के दावे के पक्ष में और अल्पसंख्यक समुदाय के दावे के खिलाफ किया है, बल्कि
यह भी रेखांकित करना जरूरी है कि दसियों साल से लटके पड़े इस विवाद में फैसला करने
की ताबड़तोड़ तत्परता दिखाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय तो दिया है, पर न्याय नहीं दिया है।
सिर्फ निर्णय देने किंतु न्याय न देने का इससे बढ़कर सबूत क्या होगा कि भारत के आजाद
होने के फौरन बाद, खुद सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के अनुसार अवैध रूप से, मस्जिद पर
अतिक्रमण कर उसके अंदर मूर्तियां रखकर, बाहरी आहते से अलग, मस्जिद मुख्य हिस्से पर विवाद
खड़ा किया गया था। और इसे आगे चलकर 1992 के दिसंबर में कानून के और अंधाधुंध
अतिक्रमण के जरिए जबरन बाबरी मस्जिद को ढहाकर तथा वहां अस्थायी मंदिर बनाकर,
मुसलमानों से अपने एक धार्मिक स्थल पर अधिकार पूरी तरह से छीन लिए जाने तक पहुंचाया गया
था। लेकिन, खुद सुप्रीम कोर्ट द्वारा बाबरी मस्जिद ध्वंस की पृष्ठड्ढभूमि में बोम्मई केस में
भारत के संविधान के मूल ढांचे के रूप में परिभाषित की गई धर्मनिरपेक्षता पर भारी
प्रहार करने वाले इन अपराधों को, सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय ने सजा देने के बजाय,
पुरस्कृत कर दिया है। धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ उक्त अपराध करने वाली ताकतों का
पुरस्कार है, जबरन कब्जाई गई जगह पर उनके पूर्ण स्वामित्व का न्यायिक अनुमोदन।
और इसी का दूसरा पहलू है, साढ़े चार सौ साल जहां मस्जिद खड़ी रही थी, उस जगह से मुस्लिम पक्ष
का पूरी तरह से निष्कासन। याद रहे कि इलाहाबाद हाई कोर्ट के 2010 के निर्णय में ही,


मुस्लिम पक्ष को अपनी मस्जिद की जगह के दो-तिहाई हिस्से से वंचित कर दिया गया था। फिर भी, उस
निर्णय में कम से कम एक-तिहाई हिस्से पर उसका अधिकार स्वीकार किया गया था। लेकिन,
सुप्रीम कोर्ट ने उतने हिस्से से भी मुस्लिम पक्ष को इस तर्क के आधार पर महरूम कर दिया है
कि उच्च न्यायालय ने अगर इसमें शांति और सुलह का रास्ता देखा हो, तो यह शांति और सुलह
का रास्ता नहीं था। सुप्रीम कोर्ट के विवेक ने उसे बताया कि शांति और सुलह के लिए,
इकतरफा फैसला इससे कहीं बेहतर है! हां! सुप्रीम कोर्ट ने इतनी मेहरबानी जरूर की है कि
उसने मस्जिद से महरूम होने की क्षतिपूर्ति के रूप में मुस्लिम पक्ष को अयोध्या परिसर की
सरकार द्वारा अधिग्रहीत जमीन में से या अयोध्या में ही कहीं अन्यत्र किसी प्रमुख जगह पर, पांच
एकड़ जमीन देने का आदेश दिया है। वर्ना विहिप आदि की मांग तो मस्जिद की जगह से ही नहीं,
अयोध्या से ही मुस्लिम पक्ष को पूरी तरह से निष्कासित करने की थी। अचरज की बात नहीं है कि
मुसलमान, इस श्कृपाश् को लेकर कोई खास उत्साहित नहीं हैं। कम से कम इस सांत्वना
पुरस्कार को, फैसला इकतरफा नहीं होने का सबूत कोई नहीं मानेगा। और चूंकि हजार
पन्ने के फैसले में भारत की संकल्पना से लेकर, इतिहास, पुरातत्व आदि से होकर शांति व
व्यवस्था की चिंता तक सब कुछ समेटने के बाद भी, सुप्रीम कोर्ट ने अंततरू जमीन पर स्वामित्व के
दावे के रूप में निर्णय सुनाया है, यह पूछा जाना स्वाभाविक है कि इस निर्णय का आधार
क्या है? भारतीय पुरातत्व सर्वे की अकादमिक हलकों में खासी विवादास्पद मानी गई अयोध्या
रिपोर्ट को, निर्विवाद विज्ञान मानने के बावजूद, सुप्रीम कोर्ट ने कम से कम यह निर्णय
नहीं किया है कि चूंकि वहां पहले मंदिर रहा होगा, इसलिए जमीन हिंदुओं की हुई। दूसरी ओर,
यह स्वीकार करने के बाद कि 1992 में अवैध तरीके से गिरा दिए जाने तक, करीब साढ़े
चार सौ साल से विवादित जगह पर मस्जिद बनी रही थी और यह भी स्वीकार करने के बाद कि
1857-58 में हुए झगड़े में जब ब्रिटिश शासन के हस्तक्षेप की नौबत आई थी, उस समय से लेकर
1949 में मस्जिद के मुख्य गुंबद के नीचे मूर्ति रखे जाने तक और इस विवाद के चलते मुसलमानों को
शासन व न्याय पालिका द्वारा मस्जिद तक पहुंच से महरूम ही किए जाने तक, वहां मुसलमानों के
धार्मिक क्रियाकलाप के प्रमाण मिलते हैं। लेकिन अदालत के अनुसार 1856-57 से पहले से
लेकर, सोलहवीं सदी में मस्जिद के निर्माण तक, इस जगह पर सिर्फ मुसलमानों का कब्जा रहने के
प्रमाण मुस्लिम पक्ष पेश नहीं कर पाया था! मुस्लिम पक्ष की यह असमर्थता ही इस निर्णय के लिए
काफी समझी गई। तो क्या हिंदू पक्ष, इस पूरे दौर में अपना लगातार कब्जा साबित कर पाया
था? उसके दावे को स्वीकार करने के लिए इसे प्रमाणित करने की जरूरत ही नहीं समझी
गई।उसके लिए तो इसकी संभाव्यता का ज्यादा वजनी होना ही काफी था कि मस्जिद की मौजूदगी भी,
हिंदुओं की यह आस्था खत्म नहीं कर पाई होगी कि मस्जिद के गुंबद के नीचे की जगह पर ही राम
का जन्मस्थान था और उसकी दिशा में मुंह कर के, प्रतीकात्मक रूप से ही सही हिंदू, उस जगह पर
बराबर पूजा करते रहे होंगे। जैसा कि एक टिप्पणीकार ने याद दिलाया हैकृकब्जे
के प्रमाण के रूप में मस्जिद की मौजूदगी पर, हिंदुओं की आस्था भारी पड़ी है। ये सभी सवाल
उठाने का मकसद, यह याद दिलाना है कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में एक पक्ष को दावे को
स्वीकार किया है और दूसरे पक्ष के दावे को नकारा है। ऐसे में जिस पक्ष के दावे को
नकारा गया है, उसे निर्णय पर सवाल उठाने का, उस पर असंतोष जताने का, समीक्षा की
प्रार्थना करने का पूरा-पूरा अधिकार है। उन्हें ही नहीं बाकी सभी लोगों को भी, अदालत
के किसी भी फैसले पर नुक्ताचीनी करने का पूरा अधिकार है। अगर किसी तरह की अनिष्टड्ढ
की आशंकाएं, संबंधित पक्ष समेत लोगों को निर्णय पर अपने सवाल उठाने से रोकती हैं, तो यह
खुश होने की नहीं, अपनी जनतांत्रिक व्यवस्था के स्वास्थ्य के लिए चिंतित होने की बात है। इसे एकता
के संदेश के रूप में सेलिब्रेट करना, जनता की वास्तविक एकता के लिए खतरनाक ही साबित हो
सकता है। मोदी सरकार और संघ परिवार से संचालित मीडिया की मुख्यधारा, कश्मीर के


बाद अब अयोध्या निर्णय के संबंध में, कोई विरोध नहीं, पूरी सहमति का ऐसा ही स्वांग थोपने में
लगी हुई है, जिसके लिए हिंसक विरोध के न होने को ही साक्ष्य बनाया जा रहा है। वास्तव में यह
बहुसंख्यकवाद की निरंकुशता है, जो हर तरह असहमति को ही अपराध बनाना चाहती है और
खासतौर अल्पसंख्यकों से शिकायत करने तक का अधिकार छीन लेना चाहती है। प्रधानमंत्री जिस
नयी सुबह की बात कर रहे हैं, वह वास्तव में सुबह नहीं एक अंधियारी रात है, जहां
बहुसंख्यकवादी शासन को सामान्य बनाया जा रहा होगा और ऐसे शासन की हरेक
आलोचना को, उस पर सांप्रदायिकता का बल्कि आतंकवाद (शहरी माओवाद समेत) का ही ठप्पा
लगाकर अवैध करार देकर, कुचला जा रहा होगा। अयोध्या पर अदालत के फैसले पर
सवाल उठाना, इस बहुसंख्यकवादी निरंकुशता को चुनौती देना भी है।