वित्तीय कार्रवाई कार्य बल (एफएटीएफ) द्वारा पाकिस्तान को फिर चार माह की मोहलत दी गयी
है, ताकि वह धन शोधन एवं आतंकवाद का वित्तपोषण रोकने पर कड़ाई से अमल कर सके. जून
2018 में जब उसके द्वारा मजबूत कार्रवाई हेतु एक अवधि तय की गयी थी, तब से उसने इन मोर्चों
पर कुछ प्रगति तो दर्शायी, पर अधिकतर कसौटियों पर वह खरा नहीं उतर सका. एफएटीएफ ने
कहा कि 'अब तक इस दिशा में पाकिस्तान द्वारा किये गये अधिकतर कार्यों ने 27 कार्रवाई
बिंदुओं में से केवल पांच को ही संबोधित किया है, जबकि कार्यसूची के शेष हिस्से पर उसने
कमोबेश प्रगति ही की है.Ó
पिछले दिनों एफएटीएफ की बैठक में इन दोनों मुद्दों पर असहयोगी देशों की सूची (ग्रे लिस्ट) में
पाकिस्तान को बरकरार रखते हुए आइसलैंड, मंगोलिया तथा जिम्बाब्वे को उसमें डाला गया.
उसकी काली सूची में सिर्फ दो देश, ईरान एवं उत्तरी कोरिया हैं.पाकिस्तान से एफएटीएफ की
अपेक्षा थी कि वह 'यह प्रदर्शित करना जारी रखेगा कि उसके प्राधिकारी नकदी के वाहकों
(कैश कूरियरों) की पहचान करते हैं और नकदी के अवैध स्थानांतरण पर काबू पाते हुए
आतंकवाद के वित्तपोषण हेतु हो रहे इन वाहकों के इस्तेमाल की जोखिम समझते हैं.Ó कैश
कूरियर उन नेटवर्कों के हिस्से होते हैं, जो दक्षिण एशिया में नकदी के सामान्य प्रवाह से
बाहर काम करते हैं, जिनमें हीरों के व्यापार का वित्तपोषण भी शामिल है. यदि भारत
या पाकिस्तान इस मुद्दे पर कड़ी कार्रवाई करें, तो भी मजबूती से स्थापित ऐसी प्रणालियों से
छुटकारा पाना उनके लिए आसान नहीं होगा. पाकिस्तान उन समूहों में विभेद कर पाने में
समर्थ नहीं है जो मजहब, समाज सेवा एवं सामुदायिक सेवा के साथ ही हिंसा से भी संबद्ध हैं. वहां
लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद की अपने संबद्ध मजहबी निकायों के जरिये सामुदायिक सेवा
में भी बड़ी मौजूदगी है. जब भी वहां कोई बाढ़ या भूकंप आता है, तो प्रभावित आबादी के लिए यही
समूह बड़ी तादाद में अपने स्वयंसेवक तथा राहत सामग्रियां भेजते हैं. इससे वे किसी उम्मीदवार को
अपना समर्थन देकर, नीति तथा कानून निर्माण में दखल देकर और उसके अलावा राष्ट्रीय
नजरिया तय करने जैसी गतिविधियों के द्वारा सियासत में आसानी से घालमेल कर सकते हैं.
यह खतरनाक है और पाकिस्तान द्वारा इसका मुकाबला किया जाना चाहिए, मगर कालेधन की
तरह इसे भी नियंत्रित कर पाना कठिन है.अमेरिका में 11 सितंबर, 2001 को हुए आतंकी हमले
और खासकर भारत की संसद पर हुए आक्रमण के बाद तत्कालीन पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज
मुशर्रफ ने देवबंदी एवं सलाफी समूहों के विरुद्ध कार्रवाई की, जिसका असर तुरंत दिखा.
कश्मीर में आतंकी तथा उससे संबद्ध हिंसक घटनाएं समाप्त होने लगीं. वर्ष 2001 में 4 हजार मौतों
के साथ ये वहां चोटी पर थीं. मगर उसके बाद लगातार घटते हुए ये वर्ष 2002 में 3 हजार,
वर्ष 2004 में 1 हजार, वर्ष 2008 में पांच सौ और वर्ष 2009 में तीन सौ ही रह गयीं. उसके बाद वे
फिर बढऩे लगीं. पिछले वर्ष की 450 मौतें 12 वर्षों में सर्वाधिक थीं.
भारत ने नियंत्रण रेखा पर बाड़ खड़ी कर दी है. जम्मू और कश्मीर के अधिकारियों एवं
पुलिस का कहना है कि अब घुसपैठियों का बाहर से अंदर आना अथवा अंदर से बाहर जाना
अत्यंत कठिन है. इसका अर्थ यह हुआ कि वर्तमान में पाकिस्तान की भूमिका सीमित रह गयी है और
स्थानीय लोग आतंकी प्रशिक्षण पाने उस पार नहीं जा सकते. तब ये निश्चित रूप से भारतीय
राज्य के विरुद्ध संघर्ष करने को प्रतिबद्ध कश्मीरी हैं, जिन्होंने हमारी सेना को परेशानी
में डाल रखा है. खुद के द्वारा संपोषित इन समूहों के विरुद्ध कार्रवाई का नतीजा पाकिस्तान
में तुरंत ही महसूस किया जाने लगा. वे जिस हिंसा का निर्यात करते आ रहे थे, उसने अब
पाकिस्तान के अंदर ही सर उठाना शुरू कर दिया. वर्ष 2000 में जब मुशर्रफ ने उन्हें
कुचलने की कोशिशें कीं, तो पाकिस्तानी शहरों में आतंकी घटनाओं का विस्फोट-सा हो
गया. मुशर्रफ के हटने के एक साल बाद, वर्ष 2009 में 11 हजार मौतें हुईं. उसके बाद इसमें
क्रमश: कमी आती गयी. वर्ष 2010 में 7 हजार, 2013 में पांच हजार, 2016 में एक हजार और
पिछले साल 600 मौतें हुईं. वर्तमान वर्ष पिछले दो दशकों में पाकिस्तान का सबसे शांतिपूर्ण वर्ष
होगा.भारत की सरकारें जनता को हमेशा बताती रही हैं कि सारा आतंकवाद पाकिस्तानी
शैतानी का नतीजा है. यदि हम यह यकीन करते हैं कि कश्मीर में बढ़ती हिंसक घटनाओं के लिए
पाकिस्तान जिम्मेदार है, तो फिर हमें यह भी स्वीकारना पड़ेगा कि इस हिंसा में कमी के लिए भी
वही जिम्मेदार है.
मगर हम यह नहीं मानते. तथ्य है कि आज कश्मीर में जो भी हिंसा है, वह लगभग पूरी तरह स्थानीय
है. यह दरअसल कश्मीर में दशकों से चली आ रही भारतीय नीतियों, मीडिया द्वारा
कश्मीरियों के विरुद्ध फैलायी गयी नफरत, भारतीय न्यायपालिका द्वारा कश्मीरियों के
मौलिक अधिकारों की रक्षा से इनकार और हमारे द्वारा उनके मानवाधिकारों पर
सहानुभूतिपूर्ण विचार से मनाही का ही नतीजा है.
यदि आगामी फरवरी में पाकिस्तान को पिछले दशकों के दौरान उसकी गलतियों के लिए काली
सूची में डाल भी दिया जाता है, तो इससे आतंकवाद के मुद्दे पर भारत को कोई राहत नहीं
मिलनेवाली है, यह तसल्ली भले ही मिल जाये कि हमारा दुश्मन अपमानित हुआ.
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इसी हिंसा और घृणा से हमें बचाना चाहते थे बापू
डॉ. दीपक पाचपोर
महात्मा गांधी ने अपने जीवन की जिन विशिष्टताओं के चलते विश्व भर के लोगों को प्रभावित किया
था उनमें ज्यादातर का संबंध व्यक्तिगत जीवन से था। मसलन, सत्य, ईमानदारी, सादगी, नैतिकता,
ईमानदारी, संयम, मितव्ययिता, पारदर्शिता, आत्म परिष्कार, व्यक्तिगत धर्मनिष्ठा, आदि। ये
सारे गुण आप पर निर्भर करते हैं कि आप इन्हें आत्मसात करते हैं या नहीं। लेकिन
उनके द्वारा प्रतिपादित निजी के साथ सार्वजनिक विशेषताओं में दो ऐसी हैं जिनके आधार
पर वे समाज की रचना करना चाहते हैं- अहिंसा और सद्भाव। उनका मानना था कि कोई भी
समाज या देश हिंसा और नफरत पर नहीं चल सकता। शायद यही कारण हो कि केवल आजादी
प्राप्ति हेतु नहीं बल्कि अहिंसा व सर्वधर्म समभाव के उनके दर्शन से सकल विश्व प्रेरणा पाता
रहा है। इसी के बल पर हमने न केवल अपने देश की आजादी पाई, वरन अन्य अनेक देशों को
भी अहिंसा व परस्पर प्रेम के मार्ग पर चलते हुए स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए प्रेरित किया। गांधी
जी को इस बात का भान था कि हिंसा और आपसी घृणा की राह पर अगर हमने आजादी पाई
भी तो वह अधिक दिनों तक न तो कायम रह सकती है और जिन उद्देश्यों को लेकर उसकी लड़ाई लड़ी
जा रही है वे भी बेमानी हो जाएंगे। हिंसा और नफरत को उभरने न देने के लिए वे इतने सचेत
थे कि 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन उन्होंने चौरा-चौरी हिंसा के ही कारण स्थगित कर
दिया था, यह कहते हुए कि अभी शायद हम इस स्वतंत्रता के योग्य नहीं हुए हैं। सामाजिक सद्भाव व
भाईचारे का उनके लिए महत्व इस बात से पता लगता है कि 15 अगस्त को वे आजादी के जश्न से दूर
कलकत्ता व नोआखाली में लोगों के बीच एकता कायम कर रहे थे जहां चारों ओर
सांप्रदायिक हिंसा की लपटें धधक रही थीं। अहिंसा व मानवीय सद्भाव का महत्व उनके लिए केवल
आजादी पाने तक ही सीमित नहीं था बल्कि वे चाहते थे कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी यह हमारे
देश व समाज की प्रमुख पहचान बने तथा इन्हीं तत्वों से पिरोया हुआ समाज लोगों के भौतिक, नैतिक व
आध्यात्मिक उत्थान के मूलभूत आधार बनें। इन दोनों बातों पर गांधी जी का सर्वाधिक जार था
और वे जानते थे कि नफरत हिंसा को जन्म देती है। तभी उन्होंने कहा था कि आंख के बदले आंख की
नीति पर चलने से तो पूरी दुनिया ही अंधी हो जाएगी। अंधेपन से उनका आशय शायद विवेक की
ओर से भी व्यक्ति व समाज द्वारा आंखें फेर लेने से रहा होगा। हिंसा और सांप्रदायिक व
जातीय घृणा को लेकर बापू की बातों व उनके द्वारा व्यक्त आशंकाओं का खरापन आज
के दौर में फिर साबित हो रहा है। वैसे तो अहिंसा व सद्भाव की वकालत करने वाले उनके इन
विचारों का विरोध और उनकी कही बातों से विपरीत जाने की प्रवृत्ति व प्रयास न उनके
रहते रुके थे न ही उनके जाने के बाद स्थगित हुए। जिन लोगों में हिंसा व शोषण पर आधारित
समाज को बनाए रखते हुए अपना श्रेष्ठत्व कायम करने की लालसा है वे इसी आधार पर अपने
जैसों को संगठित करते हैं। इसके लिए जरूरी है कि वे समाज में सांप्रदायिक विद्वेष और
वैमनस्यता का वातावरण बनाए रखें। यह संघर्ष दरअसल गांधीजी की परिवर्तनमूलक समाज की
अवधारणा और उसकी खिलाफत करने वाले यथास्थितिवादियों के बीच की तनातनी है। गांधी
जानते थे कि हिंसा व घृणा को समाप्त किए बिना समतावादी, ऊध्र्वगामी, स्वतंत्र, स्वावलंबी,
आधुनिक और नैतिक समाज की संरचना नहीं हो सकती। इसके विपरीत जो व्यक्ति, ताकतें और
संगठन चाहते हैं कि भारत उसी पुरातन व मध्ययुगीन मान्यताओं के साथ जिये जो एक
गैरबराबरी, हिंसक व शोषण से परिपूर्ण व्यवस्थाओं वाला समाज हो, वे हर तरह की
हिंसा और घृणा को बेतरह बढ़ावा दे रहे हैं। इसका ताजा उदाहरण है उत्तर प्रदेश
में एक हिंदूवादी की हत्या जिसके चलते देश भर में सांप्रदायिक तनाव की लहर फैलाने की
कोशिश की जा रही है। इससे नफरत व हिंसा की जो नई लहर पैदा करने की कोशिश की जा
रही है उससे किनारा किये जाने की जरूरत है। सच तो यह है कि हिंदू-मुस्लिम के बीच नफरत
की धधकी आग से ही यह स्थिति निर्मित हुई है। गांधी दर्शन के आलोक में हमें यह जान व समझ लेना
दोनों ही जरूरी है कि हिंदू और मुस्लिम दोनों संप्रदायों के लोगों को डराकर, बहलाकर
और हिंसक बनाकर पूंजीवादी और सत्ताधीश लोग फायदा उठाना चाहेंगे। दुखद तो यह है कि
गांधी का 150वां जयंती वर्ष मनाने का एक माह भी नहीं बीता है कि इस कांड ने हमारे सामाजिक
सौहाद्र्र की चूलें हिलाकर रख दी हैं। हम 1947 की सी स्थिति की ओर तो अग्रसर नहीं हो रहे हैं! इस
पर सरकार भी चुप है, प्रशासन भी मौन है। इसे लेकर देश भर में उन्माद जारी है। लोग
जहरीले बयानों के साथ शक्ति प्रदर्शन कर रहे हैं और खुले आम एक दूसरे को चुनौती दे
रहे हैं। सोशल मीडिया में इसे लेकर जिस तरीके से एक दूसरे को ललकारा जा रहा है,
उससे गंभीर स्थिति बन रही है। फोटोशॉप्स का इस्तेमाल, फाईल फोटो व डाक्टर्ड वीडियो
के फर्जी इस्तेमाल से लेकर सचमुच के उत्पीडऩ व हिंसक बोल एवं कृत्यों से सावधान रहने की
आवश्यकता है। गांधी जिन परीक्षाओं से 1942 और 1947 में गुजरे थे, कुछ उसी तरह की आग
पर चलकर हमें सांप्रदायिक नफरत व सभी तरह की हिंसा को नकारने का वक्त है। हिंसा और
घृणा के इस नए उद्वेग को रोकना इसलिए और भी आवश्यक है क्योंकि लगभग एक माह के भीतर
ही भारत के सर्वधर्म समभाव की भावना को एक अहम परीक्षा से गुजरना है। वह है बेहद
संवेदनशील और विवादास्पद अयोध्या मामले का सुप्रीम कोर्ट द्वारा फैसला आना। कई
सदियों से भारत के हिंदू-मुस्लिम संबंधों के बीच दीवार बना बाबरी मस्जिद-राममंदिर मसला
भारत के नागरिक कैसे हल करते हैं और उसके निर्णय को किस तरह लेते हैं, यह न केवल
150वें वर्ष में गांधी को नए सिरे से आत्मसात करने या त्यागने का सबब बनेगा बल्कि भारत
के भविष्य की बुनियाद बची रहती है या तड़कती है, इसका भी अनुमान लग सकेगा। इस परस्पर
घृणा व उससे उपजी हिंसा सा स्रोत देश का वर्षों पूर्व हुआ दुर्भाग्यजनक बंटवारा और
पूर्ववर्ती लोगों द्वारा की गयी गलतियां हैं तो इसका अर्थ यह होगा कि हमें सहअस्तित्व के नियम सीखने
में और भी वक्त लगेगा। यह भी कहना होगा कि हम जिस मंद गति से सद्भाव का पाठ पढ़ रहे हैं हमें
परिमार्जित होने में भी काफी समय लगेगा पर तब तक हमें इतिहास के सींखचों में कैद कर शेष
दुनिया काफी आगे बढ़ चुकी होगी। वैसे 1947 की फैली हिंसा व घृणा व आज की नफरत में कुछ
फर्कभी है। तब उससे निपटने के उपाय सरकार व राजनैतिक दलों ने ईमानदारी से किए थे
पर आज सत्ता व सियासती पार्टियां इसे बढ़ा रही हैं। इसका उपयोग सत्ता में टिके रहने
या पाने के लिए और मजबूत होने के लिए किया जा रहा है। इसमें राष्ट्रवाद का घोल तो
कराया ही जा रहा है, पूंजीवाद को बढ़ाने में भी उसका भरपूर उपयोग हो रहा है। हम
हिंसा-घृणा के उन्मूलन के लिए पुलिस या न्यायपालिका की ओर न देखें क्योंकि यह कानून
मात्र से नहीं किया जा सकता। इसके लिए नैतिकता पर आधारित गांधीवादी मूल्यों के अनुरूप व
उनके बताए रास्ते पर चलना होगा। यह व्यक्तिगत व सामूहिक रूप से घृणा व हिंसा के खिलाफ
खड़े होने की घड़ी है। राजनैतिक दल, सरकार के तीनों अंग- विधायिका, कार्यपालिका तथा
न्यायपालिका के साथ मीडिया के इन हिंसक व घृणा फैलाने वाली ताकतों के आगे लाचार
व एक तरह से आत्मसमर्पण कर दिए जाने के बाद नागरिकों को अपने दम पर खड़े होने की
आवश्यकता है। ऐसा हर व्यक्ति जो स्वतंत्र, शांतिपूर्ण, समतामूलक, लोकतांत्रिक और आधुनिक
समाज में संपूर्ण मानवीय गरिमा के साथ जीना और सभी जातियों, संप्रदायों व समूहों के बीच
परस्पर सौहाद्र्र की विरासत को बचाए रखना चाहता है, वह हिंसा और घृणा का गांधी के
बताए मार्ग पर चलते हुए विरोध करे!